बिहार में किसकी सरकार से बड़ा सवाल, आर्थिक क्रांति कब होगी?

नीतीश कुमार ने अपने पहले शासनकाल में काफी किया और उसके बाद जब हर दो साल पर सरकार के हिस्सेदार बदलने लगे, तो विकास का विजन अपना फोकस खो बैठा. किसी भी व्यक्ति, परिवार या राज्य के विकास के लिए मानसिक शांति अत्यंत जरूरी है और राज्य के मामले में राजनीतिक स्थिरता बहुत जरूरी है.

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1990 के मनमोहन सिंह के आर्थिक नीति का फ़ायदा बिहार नहीं उठा सका
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  • बिहार की मूल समस्या जातिवाद नहीं बल्कि ग़रीबी और समानांतर अर्थव्यवस्था का अभाव है
  • 1990 के आर्थिक सुधारों का बिहार लाभ नहीं उठा सका, जबकि अन्य प्रदेशों में निवेश और विकास तेजी से हुआ था
  • बिहार का जीएसटी योगदान मात्र एक प्रतिशत है, जबकि उसकी आबादी दस प्रतिशत है, जो उसकी आर्थिक पिछड़ापन दर्शाता है
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नई दिल्‍ली:

बिहार की मूल समस्या जातिवाद नहीं है. बिहार की मूल समस्या ग़रीबी है. बिहार में सिवाय सरकार के कोई समानांतर अर्थव्यवस्था नहीं है. अधिकांश लोगों को जीवन की उम्मीद सरकारी व्यवस्था पर टिकी है, जिसके कारण लोग सरकारी नौकरी चाहते हैं या फिर सरकार में अपने नजदीकी लोग चाहते, जो समय कुसमय उनकी मदद कर सकें. यहीं पर जातिवाद का कॉन्सेप्ट उभरता है कि नेता मेरी जाति का होगा तो वो मेरी मदद करेगा. 

सन 1990 के मनमोहन सिंह के आर्थिक नीति का फ़ायदा बिहार नहीं उठा सका. जब हर प्रदेश में विदेशी या देशी संस्थाओं की ज़बरदस्त इन्वेस्टमेंट हो रही थी, तब बिहार अलग ही क्रांति की राह पर था, जिसे हाई कोर्ट तक ने जंगलराज कहा. नीतीश कुमार आए तो उन्‍होंने भी एक नारा दिए- न्याय के साथ विकास. जबकि उन्हें चौतरफा विकास करना था. पटना के लोकसभा सांसद रविशंकर प्रसाद स्वयं भारत के आईटी मंत्री रहे फिर भी वो एक भी आईटी उद्योग बिहार में नहीं ला सके. 

एनडीटीवी पावरप्ले में उदय शंकर ने भी लघु, मध्यम उद्योग की बात की, क्योंकि हर युवा के हाथ में सरकारी नौकरी देना किसी भी सरकार के वश से बाहर की चीज है. इसलिए हर तरह के उद्योगों के माध्यम से रोजगार सृजन अत्यंत जरूरी है. बिहार कितना पिछड़ा है, इसके कई मानक हैं. उदाहरण के लिए आप जीएसटी संग्रह का डाटा देख लीजिए. अगर किसी महीने समस्त भारत में 1.5 लाख करोड़ का जीएसटी संग्रह हुआ, तो बिहार का योगदान मात्र 1.5 हज़ार करोड़ है. बिहार का औसत योगदान महज़ 1 % है, जबकि आबादी 10 % है. अगर हम बैंकों के क्रेडिट डिपॉजिट अनुपात को देखें, तो विकसित राज्यों में यह 70 % के ऊपर और बिहार में मात्र 40 % के आस पास है . इसमें सरकार बैंकरों को निशाने पर लेती है, लेकिन यह भूल जाती है कि बैंकर भी व्यवसायी हैं, जिन्हें अपना पैसा वापस चाहिए, जबकि अधिकांश बैंकर बिहार से ही हैं. 

नीतीश कुमार ने अपने पहले शासनकाल में काफी किया और उसके बाद जब हर दो साल पर सरकार के हिस्सेदार बदलने लगे, तो विकास का विजन अपना फोकस खो बैठा. किसी भी व्यक्ति, परिवार या राज्य के विकास के लिए मानसिक शांति अत्यंत जरूरी है और राज्य के मामले में राजनीतिक स्थिरता बहुत जरूरी है. 

भारत सरकार के अलग-अलग समय के वित्‍त आयोगों के नियम के अनुसार, केंद्रीय करों में बिहार को आबादी के हिसाब से हिस्सा मिलता है, जो अब अन्य विकसित राज्यों को अखरने लगा है. वहां के नेता और जनता ने गाहे बगाहे इसकी चर्चा शुरू कर दी हैं कि जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागेदारी. अगर यह मामला आगे बढ़ा, तो बिहार को स्वयं को डिफेंड करना मुश्किल हो सकता है. 

कई सामाजिक और आर्थिक विश्लेषकों का मानना है कि इसका एक बढ़िया उपाय हर हाथ रोज़गार है. यानी कुटीर उद्योग से लेकर मध्यम उद्योग. आंगन में उद्योग होगा, तो परिवार का हर सदस्य भाग लेगा. जब मेहनत होगी, तो पैसा आएगा और जब पैसा आयेगा, तब आर्थिक उन्नति होनी तय है. लेकिन उसके लिए एक जबरदस्त विजन, युद्ध स्तर पर कार्यवाही और राजनीतिक स्थिरता अति आवश्यक है, जो जनता अपने मजबूत इरादों से सरकार को दे सकती है. 

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