तेजस्वी के दोस्त बनाम नीतीश के दोस्त… राजनीति में दोस्त भी सोच-समझकर चुनने पड़ते हैं

तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार, दो नेताओं की दो अलग दोस्ती की परिभाषाएं. दोनों के ‘दोस्त’ सिर्फ उनके साथ खड़े चेहरे नहीं, बल्कि राजनीतिक भविष्य तय करने वाले किरदार बन चुके हैं. यही वजह है कि बिहार में अक्सर कहा जाता है कि राजनीति में दोस्त भी सोच-समझकर बनाने चाहिए. 

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बिहार की राजनीति में दोस्ती सिर्फ निजी रिश्ता नहीं, सत्ता का सबसे बड़ा गणित है. तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार, दो नेताओं की दो अलग दोस्ती की परिभाषाएं. दोनों के ‘दोस्त' सिर्फ उनके साथ खड़े चेहरे नहीं, बल्कि राजनीतिक भविष्य तय करने वाले किरदार बन चुके हैं. यही वजह है कि बिहार में अक्सर कहा जाता है कि राजनीति में दोस्त भी सोच-समझकर बनाने चाहिए. 

तेजस्वी यादव के दोस्त: युवा, जातिगत वोटर्स के भरोसे और एंटी-इन्कंबेंसी का मोर्चा

तेजस्वी यादव की दोस्ती की लिस्ट में ऐसे नेता हैं, जो नीतीश विरोधी राजनीति का चेहरा बनकर सामने आते हैं. तेजस्वी का गठबंधन उन वर्गों को साथ लाता है जो मौजूदा सत्ता से नाराज दिखते हैं. इन दोस्तों में ऐसे नेता थे जो सिर्फ सत्ता में बदलाव चाहते हैं. जिनके एजेंडा में सिर्फ एक ही काम था- नीतीश को हटाना.

वहीं तेजस्वी के दोस्त यादव-मुस्लिम, अति पिछड़ा और दलित वोट बैंक के भरोसे रहे. ये दोस्त सिर्फ अपने वोट बैंक के भरोसे रहे. ऐसे में तेजस्वी ने वही रणनीति अपनाई कि वोटर बदलाव चाहता है और हम बदलाव लाने वाले चेहरों को दोस्त बनाते हैं. 

नीतीश कुमार के दोस्त: सत्ता का अनुभव, प्रशासनिक भरोसा और पुरानी साझेदारी

उधर नीतीश कुमार की दोस्ती कुछ और तरह की है. उनके दोस्त ज्यादातर अनुभवी नेता, पुराने सहयोगी और ऐसे साथी हैं जो स्थिरता और प्रशासनिक मॉडल को आगे रखते हैं. NDA के साथ नीतीश की पुरानी ट्यूनिंग, बीजेपी के साथ तालमेल और कई क्षेत्रीय नेताओं के साथ वर्षों की समझ. यह उनका सबसे बड़ा ताकत का आधार है. नीतीश के दोस्त वह राजनीति बनाते हैं जिसे 'स्थिर सरकार' की थ्योरी कहते हैं. 

यानी तेजस्वी जहां बदलाव के साथियों पर भरोसा करते हैं, वहीं नीतीश की दोस्ती भरोसे और अनुभव की चेन से बनी है.  

कहां फर्क दिखता है तेजस्वी और नीतीश की दोस्ती में?

तेजस्वी के दोस्त- भीड़, नाराज़गी और युवा ऊर्जा की राजनीति लेकर आते हैं.

नीतीश के दोस्त- सिस्टम, प्रशासन और परंपरागत वोटरों के भरोसे को बनाए रखने का काम करते हैं.

तेजस्वी की टीम आक्रामक है, नीतीश के साथी संतुलन में यकीन रखते हैं. तेजस्वी गठबंधन बनाने में तेज, नीतीश गठबंधन चलाने में माहिर.

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क्यों कहा जा रहा- दोस्त भी सोच-समझकर लेने चाहिए?

क्योंकि दोनों नेताओं के दोस्त ही इस चुनाव की दिशा तय कर रहे हैं. कौन-सा दोस्त वोट जोड़ रहा है, कौन-सा दोस्त सीट खा रहा है, किस दोस्त की वजह से गठबंधन मजबूत और किस दोस्त की वजह से दरार पैदा हो रही है. बिहार में हर चुनाव यही साबित करता है कि राजनीति में दोस्ती सिर्फ दोस्ती नहीं होती… यह सरकार बनाती और गिराती भी है.

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