बिहार में वंशवादी राजनीति का गहराता संकट- रोहिणी-तेजस्वी का मनमुटाव और लालू यादव की डूबती राजनीतिक विरासत

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाली आरजेडी की अपमानजनक हार के साथ ही लालू प्रसाद यादव के परिवार में आपसी कलह सामने आया है, इससे परिवार के अंदर की बातें सामने आ रही हैं.

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  • बिहार में RJD की हार के साथ ही लालू यादव के परिवार में आपसी कलह सामने आया है, अंदर की बातें सामने आ रही हैं.
  • बेटी रोहिणी आचार्य का घर, पार्टी छोड़ना और तुरंत बाद तीन बहनों का परिवार से दूर जाना उथल-पुथल को बयां करता है.
  • कभी ताकतवर रहा यह परिवार अब ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां सवाल ये है कि क्या यह फिर दोबारा खड़ा हो भी पाएगा.
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ढलती गर्मी की धुंधली होती रोशनी में कभी लालू प्रसाद यादव ने तरक्की का वादा किया था, आज वो खुद के पैदा किए हालात से मुश्किलों और ढलान पर आए समय का सामना कर रहे हैं, ये वो स्थिति है मानो इतिहास खुद को दोहरा रहा हो. बहुत कुछ वैसा ही जैसा साम्राज्यों के ढहने की कहानियां हुआ करती हैं, वैसे ही यादव परिवार की कहानी भी वंशवादी राजनीति की उथल-पुथल से जूझ रहा है - वो जगह जहां ताकत, घमंड और पारिवारिक रिश्ते बहुत ही नाजुक तरीके से आपस में उलझते हैं और जिसका अंत अक्सर बुरे परिणामों में होता है. आज पारिवारिक कलह का साया उनपर मंडरा रहा है, लालू अपनी ही 'पितृसत्ता के पतन' की कगार पर खड़े हैं — एक ऐसा दौर जहां सब कुछ ढलान की ओर जाता दिख रहा है.

वंशवाद की राजनीति अक्सर बन जाती है टकराव की जमीन

लालू यादव यह अच्छी तरह जानते हैं कि वंशवाद की राजनीति महानता की राह भी बन सकती है और संघर्ष एवं विवाद को जन्म देने वाली जगह भी. कुख्यात चारा घोटाले के दौरान भ्रष्टाचार के बढ़ते आरोपों के बीच, जब वो खुद मुश्किल में थे, तब अपनी पत्नी राबड़ी देवी को पहली बार मुख्यमंत्री बनाए थे — उनके इस फैसले से एक ऐसी परंपरा शुरू हुई, जिसमें निजी वफादारी और सार्वजनिक जिम्मेदारी का मेल था. राबड़ी देवी के दौर में, लालू प्रसाद के दो साले — सुभाष और साधु यादव — आरजेडी की राजनीति में दखल देने लगे. तब लालू-राबड़ी के नौ बच्चे इतने छोटे थे कि वे सार्वजनिक जीवन में नहीं आ सकते थे. लेकिन आज, दशकों बाद लालू यादव की राजनीतिक विरासत की बुनियाद ही अपनी कमजोरियों और विरोधाभासों के बोझ तले ढहती हुई दिखाई दे रही है.

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बहन रोहिणी बनाम छोटे भाई तेजस्वी यादव

पटना में सर्कुलर रोड पर स्थित यादव परिवार के विशाल आवास की उन दीवारों के भीतर विद्रोह की गूंज सुनाई दे रही है, जहां कभी अटूट लगने वाले पारिवारिक रिश्ते बिखरने लगे हैं. उनकी दूसरी बेटी डॉ. रोहिणी आचार्य का हाल ही में घर और पार्टी छोड़ कर चले जाना, और उसके तुरंत बाद तीन बहनों (राजलक्ष्मी, रागिनी और चंदा) का परिवार से दूर जाना, इस राजनीतिक परिवार के भीतर चल रहे उथल-पुथल को साफ बयां करता है. अपने भाई तेजस्वी यादव और उनके सहयोगियों संजय यादव तथा रमीज खान पर आरोप लगा कर भड़की रोहिणी का इस तरह हाई प्रोफाइल तरीके से जाना महज एक पारिवारिक झगड़ा नहीं, बल्कि आरजेडी के उस वर्तमान नेतृत्व की खुलकर की गई कड़ी आलोचना है जिसने पार्टी को उसके सबसे कमजोर चुनावी दौर में पहुंचा दिया है.

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बड़े बेटे तेजप्रताप यादव ने मई 2025 में लालू यादव का घर छोड़ दिया था, क्योंकि पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री ने पार्टी और परिवार से उन्हें बर्खास्त कर दिया था. तेजप्रताप बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महुआ से लड़े और हार गए. दो साल पहले, लालू प्रसाद की बड़ी बहू ऐश्वर्या राय (तेज प्रताप यादव की तलाकशुदा पूर्व पत्नी) को यादव परिवार के साथ विवाद के चलते परिवार ने बंगले से बाहर निकाल दिया था. ऐश्वर्या, बिहार के एक राजनेता और लालू प्रसाद के मंत्रिमंडल में पूर्व मंत्री चंद्रिका राय की बेटी और 1970 में 10 महीने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री रहे दिवंगत दरोगा प्रसाद राय की पोती हैं.

अपनी किडनी पिता को देने वाली रोहिणी आचार्य मीडिया से बोलीं, "मेरा परिवार है. मुझे तेजस्वी के दोस्तों संजय यादव और रमीज ने वहां से जाने के लिए कहा." रोहिणी ने यह भी आरोप लगाया कि उन्हें चप्पलों से मारा गया और उन्हें गालियां दी गईं. रोहिणी के इस बयान के बाद भी न तो तेजस्वी ने और न ही उनके सहयोगियों संजय और रमीज ने इस पर अब तक कोई टिप्पणी नहीं की है.

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भाई तेजप्रताप और मामा साधु यादव का रोहिणी को समर्थन

तेज प्रताप यादव ने अपनी बहन रोहिणी का समर्थन किया है और खुलकर सामने आए हैं, उन्होंने तेजस्वी के नेतृत्व वाले गैंग के खिलाफ सुदर्शन चक्र की धमकी भी दी है. मामा साधु यादव ने भी सार्वजनिक तौर पर रोहिणी का समर्थन किया है. रोहिणी आचार्य 2024 में सारण (छपरा) से लोकसभा चुनाव लड़ चुकी हैं, हालांकि मामूली अंतर से वो बीजेपी के राजीव प्रताप रूड़ी से हार गई थीं. आज पटना में अपने माता-पिता के पास केवल बड़ी बहन मीसा भारती (पाटलिपुत्र से सांसद) और तेजस्वी ही बचे हैं.

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रोहिणी ने अपनी दर्दभरी विदाई में हिंसक झगड़े, राजनीतिक लाभ के लिए रिश्तों को दरकिनार करने और विश्वासघात की गहरी भावना का जिक्र किया है. उन्होंने बहुत दुख के साथ कहा, "मेरा कोई परिवार नहीं है." उन्होंने उन लोगों के हरकतों की शिकायत की जो उनके खून के रिश्तेदार हैं. उनकी दुखद भावनाओं का इस कदर फूटना उस परिवार की झकझोरती हकीकत को दिखाता है, जहां कभी प्यार पनपता था, अब वही नाराजगी और अलगाव को जन्म दे रहा है. एक ऐसे नेता के लिए, जो कभी अपने गौरव की गरमाहट का आनंद लिया करते थे, ये आरोप उन कमजोरियों को दर्शाते हैं, जिन्हें राजनीति अक्सर चमक और दिखावे के पीछे छुपा देती है.

RJD का चुनावी पतन: 2020 में 75 सीटों से 2025 में सिर्फ 25 सीटें

RJD के पतन की भयावहता चौंकाने वाली है. 2020 के विधानसभा चुनावों में 75 सीटों पर जीत हासिल करने वाली पार्टी अब सिर्फ 25 सीटों पर सिमट कर रह गई है, यह 2010 के बाद से उसका सबसे खराब प्रदर्शन है. महागठबंधन, जिसने NDA के खिलाफ एकजुटता का वादा किया था, पूरी तरह बिखर गया है और उसकी सीटें घटकर केवल 35 पर ठहर गई हैं. लालू प्रसाद के सहयोगी कमजोर पड़ते जा रहे हैं और उनका अपना राजनीतिक साम्राज्य ढह रहा है, उधर NDA 202 सीटों के साथ विजयी होकर उभरा है, जो बदलते राजनीतिक रुझानों और सत्ता की अस्थायी प्रकृति का प्रमाण है.

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इस पारिवारिक कहानी में उलझे हुए विवाद इतिहास की कहानियों के पन्नों से मिलते-जुलते हैं, जहां उत्तराधिकार की लड़ाई अक्सर विनाश की ओर ले जाती है. लालू के पहले बेटे तेज प्रताप यादव को न केवल पार्टी से, बल्कि उस पारिवारिक प्यार से भी बेदखल कर दिया गया, जिसने कभी उन्हें भावी राजकुमार माना था. उनके भाई के विश्वासघात के ठीक पहले, उनकी अलग हो चुकी पत्नी ऐश्वर्या राय का घर से निकाला जाना, इस बात को दिखाता है कि पारिवारिक राजनीति अक्सर कितनी कठोर और सार्वजनिक होती है, जहां आपसी मनमुटाव सीधे राजनीति के अखाड़े में उतर आते हैं.

यादव निवास की दीवारों में झगड़ों की धीमी गूंज हो रही हैं, और हम इसे अतीत के उन राजवंशों से तुलना करने से खुद को नहीं रोक पा रहे, जो अपने अंदरुणी कहल की वजह से पतन का शिकार हो गए. कभी बिहार की राजनीति में जिसकी तूती बोलती थी वो लालू यादव अब अपने ही खड़े किए गए विरासत से जूझ रहे हैं — एक ऐसा राजनीतिक कुनबा जहां वफादारी, महत्वाकांक्षाओं की गिरफ्त में है और परिवार के अंदर कभी सबको बांधने वाले आपसी रिश्ते उन महत्वकांक्षाओं की आड़ में टूट रहे हैं.

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पारिवारिक वफादारी और विश्वास की जगह संदेह और विश्वासघात

राजनीतिक साजिशों के इस जटिल खेल में, नुकसान केवल सीटों तक सीमित नहीं हैं. ये परिवार के भरोसे और वफादारी को भी तार-तार कर देता है, और शुरू होता है शक और धोखे का अनवरत चलने वाला एक माहौल. इतनी तेजी से हुए पतन के परिणाम बहुत गंभीर हैं; अब बचा है एक परिवार, जो बंटवारे और अनिश्चितता भरे इस माहौल में अपने रास्ते को समझने की कोशिश कर रहा है.

लालू प्रसाद अपने वंश के विघटन को देख रहे

लालू प्रसाद यादव अपने राजनीतिक जीवन के अवसान पर खुद के वंशवादी फैसलों के दुष्परिणामों से घिरे हुए हैं, और उसी वंश के विघटन का सामना कर रहे हैं जिसे वो हर हाल में बचाना चाहते थे. उनके परिवार के अंदर खिंच गई ये लड़ाई केवल राजनीतिक ताकत हासिल करने की जद्दोजहद नहीं; बल्कि यह बदलाव के तेज बहती बयार में अपनी पहचान और अहमियत को बनाए रखने की लड़ाई का प्रतिनिधित्व भी करते हैं.

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अंत में, इतिहास की गूंज हमें याद दिलाती हैं- वंशवादी राजनीति स्थायित्व का आभास तो देती है पर अक्सर इसके नतीजे उस ओर ले जाते हैं जिसे टाला नहीं जा सकता — यह न केवल बाहरी विरोधियों से बल्कि परिवार के अंदर भी टकराव को जन्म देता है. कभी ताकतवर रहा यादव परिवार अब एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां सवाल यह खड़ा हो रहा है कि क्या यह फिर दोबारा खड़ा हो भी पाएगा या क्या वो ही ताकतें इन्हें खत्म कर देंगी जिन पर कभी इन्होंने अपना नियंत्रण कायम करना चाहा.

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