आगरा की जिला जेल की ऊंची दीवारों के पीछे हर दोपहर एक जादू होता है. ठीक ढाई बजे जब बाहर की दुनिया अपनी रफ्तार में खोई हुई होती है, तब इन सलाखों के पीछे खामोशी को चीरती हुई एक आवाज बंदियों के कानों में गूंजती है. 'नमस्कार, आप सुन रहे हैं आगरा जेल रेडियो!' यह सिर्फ एक रेडियो प्रसारण नहीं बल्कि उन हजारों बंदियों के लिए जीवनरेखा है, जो अपनी गलतियों की सजा काटते हुए भी एक बेहतर कल का सपना देख रहे हैं.
यह कहानी 2019 में 'तिनका तिनका फाउंडेशन' के एक छोटे से सपने से शुरू हुई थी. एक माइक्रोफोन, तीन कैदियों की इच्छा, जेल स्टाफ की रजामंदी और एक छोटा-सा कमरा, बस इतनी ही पूंजी थी. आज छह साल बाद 2025 में यह छोटा सा सपना एक आंदोलन बन चुका है. अब यह आठ रेडियो जॉकी की टीम है, जो हर दिन दो घंटे तक अपने साथी बंदियों के लिए संगीत, संवाद और सपनों की दुनिया रचते हैं.
जेल अधीक्षक हरि ओम शर्मा की आंखों में इस पहल को लेकर एक खास चमक है. वह कहते हैं, 'यह अब सिर्फ एक माध्यम नहीं बल्कि एक आंदोलन है.' उन्होंने देखा है कि कैसे यह रेडियो कैदियों के स्वभाव में नरमी लाया है, उन्हें पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित किया है और अपनी बात कहने का एक रचनात्मक मंच दिया है.
दोपहर 2:30 से 4:30 बजे तक जेल का माहौल बदल जाता है. बैरकों में 'चिट्ठी आई है' और 'संदेशे आते हैं' जैसे गीतों की धुनें गूंजती हैं. गाने की फरमाइशें लिखकर भेजने की एक छोटी सी आदत ने अनजाने में साक्षरता की एक नई इबारत लिख दी है. कई बंदियों ने पहली बार कलम पकड़ना सीखा और जिनकी लिखावट टेढ़ी-मेढ़ी थी, वह अब सुधरने लगी है.
हर प्रसारण को एक खास रजिस्टर में सहेजा जाता है, मानो यह जेल की दीवारों के भीतर कैद आवाजों का एक ऐतिहासिक दस्तावेज हो. शिक्षा, कानूनी जागरूकता और अनुशासन से जुड़े कार्यक्रम सबसे ज्यादा सुने जाते हैं. यह पहल इतनी खास है कि 'नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया' ने इस पर 'रेडियो इन प्रिजन' नाम की एक किताब भी प्रकाशित की है.
मैं जब छह साल पूरे होने पर यहां आई तो आंखों में गर्व के साथ एक विश्वास भी था कि संवाद सम्मान की पहली सीढ़ी है. जो कुछ मुट्ठी भर आवाजों से शुरू हुआ था, वह आज आशा का एक मंच बन गया है. यह रेडियो साबित करता है कि कैद में भी बदलाव संभव है.
बिना किसी आर्थिक मदद के यह पहल लोगों के समर्थन से फल-फूल रही है. यह रेडियो खामोशी और आवाज, निराशा और सम्मान, कैद और रचनात्मकता के बीच एक पुल है, जो भारत में कारावास की कहानी को एक नया, मानवीय मोड़ दे रहा है. इससे मेरा यह विश्वास और पुख्ता होता है कि सुंदर रचनाओं के लिए संसाधन से भी ज्यादा बड़ी ताकत होती है - नीयत. और वह यहां साफ नजर आती है.
(प्रोफेसर वर्तिका नन्दा लेडी श्रीराम कॉलेज की पत्रकारिता विभाग की प्रमुख और तिनका तिनका फाउंडेशन की संस्थापक हैं.)
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