पेट्रोल के दाम बढ़ रहे हैं, बढ़ते ही रहेंगे, पहले भी सस्ते नहीं थे, अब हम 70 रुपये प्रति लीटर से बहुत दूर चले आए हैं. वहां लौटना नहीं हो सकेगा. बेहतर है सरकार फिर से वर्क फ्राम होम लागू करे. हर आदमी फ़ालतू में दो घंटे ट्रैफ़िक में रहता है और तनाव बढ़ाता है. सरकार को टैक्स का कुछ नुक़सान होगा, लेकिन उसकी भरपाई दूसरे तरीक़े से हो जाएगी. जिनके लिए आफिस जाना बहुत ही ज़रूरी है, वही सड़क पर जाएं और उसका इस्तेमाल करें. बाक़ी घर से काम करें. सभी सरकारी दफ़्तरों में वर्क फ्राम होम लागू कर देना चाहिए. कुछ दिन के लिए नहीं बल्कि अगले दो तीन साल के लिए लागू कर देना चाहिए. यूपी सरकार ने मुफ़्त राशन योजना को तीन महीने के लिए बढ़ा कर अच्छा काम किया है. अगर यह योजना नहीं बढ़ाई जाती तो इस प्रदेश की आधी से अधिक आबादी भूखे मर जाती.
विकास के जितने भी दावे किए जाएं लेकिन नेताओं को भी पता होगा कि इन्हीं नीतियों से ग़रीबी पैदा होती है. इन आर्थिक नीतियों का विकल्प सोच लेना आसान नहीं है, हर सरकार इन्हीं आर्थिक नीतियों के तंत्र का एक छोटा सा हिस्सा है जिनका निर्माण दुनिया की किसी और फ़ैक्ट्री में होता है. जिसे आप गिरोह कह सकते हैं. क्रोनी-कैपटलिज़्म के बारे में सुनते होंगे. इसके खेल को समझने की क्षमता भारत के 99.9999 प्रतिशत पत्रकारों में नहीं है, जिसमें मैं भी हूं.
यूपी में 15 करोड़ ग़रीब हैं.अब इनके दम पर बीजेपी चुनाव जीती है तो कई लोग ग़रीबों को ही गाली दे रहे हैं. यह सही नहीं है. आप कैसे 15 करोड़ ग़रीब जनता के भूखे मर जाने की कल्पना कर सकते हैं. तब तो आप हैवान हो चुके हैं. मैं तो चाहता हूँ कि योगी सरकार पांच साल के लिए मुफ़्त राशन दे और कुछ नए आइटम भी जोड़े. आम और आंवले का अचार, गुड़, कभी कभी फल, सब्ज़ी वग़ैरह.
ग़रीबों से नफ़रत करने वालों से मेरा एक सवाल है. क्या वे किसी दल को जानते हैं जिसकी आर्थिक नीति डावोस और वर्ल्ड इकोनमिक फ़ोरम की फ़ैक्ट्री से न निकलती हो? जिन नीतियों से कुछ हज़ार अमीर होते हैं और कई करोड़ ग़रीब हो जाते हैं और ऐसा कैसे है कि हर दल की सरकार समान रूप से उन्हें ही लागू किए जा रही है. किसी भी दल के पास अलग आर्थिक चिंतन और आर्थिक विकल्प नहीं है क्योंकि इसका माल कहीं और से आ रहा है. इस माल को रिजेक्ट करने की क्षमता किसी में नहीं है. यही कारण है कि सारी राजनीति धर्म के क्षेत्र में हो रही है, क्योंकि राजनीतिक दलों के पास प्रासंगिक बने रहने का इतना ही स्पेस बचा हुआ है. राजनीति का क्षेत्रफल सीमित कर दिया गया है और उस क्षेत्रफल में केवल धर्म की राजनीति ही हो सकती है.
क्या आप अपने आस-पास नहीं देख रहे कि नव उदारवादी नीतियां लोगों को गरीब बना रही हैं, कम से कम वेतन वाली नौकरियां पैदा कर रही हैं. आने वाले दौर में बाइकर्स इकोनमी हमारे युवाओं को महीने का दस हज़ार देने वाली है. उन्हें जीने भर के लिए जीना होगा. मुफ़्त राशन सरकार देगी तभी वे कम से कम वेतन पर काम करते हुए जी पाएंगे. यह योजना भी एक तरह से कारपोरेट को दी जाने वाली सब्सिडी है. इसे समझने की कोशिश कीजिए.किसी को इस बात से एतराज़ है तो बता दे कि फिर तीस साल के उदारीकरण के इस दौर में लोगों की आर्थिक शक्ति इतनी क्षीण क्यों है. क्यों सौ पांच सौ लोगों के हाथ में सारी पूंजी है. ग़रीब लोगों को अपनी ताक़त समझनी होगी. उनके पास सरकार के अलावा कोई नहीं है और सरकार उन्हीं के वोट से बनती है.
15 करोड़ ग़रीबों का मज़ाक़ न उड़ाएं बल्कि वैकल्पिक आर्थिक नीति की बात करें. जैसे मैं पेंशन योजना का समर्थक हूं. आज कल हिन्दी अख़बारों में पुरानी पेंशन के ख़िलाफ़ कई लेख छप रहे हैं.मुझे नहीं पता कि पुरानी पेंशन के ख़िलाफ़ लिखने वाले लेखक के माता-पिता पेंशन लेते हैं या नहीं. अगर लेते हैं तो लेखक को पहले वापस कर देना चाहिए. पर यह बहुत बड़ी राय है कि पुरानी पेंशन नहीं हो और इस तरह की राय उसी नवउदारवाद की फ़ैक्ट्री से निकलती है. सरकारी कर्मचारियों के पास नैतिक और संख्या बल नहीं है.15 करोड़ ग़रीबों के पास दोनों है. अंग्रेज़ी में लिखने वाले राष्ट्रीय पत्रकारों के पुराने लेख निकालें. तब पता चलेगा कि कैसे वे सामाजिक सुरक्षा की इन नीतियों का मज़ाक़ उड़ाया करते थे. अब वे ग़रीबों के लिए लांच की गई इन योजनाओं की सराहना करते हैं. कारण आप जानते हैं. भाजपा के इकोसिस्टम से बाहर कर दिए जाएंगे और ऐसा नहीं करेंगे तो भाजपा सत्ता के इकोसिस्टम से बाहर हो जाएगी.
रही बात मिडिल क्लास के लिए. तो उसे मानसिक सुख चाहिए. भले ही इसका आधार नफ़रत है लेकिन वे इसकी शिकायत नहीं कर सकते कि भाजपा ने उन्हें मानसिक सुख देने में कोई कमी की है. धर्म की राजनीति के ज़रिए उसे मानसिक सुख और पहचान मिली है. नौकरी करते हुए लोग मानसिक रोग के शिकार हो रहे हैं और धर्म की राजनीति से बेरोज़गार रहते हुए मानसिक सुख मिल रहा है. यही कारण है कि आज भारत का युवा और उनका परिवार बिना रोज़गार के भी मानसिक रूप से खुश है. यह बात मैं ताने में नहीं कह रहा. धर्म ने बेरोज़गारी की समस्या का जो राजनीतिक समाधान पेश किया है वह आर्थिक नीतियां नहीं पेश कर सकीं और उन नीतियों में इसकी क्षमता भी नहीं है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.