Exclusive: कांटों का दरिया और कीड़े मकोड़ों का डर, मखाना उगाना आसान नहीं, NDTV ने जाना किसानों का दर्द

बिहार में पैदा होने वाला मखाना आज दिल्‍ली, मुंबई और बेंगलुरु तक पहुंच रहा है और उसकी कीमतें भी बढ़ रही हैं. लेकिन अफसोस की बात किसानों तक यह फायदा नहीं पहुंच पाता है.

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  • मखाना बिहार का प्रमुख उत्पाद है जो अब दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु जैसे बड़े शहरों में लोकप्रिय हो चुका है.
  • मखाना की खेती फरवरी में बीज लगाने से शुरू होकर छह महीने बाद फसल पकने तक चलती है.
  • मखाना की कीमतें अस्थिर रहती हैं और अभी तक इसे न्यूनतम समर्थन मूल्य के अंतर्गत शामिल नहीं किया गया है.
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नई दिल्‍ली:

मखाना आज एक ऐसा सुपरफूड बन चुका है जिसे व्रत या उपवास के अलावा डायटिंग के लिए भी तरजीह दी जाने लगी है. कभी देश के एक हिस्‍से में पैदा होने वाला मखाना आज देश के हर कोने में फैल रहा है. बिहार से निकलकर सफेद रंग की यह छोटी लेकिन न्‍यूट्रिशियन से भरपूर चीज, दिल्‍ली, मुंबई और बेंगलुरु तक पहुंच गई है. सिर्फ इतना ही नहीं अब तो कई कंपनियां कई फ्लेवर्स में इसे सर्व करने लगी हैं. टीवी के सामने बैठकर बिंजवॉच करते हुए स्‍टाइलिश से बाउल में जब आप ऑलिव ऑयल काली मिर्च या पेरी-पेरी या चीज फ्लेवर मखाना खाते हैं तो आपको शायद इस बात का इल्‍म भी नहीं होता होगा कि आप तक आने से पहले इसे बनाने वाले कितनी मुश्किलों से गुजरे हैं. NDTV के एडिटर-इन-चीफ  राहुल कंवल बिहार के पूर्णिया में उन किसानों के बीच पहुंचें जो मखाना की खेती करते हैं. उनसे बात करके उन्‍होंने न सिर्फ यह जाना कि इस सुपरफूड को कैसे आप तक लाया जाता है बल्कि यह भी समझा कि किसानों को क्‍यों वह कीमत नहीं मिल पा रही है जिसके असल में वो हकदार है. 

फरवरी में लगता पौधा 

मखाना की खेती करने वाले एक किसान ने सबसे पहले NDTV को धन्‍यवाद दिया जिसने उनसे आकर बात की. इसके बाद उन्‍होंने वह पूरी प्रक्रिया समझाई जिसके तहत मखाना तैयार होता है. किसान ने बताया कि कोसी क्षेत्र में मखाने की खेती बड़े पैमाने पर होती है. उन्‍होंने बताया कि फरवरी के महीने में बीज की रोपाई होती है, पौधा लगाया जाता है. फिर पूरे गर्मी के सीजन में इसकी खेती की जाती है. इसके बाद छह महीने बाद फसल पककर तैयार होती है. इस फसल को मजदूरों की मदद से निकाला जाता है. एक और किसान ने बताया कि इसकी खेती में जितनी मेहनत है उतना फायदा नहीं मिल पाता है. 

मखाना पर MSP है जरूरी! 

मखाना की कीमतें हमेशा अस्थिर रहती हैं यानी अक्‍सर ऊपर नीचे होती रहती हैं. वर्तमान समय में कीमतें 15 हजार से 18000 रुपये के बीच इसकी अधिकतम कीमत है. इस किसान ने बताया कि क्‍योंकि अभी मखाना के लिए कोई भी न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य (एमएसपी) नहीं है. किसान की मानें तो जिस तरह से पैक्‍स के जरिये धान और गेहूं की खरीदारी होती है तो एक एमएसपी तय होती है यानी सरकार कीमतें तय करती है कि इससे नीचे इन फसलों को नहीं बेचा जाएगा. मखाना के साथ ऐसा कुछ नहीं है. 

5 घंटे तक पानी में रहते मजदूर 

दिलीप नाम के मजदूर ने बताया कि मखाना की खेती पानी का धन है. पानी से गुड़‍िया निकाली जाती है. मजदूर को पांच घंटे तक पानी में रहना पड़ता है और इसके लिए उसे 400 से 500 रुपये तक दिहाड़ी मिल जाती है. मखाना निकालने के यंत्र को गांजा कहा जाता है. इसमें कीचड़ को भरा जाता है और फिर इसे पानी में साफ किया जाता है और फिर गुड़ि‍या निकाली जाती है जिसे एक हांडी में रखा जाता है. यह मखाना कच्‍चा होता है. फिर इसे बाजार में भेजा जाता है. फिर इसे सुखाया जाता है और फिर छिलका हटाया जाता है. फिर इसको सुखाया जाता है. मखाना के पौधा में बहुत-बड़े-बड़े कांटे होते हैं और इनसे बचते हुए फल निकाला जाता है. मखाना का फूल और फल दोनों कांटे से भरे होते हैं. किसानों को और मजदूरों को इससे खुद को बचाना भी होता है. 

किसानों को भी मिले इसका फायदा 

बिहार में पैदा होने वाला मखाना आज दिल्‍ली, मुंबई और बेंगलुरु तक पहुंच रहा है और उसकी कीमतें भी बढ़ रही हैं. लेकिन अफसोस की बात किसानों तक यह फायदा नहीं पहुंच पाता है. इस बात को बयां करते हुए किसान का दर्द भी झलक आया. जब इससे जुड़ा सवाल उनसे किया गया तो उन्‍होंने कहा, 'कीमतें तो बढ़ रही हैं लेकिन बाहर के शहरों में और उन जैसे  किसानों तक इस फायदे को पहुंचाया ही नहीं जा रहा है.' जो किसान मखाना खेती की व्‍यथा बता रहा था, वह पटना साइंस कॉलेज के एक छात्र रहे हैं. उनका कहना था कि अगर उनके जैसे नौजवान खेती में उतरे हुए हैं तो जब तक सरकार उनकी मदद नहीं करेगी या उन्‍हें प्रोत्‍साहन नहीं देगी तो फिर वो क्‍या करेंगे. 

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