This Article is From Feb 25, 2022

यूक्रेन आखिर किसकी युद्ध पिपासा का परिणाम है?

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Priyadarshan

इसमें संदेह नहीं कि यूक्रेन की त्रासदी (Ukraine-Russia war) व्लादीमीर पुतिन (Vladimir Putin) की युद्धपिपासा का नतीजा है. यह‌ एक ग़ैरजरूरी युद्ध है जिसे हर हाल में टाला जा सकता था, टाला जाना चाहिए था. लेकिन फिर कौन सा युद्ध ज़रूरी होता है? यह सच है कि इस युद्ध के लिए जितने जिम्मेदार पुतिन हैं उतना ही जिम्मेदार अमेरिका भी है और वह नाटो भी जिसने यूक्रेन को यह भ्रम दिलाया कि वह उसका बचाव करेगा. अब अमेरिका और यूरोप रूस पर तरह-तरह की पाबंदियों का एलान कर रहे हैं लेकिन सारी दुनिया जानती है कि ऐसी पाबंदियां एक हद के बाद कारगर नहीं होतीं. कभी ईरान पर, कभी इराक़ पर ऐसी पाबंदियों से युद्ध रुके नहीं हैं, आम लोगों को भले परेशानी हुई हो. दरअसल इस युद्ध से जितना नुकसान यूक्रेन को हो रहा है उससे कम नुकसान रूसी जनता को नहीं होगा. रूस में इसके खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए हैं. क्योंकि वहां भी लोगों को एहसास है कि यह थोपा हुआ युद्ध उनके बैंक कारोबार बंद करवा रहा है, उनके रूबल को बेमानी बना रहा है, शेयर बाज़ार में उनका हिस्सा कमज़ोर कर रहा है, उनके लिए मुसीबतों का नया दौर ला रहा है.

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बेशक, ऐसे आर्थिक हिसाब-किताब उस राष्ट्रवादी जुनून के आगे टिकेंगे नहीं, जिसे भड़काते हुए पुतिन न सिर्फ युद्ध को जायज ठहराने की कोशिश करेंगे, बल्कि इसके सहारे ख़ुद को एक मज़बूत नेता की तरह प्रस्तुत करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.दरअसल यह जुमला पुराना है कि बूढ़े युद्ध छेड़ते हैं और नौजवान मारे जाते हैं. इसे इस तरह कहा जा सकता है कि नेता युद्ध करते हैं और सैनिक मारे जाते हैं. युद्ध हथियारों के सौदागरों को रास आता है. वह  वोटों के खरीददारों के लिए उपयोगी होता है- वह अप्रासंगिक होने के खतरे से घिरे शासनाध्यक्षों और नाकाम तानाशाहों का आखिरी शरण्य होता है.

दूसरे विश्व युद्ध को लेकर बारह खंडों में लिखी अपनी किताब ‘सेकंड वर्ल्डवार' की भूमिका में विंस्टन चर्चिल ने अमेरिकी राष्ट्रपति के हवाले से लिखा है कि‌ उस युद्ध की कोई वजह नहीं थी. वह एक बेवजह का युद्ध था. तब कहा गया था कि यह युद्ध भविष्य के सारे युद्धों का अंत करने के लिए लड़ा जा रहा है. लेकिन 6 करोड़ लाशें बिछाने के बाद एक युद्ध ख़त्म हुआ, उसका सिलसिला नहीं. अमेरिका ने वियतनाम पर हमला किया, अफ़गानिस्तान पर हमला किया, इराक़ पर हमला किया, रूस हंगरी, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, अफ़गानिस्तान में दाख़िल हुआ, भारत-चीन, पाकिस्तान, वियतनाम, टूटे हुए युगोस्लाविया के हिस्से अलग-अलग युद्ध और गृह युद्ध लड़ते रहे. शांति वह मरीचिका बनी रही जो इन युद्धों की धूप  में बनती है.

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इस ढंग से देखें तो यूक्रेन पर रूस के हमले में अनैतिक चाहे जितना भी हो, अजूबा कुछ नहीं है. यह दुनिया वर्चस्व की लड़ाई लड़ रही है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद चालीस साल चला शीतयुद्थ दरअसल इसी वर्चस्व का एक मोर्चा था. सोवियत संघ टूटा तो उसने पश्चिम की दुनिया से वादा लिया कि वे नाटो को उसकी सरहदों की ओर नहीं फैलाएंगे. लेकिन तब रूस कमज़ोर था और अमेरिका-नाटो उससे बेपरवाह. सोवियत पतन के बाद एकध्रुवीय दुनिया में अमेरिका के वर्चस्व का झंडा फहराता रहा, और रूस उसे अपमानित देखता रहा. नाटो रूसी सरहदों की ओर सरकता रहा और यूक्रेन भी उससे जुड़ने को तैयार बैठा था.

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लेकिन पुतिन ने रूस को उसकी ताक़त और हैसियत लौटाई है और वह विश्व व्यवस्था से नई सौदेबाज़ी करने को तैयार है. यही नहीं, उसे पता है कि थोड़ी-बहुत लूट-खसोट के अवसर वह अपनी ताक़त के बल पर हासिल कर सकता है. पुतिन अब साम्यवाद के बिना पूर्व सोवियत खेमे की वापसी की कोशिश में हैं और यूक्रेन पर पहले दबाव और अब हमला उनकी इसी नीति का हिस्सा है.

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निश्चय ही यूक्रेन एक संप्रभु राष्ट्र है और उसे यह तय करने का अधिकार है कि वह किससे दोस्ती करेगा और किससे नहीं, किसके साथ अपनी सुरक्षा का समझौता करेगा और किसके साथ नहीं. लेकिन आज की ग्लोबल दुनिया में इस भोली संप्रभुता से ज़्यादा अहमियत वह क्षेत्रीय संतुलन रखने लगा है जिसके आधार पर कोई देश ख़ुद को सुरक्षित महसूस करता है. आज अगर नेपाल अपनी सुरक्षा के नाम पर भारत से लगी सीमा पर चीन को अड्डा बनाने की इजाज़त दे दे तो हम उसका विरोध करेंगे या संप्रभुता के नाम पर चुप बैठेंगे? बेशक यह हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि एक बड़ा पड़ोसी होने के नाते हम नेपाल को सुरक्षा का भरोसा दिलाएं. इस लिहाज से यह रूस की ज़िम्मेदारी थी कि वह अपने से अलग हुए मुल्कों के साथ हमलावर मुद्रा में पेश नहीं आता. लेकिन पहले क्रीमिया और अब यूक्रेन के साथ उसका सलूक बताता है कि रूस ने इस बात की कम परवाह की और यूक्रेन को यह सोचने का मौक़ा दिया कि वह नाटो से सुरक्षा हासिल करे.

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लेकिन नाटो या अमेरिका की दिलचस्पी यूक्रेन को सुरक्षित रखने से ज़्यादा रूस पर दबाव बनाने में रही है. पुतिन अगर युद्धपिपासू राजनेता हैं तो अमेरिकी राष्ट्रपति कोई अमन के फरिश्ते नहीं रहे हैं. यह सच है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप के किसी एक देश पर इतना बड़ा हमला नहीं हुआ जितना बड़ा रूस ने यूक्रेन पर किया है, लेकिन इसी दौरान एशिया की जमीन लहूलुहान रही है. अमेरिका के अपने आंकड़े बताते हैं कि उसकी वायुसेना ने बीते बीस साल में 3.33 लाख से ज़्यादा बम गिराए हैं. यह रोज़ 46 बम गिराने का हिसाब बैठता है. अमेरिका ये बम कहां गिरा रहा था?

जाहिर है, सीरिया, इराक़ और अफ़गानिस्तान में, जिनके लिए कोई रोने वाला नहीं था. इन तमाम वर्षों में यह साबित हुआ है कि अमेरिका दरअसल आतंकवाद से नहीं लड़ रहा था, वह कहीं लोकतंत्र बहाली के नाम पर और कहीं ओसामा बिन लादेन को खोजने के बहाने वर्चस्व के उसी खेल में लगा था जिसके लिए वह जाना जाता है. उसने इसके लिए बाक़ायदा बहाने तैयार किए. कैथी स्कॉट क्लार्क और ऐंड्रियन लेवी की किताब ‘द क्राइम' विस्तार से बताती है कि किस तरह ओसामा बिन लादेन के घरवालों को ईरान ने छुपाए रखा और किस तरह सीटीसी की रिपोर्ट को नज़रअंदाज़ करते हुए- बल्कि सदन के सामने उसे पलटते हुए- अमेरिका ने इराक़ को निशाना बनाया. जाहिर है, युद्ध का खेल अमेरिका बरसों से खेलता रहा है और वियतनाम की याद बताती है कि इसके लिए वह किन हदों तक जाता रहा है.

बेशक, इससे यूक्रेन पर रूसी हमले का तर्क नहीं बनता. लेकिन यह समझ में आता है कि रूस और अमेरिका जैसे महाबली युद्ध और शांति दोनों का अपनी राजनीतिक गोटियों के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. छोटे देशों के लिए ज़रूरी है कि वे इनसे बराबर की दूरी बरतें और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इनके खेल का पर्दाफ़ाश करें.

युद्ध के ऐसे हालात में भारत ने अपना पुराना रुख़ अख़्तियार किया है- किसी के साथ खड़े न होने का. बेशक, अभी किसी के साथ खड़ा न होने का मतलब रूस के साथ खड़ा होना है जिसकी शिकायत यूक्रेन के राजदूत ने की भी है. लेकिन रक्षा मामलों में रूस भारत का भरोसेमंद साझेदार रहा है. अमेरिका अभी ही भारत पर रूस के साथ का मिसाइल सौदा रद्द करने के लिए दबाव बना रहा है. लेकिन भारत को इस दबाव में भी नहीं आना चाहिए. फिलहाल रूस के साथ खड़ा चीन भारत के लिए वैसे ही चुनौती बना हुआ है. भारत अमेरिका के भरोसे नहीं रह सकता.

जहां तक युद्ध का सवाल है- हर हाल में युद्ध विनाशकारी होते हैं. वे कुछ तानाशाहों को छोड़ किसी को फायदा नहीं पहुंचाते. पूरी की पूरी बीसवीं सदी इंसानियत ने युद्ध करते गुज़ारी है. दो-दो विश्वयुद्धों में आठ से दस करोड़ लोगों के मारे जाने का आंकड़ा बनता है. श्रीकांत वर्मा के कविता संग्रह ‘जलसाघर' में युद्ध विरोधी कई कविताएं हैं. ‘युद्ध नायक' कविता में वे लिखते हैं- ‘अभी / कल ही की तो बात है / ढाका / एक मांस के लोथड़े की तरह / फेंक दिया गया था / दस हज़ार कुत्तों के बीच / युद्ध कब शुरू हुआ था हिंद चीन में? / हृदय में / दो करोड़ साठ लाख घाव लिए / वियतनाम / बीसवीं शताब्दी के बीच से / गुज़रता है. / अभी / कल ही की तो बात है / यूरोप / एक युद्ध से निकल कर / दूसरे युद्ध की ओर / इस तरह चला गया था / जैसे कोई नींद में चलता हुआ व्यक्ति.‘

अब नई सदी में किसी उनींदे शख़्स की तरह यूरोप-अमेरिका देखते रहे और रूस यूक्रेन में घुस आया. इससे नई शांति के जाप शुरू होंगे, नए युद्धों की पृष्ठभूमि तैयार होगी. फ़ुरसत मिले तो इमैनुएल ओर्तीज़ की लंबी कविता ‘अ मोमेंट ऑफ़ साइलेंस' पढ़ लीजिएगा- पता चलेगा, किस तरह मुल्कों, पहचानों, मजहबों, अस्मिताओं के नाम पर पूरी बीसवीं सदी में इंसानों को भेड़-बकरियों की तरह काटा गया है. अगर हम इनका शोक मनाना चाहें तो हमें कई सदियों का मौन रखना पड़ेगा.फिलहाल यूक्रेन के लिए मौन रखने की घड़ी है.
 

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