This Article is From Nov 27, 2023

चुनावी सीजन में नेताओं की भाषा कैसे-कैसे रंग दिखाती है!

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Amaresh Saurabh

चुनावी सीजन है. वादों और दावों के बादल जहां-तहां उमड़-घुमड़ रहे हैं. बरसने वाले कम, आंखों को सुहाने वाले ज्यादा. आरोप-प्रत्यारोप के छींटों के बीच वार-पलटवार का गर्जन-तर्जन भी जारी है. इस चुनाव में भी नेताओं की बोली वैसी ही है, जैसी चुनावों के वक्त अक्सर हो जाया करती है. नेताओं की भाषा का स्तर कैसा है, जरा गहराई में उतरकर चेक कीजिए.

कैसे-कैसे टर्म चर्चा में?
एक टर्म खूब चल रहा है- पनौती. वर्ल्डकप में हार के लिए जिम्मेदार कौन? पनौती. पनौती ने हरवा दिया! पनौती क्या है? जवाब अलग-अलग हैं. पनौती नाम की एक जगह है नेपाल में. राजधानी काठमांडू से करीब 30 किलोमीटर दूर. इस नाम से एक दूसरी जगह यूपी में भी है, चित्रकूट जिले में. लेकिन फाइनल मैच न तो नेपाल में हुआ, न ही यूपी के ग्राउंड पर. इन पनौतियों का अहमदाबाद से कोई ताल्लुक नहीं. फिर भी हार के लिए पनौती जिम्मेदार!

ज्योतिष के जानकार शनि की एक खास दशा को पनौती कहते हैं. लेकिन ये शनि कौन हैं? नवग्रह के बीच न्याय करने वाला ग्रह, यानी न्यायाधीश. इस हिसाब से देखें, तो जो टीम बेहतर खेलती, निश्चित तौर पर वही जीत का हकदार होती. यही न्याय है. लेकिन फिर भी कुछ नेता इस बात पर अड़े हैं कि हार के लिए पनौती जिम्मेदार! अब चुनाव आयोग भी पनौती का मतलब पूछ रहा है. माने चुनाव ज्योतिष से जुड़ेगा. ज्योतिष पहले से ही धर्म से जुड़ा है. फिर बहस होगी कि राजनीति में धर्म मत लाइए. सही बात है. आज की राजनीति में अधर्म ही खपेगा. धर्म के लिए जगह कहां?

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ग्रामर में इको वर्ड्स पढ़ाए जाते हैं. प्रतिबिंबित शब्द. जैसे- पैसा-वैसा. पानी-वानी. एक नया कुनबा बना. डॉट वाला इंडिया. इसकी खातिर जबरन इको वर्ड गढ़े गए- इंडिया-घमंडिया. अब किताबों में ये भी छपेगा. शायद बच्चों को याद रखने में आसानी हो. पढ़ेगा इंडिया, तभी तो बढ़ेगा इंडिया! वैसे सबने पढ़ा तो ये भी था- प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय. पर लगता है कि कबीरदासजी ने सबको भ्रम में रखा. आज मोहब्बत की भी दुकान खुल गई. सबकुछ रेडीमेड. खरीदार भी जुट रहे. भारी मन वाले भी, सौ-दो सौ ग्राम वाले भी...

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पढ़ाई और कम्युनिकेशन स्किल
ये दोनों ही चीजें कमाल की हैं. करियर सेट करने के लिए हर जगह डिमांड में है. हाल में एक नेताजी महिलाओं की पढ़ाई पर ज्ञान दे रहे थे. चुनावी बयार थी. छाई बहार थी. सदन में बोलते-बोलते भूल गए. भूल कि महिलाओं की शिक्षा और प्रजनन-दर पर बोलना है, कामशास्त्र के सस्ते साहित्य पर नहीं. लेकिन कम्युनिकेशन स्किल जबरदस्त!

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मास कम्युनिकेशन के छात्रों को समझाया जाता है कि खबर को घुमाओ नहीं. जो कहना है, सीधे-सीधे बको. सीधा तथ्य पेश करो. मसलन, अपनी माशूका से ये मत कहो कि आज मौसम बड़ा सुहाना है. फूल बड़े सुंदर लग रहे हैं. पेड़ पर बैठी चिड़िया कितनी प्यारी है. देखो, कबूतर को जोड़ा साथ-साथ उड़ रहा है. भई, लड़की से सीधे कहो- आई लव यू. शादी की डेट क्या रखी जाए?

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नेताजी को भी हर तबके तक अपनी बात पहुंचानी थी, सो सीधा-सीधा मुंह खोल दिया. अंदर-बाहर एक कर दिया. पर्दा भी क्यों और किससे? पर्दा नहीं जब कोई खुदा से! खैर, तीर तेजी से निकल चुका था. तीर कमान से, बात जुबान से. बाद में महिलाओं ने कायदे से बताया कि शिक्षा केवल हमारे लिए ही नहीं, हमारे रहनुमाओं के लिए भी जरूरी है.

वादों की फटी झोली
वोटरों पर बेशुमार प्यार बरसाने के उदाहरण पिछले कुछ चुनावों में देखे जा चुके हैं. बताइए कितना दे दूं. इतने हजार करोड़, उतने हजार करोड़... पर कमाल है, इतनी दरियादिली, इसका भी विरोध! जब देने वाला दिल खोलकर दे ही रहा है, तो हमें क्या? ये क्या पूछना कि मामा के घर से लाया या ताऊ के घर से लाया. चाहे जहां से भी लाया. कल उसने दिया, आज हम भी देंगे. कल उसकी बारी, आज हमारी बारी.

अबकी चुनाव में भी नेताओं के वादों का कोई जवाब नहीं. 400-500 रुपये में सिलेंडर. भई, अभी ही पूछ लीजिए- खाली देंगे या भरा हुआ? किसान सम्मान निधि की राशि बढ़ाएंगे. पर इससे तो केवल निधि और उसके मम्मी-पापा को फायदा होगा ना, हम किसानों का क्या? एंटी रोमियो स्क्वॉड बनाएंगे. ठीक है, बनाइए. कम से कम हमें उसी में काम दिलवा दीजिए. लाखों युवा को रोजगार या स्वरोजगार के मौके देंगे. हम समझ रहे हैं. इस 'या' में ही सारा खेल छुपा है. हमने बेसन का इंतजाम पहले ही कर रखा है.

हेल्थ इंश्योरेंस का कवर डबल करेंगे. पर अस्पताल के बिल ट्रिपल होने से रोक लेंगे क्या? आवास का अधिकार देंगे. हां, दे ही दीजिए. आप तो बरसों से देने को तैयार बैठे थे. जरूर हमारे बाप-दादों ने ही ये अधिकार लेने से इनकार किया होगा. जाति-जनगणना कराएंगे. कराइए. बाकी विश्व को भी जाति के हिसाब से अपना गुरु चुनने में सहूलियत रहेगी.

भाषा बहता नीर!
सुधी-सुजान लोग भाषा को 'बहता नीर' बताते हैं. माने भाषा हमेशा एक जैसी ठहरी नहीं होती. बहते पानी की तरह, समय के साथ बदलती रहती है. वक्त के मुताबिक खुद को ढालती रहती है. इस बात को आप सीधे-सीधे नेताओं की भाषा से जोड़कर भी समझ सकते हैं. वोट मांगते समय कुछ और. कुर्सी पाने के बाद कुछ और. कुर्सी न मिलने पर कुछ और. कहीं- कोई स्टैंड नहीं.

एक और खास बात. पानी जितना नीचे की ओर बहता है, उसका बहाव उतना ही तेज होता है. और नेताओं की भाषा का क्या? इन्हें तो और नीचे होकर बहना है. आखिर लहर जो पैदा करना है!

(अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं. अमर उजाला, आज तक, क्विंट हिंदी और दी लल्लनटॉप में कार्यरत रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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