पलायन का दर्द : बिहार के सहरसा जंक्शन पर मजदूरों की 'बाढ़', ट्रेनों की तादाद बहुत कम

सहरसा के अलावा मधेपुरा, सुपौल, दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया और किशनगंज के मजदूर दिल्ली और पंजाब की ट्रेनें पकड़ने के लिए स्टेशन पर रुके

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सहरसा:

यह मान लेना ही सही है कि पलायन (Migration) बिहार (Bihar) के लोगों की नियति बन चुका है. जनसंख्या के हिसाब से यहां न तो उद्योग-धंधे हैं और न ही दूसरा कोई रोजगार. यहां के मजदूर (Laborers) दूसरे प्रदेशों को समृद्ध बनाने में अपना भरपूर योगदान दे रहे हैं, लेकिन कई पीढ़ियों से उनका खुद का जीवन सुख-समृद्धि से कोसों दूर है. खासकर कोसी नदी के तट पर बसा सहरसा मजदूरों के पलायन का केंद्र बनकर रह गया है. यहां सहरसा के अलावा मधेपुरा, सुपौल, दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया और किशनगंज तक के मजदूर दिल्ली और पंजाब जाने के लिए ट्रेन (Trains) पकड़ने आते हैं. 

पलायन करने वाले मजदूरों को सामान्य रूप से यदि ट्रेन में जगह मिल जाती तो ठीक था, लेकिन दुर्भाग्य है कि ट्रेनों की संख्या काफी कम होने से पांच-पांच दिन तक स्टेशन पर पड़े रहने के बाद भी इन्हें ट्रेनों में जगह नहीं मिल पाती है और वे अगली ट्रेन का इंतजार करते रह जाते हैं. 

सहरसा जंक्शन पर हर साल दो से तीन बार रोजगार के लिए पलायन करने वाले मजदूरों की 'बाढ़' आती है. केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक को सब पता है, लेकिन न तो उन्हें रोकने के लिए उद्योग लगाए जा रहे हैं और न ही इनके सफर को सुगम बनाने के लिए ट्रेनों की संख्या बढ़ाई जा रही है.

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सहरसा जंक्शन पर इन दिनों भी मजदूर यात्रियों की काफी भीड़ जमा हो रही है. मजदूरों की संख्या अधिक और ट्रेनों की संख्या काफी कम होने के कारण रोज आधे से अधिक मजदूर यहीं छूट जाते हैं. वे अगले दिन फिर ट्रेन पकड़ने का प्रयास करते हैं. कोई सफल हो जाता है, तो कोई नहीं. ऐसी स्थिति में कई मजदूर चार, तो कई पांच दिनों से यहीं स्टेशन पर पड़े हैं. इस दौरान वे दिल्ली अथवा पंजाब के सफर के दौरान खाने के लिए घर से बनाकर लाए गए भोजन और नाश्ते को यहीं खा रहे हैं. उनकी सफर के लिए रखी गई पूंजी भी यहीं खर्च हो रही है. 

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ट्रेन में जगह पाने की उम्मीद से सहरसा आने वाले अधिकतर लोगों को एक बार में सफलता नहीं मिल पा रही है. वे यहीं प्लेटफॉम पर, वेटिंग हॉल में या फिर स्टेशन के बाहरी परिसर में रुके हुए हैं. कोई लूडो खेलकर समय बिता रहा है तो कोई मोबाइन पर फिल्म देखकर या फिर गाने सुनकर. 

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मधेपुरा के कुमारपुर से पति के साथ जालंधर जाने के लिए आईं भूटन देवी ने टिकट कटा लिया है, लेकिन उन्हें ट्रेन में जगह मिलेगी या नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं है. यदि जगह मिल गई तो ठीक, नहीं तो टिकट वापस करके फिर अगले दिन प्रयास करेंगी. 

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सहरसा के बलुआहा के लखन रजक और रामजी दास लुधियाना जाने के लिए सहरसा जंक्शन आए हैं. वे कहते हैं कि यहां आठ से दस घंटे की मजदूरी के बाद मात्र 300 रुपये की दिहाड़ी मिलती है. जबकि अन्य प्रदेशों में रोजाना 500 रुपये की मजदूरी के अलावे तीन वक्त का खाना मिल जाता है. पलायन करने वालों में ऐसे मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है जो बीते 20-25 सालों से लगातार हर सीजन में धान रोपने, तो कभी धान काटने के लिए दिल्ली या पंजाब की ओर जाते रहे हैं. 

मधेपुरा के मुरलीगंज के अरुण पिछले दस दिनों से गरीब रथ का टिकट कटा कहे हैं और वापस कर रहे हैं. उन्हें ट्रेन में प्रवेश करने की जगह तक नहीं मिल रही है. अरुण की उम्र लगभग 32 वर्ष है और वे पिछले 20 सालों से हर साल धान रोपने और काटने के लिए अमृतसर जाते रहे हैं. वे कहते हैं कि यहां काम नहीं मिलता है. मिलता भी है तो सही दिहाड़ी नहीं मिलती है. यदि बाहर नहीं जाएंगे तो उनका परिवार क्या खाएगा? 

दशकों से पलायन की यह कहानी यथावत चल रही है. यदि सरकार यहां रोजगार मुहैया कराके इन्हें रोक नहीं सकती है तो कम से कम हर सीजन में दिल्ली-पंजाब जाने वालों के लिए पर्याप्त संख्या में ट्रेनों का परिचालन कराना चाहिए. कम से कम यह तो जरूरी ही है.

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