बिहार में मंडल और कमंडल का मेल, नीतीश-मोदी ने कैसे किया ये सियासी खेल

बिहार चुनाव का एक संदेश ये है कि 30 बरस पहले लालू यादव ने सामाजिक न्याय की राजनीति का जो मुहावरा बनाया था, वह अब नहीं चलने वाला है. यादव-मुसलमान वाले एमवाई जैसे समीकरणों की काट भी खोजी जा चुकी है.

विज्ञापन
Read Time: 7 mins
बिहार के नतीजों के संकेत और संदेश
फटाफट पढ़ें
Summary is AI-generated, newsroom-reviewed
  • बिहार में महिला मतदाताओं ने इस चुनाव में उच्च मतदान प्रतिशत दिखाकर परिणामों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
  • नीतीश कुमार ने मंडल और कमंडल की राजनीति को मिलाकर पिछड़ों और दलितों के नए राजनीतिक समीकरण स्थापित किए
  • एनडीए की जीत में जातिगत गठजोड़ के साथ-साथ बिहार की बढ़ती विकास दर और कानून-व्यवस्था का भी योगदान रहा
क्या हमारी AI समरी आपके लिए उपयोगी रही?
हमें बताएं।
नई दिल्‍ली:

बिहार में एनडीए की ऐतिहासिक जीत के संदेश क्या-क्या हैं? पहला तो यही कि चुनावी पंडित चुनाव से ठीक पहले शुरू की गई मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना के तहत महिलाओं को दिए गए 10,000 रुपयों से बनी लहर की पूरी थाह नहीं ले सके. हालांकि, बिहार के मतदान केंद्रों पर उमड़ी महिलाओं की भीड़ इस ओर इशारा कर रही थी. पहले दौर में 69.04% महिलाओं ने मतदान किया. दूसरे दौर में 74.03 फ़ीसदी महिलाएं मतदान केंद्रों तक जा पहुंचीं. कुल 71.6 फ़ीसदी महिलाओं ने इन चुनावों में वोट दिए. जाहिर है, इन वोटों ने नतीजे तय करने में काफ़ी अहम भूमिका निभाई. सच तो यह है कि 20 बरस पहले नीतीश ने जिन लड़कियों को साइकिल का उपहार दिया और आज़ादी की पहली हवा में सांस लेने का अवसर दिया, शायद वे भी अब अपने फ़ैसले लेने लगी हैं और नीतीश के साथ खड़ी हैं.

मंडल और कमंडल का मेल

लेकिन अगर एनडीए की इस जीत को बस महिला मतों तक सीमित रखेंगे, तो उन राजनीतिक प्रक्रियाओं की अनदेखी कर बैठेंगे जिनसे ये जीत मुमकिन हुई है. पहली बात तो यह मंडल और कमंडल का मेल है. बिहार में हिंदूवादी राजनीति घुसपैठ की कोशिश पहले से करती रही है, लेकिन नीतीश का हाथ पकड़ कर वह उन हिस्सों में भी चली आई, जो पहले मंडलवादी राजनीति का क़िला माने जाते थे. दरअसल नीतीश कुमार ने लालू यादव के मंडल वाले समीकरण में पहले ही सूराख कर दिए थे. पिछड़ों में अतिपिछड़ों, दलितों में महादलितों और अल्पसंख्यकों में पसमांदा मुसलमानों को अलग कर उन्होंने एक नया मंडल पैदा कर दिया था जिसकी वजह से छोटी-छोटी जातियां और उनके नेता ख़ासे महत्वपूर्ण हो उठे. इन चुनावों में चिराग पासवान को मिली कामयाबी बता रही है कि यह पिछड़ा-दलित गठबंधन किस क़दर कामयाब रहा. सीटों के मामले में भले जेडीयू बीजेपी से पीछे रह गई हो, लेकिन बीजेपी को भी एहसास है कि अगर नीतीश कुमार के हिस्से के वोट उसे नहीं आए होते तो यह चमकीली कामयाबी उसके खाते में नहीं पहुंची होती. बेशक, इसमें प्रधानमंत्री मोदी की अपनी छवि, अमित शाह की संगठन क्षमता और धर्मेंद्र प्रधान की मेहनत का भी योगदान है, लेकिन फिलहाल सच्चाई यही है कि बीजेपी चाह कर भी नीतीश की उपेक्षा नहीं कर सकती. 

जातिवादी गठजोड़ भर की जीत नहीं

लेकिन फिर यह जातिवादी गठजोड़ भर की जीत नहीं है. यह काम आरजेडी ने भी किया था. आरजेडी और कांग्रेस ने मुकेश सहनी को साथ रखने के लिए उन्हें उपमुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार तक घोषित करना स्वीकार कर लिया, लेकिन सहनी इन चुनावों में मल्लाहों की नाव ही नहीं बचा सके. एनडीए का जातिगत गठजोड़ इसलिए भी कामयाब रहा कि नीतीश कुमार और मोदी ने इसमें विकास की आश्वस्ति जोड़ दी. बिहार की विकास दर फिलहाल 8 फीसदी से ऊपर है जो देश के तमाम राज्यों के बीच चौथे नंबर पर है. और अर्थव्यवस्था के जानकार इसे खींच कर 13 फीसदी और कुछ तो 22 फ़ीसदी के अनुमान तक ले जा रहे हैं. फिर बिहार में पुराने जंगल राज की याद दिलाते हुए कानून-व्यवस्था का जो भावुक सा हवाला दिया जा रहा है, उसने भी शायद नीतीश के पक्ष में हवा बनाने में कुछ मदद की. 

युवा मतदाताओं की भी भूमिका?

बिहार के इस फ़ैसले में क्या वहां के युवा मतदाताओं की भी भूमिका रही? आम तौर पर माना जा रहा था कि यह युवा शक्ति तेजस्वी के युवा नेतृत्व के साथ खड़ी होगी. लेकिन उसने एनडीए के साथ जाना बेहतर समझा. तेजस्वी यादव का रोज़गार का वादा उन्हें लुभा नहीं सका. क्या यह संदेह किया जा सकता है कि मोदी-नीतीश की छवि और हिंदुत्व के उभार ने भी उन्हें लुभाया होगा? शायद यह भी एक संभावना हो. बहरहाल, इसमें संदेह नहीं कि राहुल और तेजस्वी की जोड़ी सड़कों पर और माध्यमों में दिखने के बावजूद चुनावी नतीजों को अपने पक्ष में मोड़ने में नाकाम रही. क्या तेजस्वी के आत्मविश्वास को भी इसकी वजह माना जा सकता है? असदुद्दीन ओवैसी ने बहुत साफ़ कहा कि वे महागठबंधन से जुड़ना चाहते हैं, लेकिन तेजस्वी ने नकार दिया. अब स्थिति ये है कि कांग्रेस और एआईएमआईएम सीटों के लिहाज से लगभग बराबर दिख रहे हैं. इसी तरह पप्पू यादव को लेकर महागठबंधन में चली खींचतान भी कम से कम यह धारणा बनाती रही कि तेजस्वी सारी मलाई अकेले खाना चाहते हैं.

जंगल राज की कहानी इतनी बार दुहराई गई कि...

दरअसल इस चुनाव का एक संदेश और है. तीस बरस पहले लालू यादव ने सामाजिक न्याय की राजनीति का जो मुहावरा बनाया था, वह अब नहीं चलने वाला है. यादव-मुसलमान वाले एमवाई जैसे समीकरणों की काट भी खोजी जा चुकी है. जिन्हें मुस्लिम दबदबे वाली सीटें माना जाता रहा है, वहां भी एनडीए को कामयाबी मिली है. तेजस्वी यादव को लालू यादव के करिश्मे का फ़ायदा तो नहीं ही मिला, उनके अपयश का खमियाजा उन्हें ज़रूर भुगतना पड़ा. जंगल राज की कहानी इतनी बार दुहराई गई कि लोगों ने उसे सच मान लिया. वैसे इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि आरजेडी को भी करीब 23 फ़ीसदी वोट मिले, लेकिन इतने से तेजस्वी का काम नहीं चलने वाला है. उनकी राजनीतिक चुनौती सबसे बड़ी है. 

राहुल गांधी ने कांग्रेस को एनजीओ जैसा बना कर छोड़ दिया

लेकिन तेजस्वी से भी बड़ी चुनौती अब राहुल गांधी के सामने है. कांग्रेस दहाई तक भी नहीं पहुंच पाई है. सीटों को लेकर उसने काफी मोलतोल की. एसआईआर के मुद्दे पर राहुल गांधी ने बाक़ायदा वोट अधिकार यात्रा निकाली. कहा गया कि इस यात्रा का बहुत असर पड़ा है. इसी आधार पर कांग्रेस ने 61 सीटें झटक लीं. लेकिन कांग्रेस का प्रदर्शन बिल्कुल हास्यास्पद रहा है. अब जो नए मीम बनने वाले हैं उनके घेरे में नए सिरे से राहुल गांधी होने वाले हैं. यह आरोप अब निराधार नहीं होगा कि राहुल गांधी ने कांग्रेस को एनजीओ जैसा बना कर छोड़ दिया है. यही नहीं, अब इंडिया गठबंधन वाले दूसरे दलों के सामने भी यह दुविधा होगी कि वे कांग्रेस के साथ अपना तालमेल बनाए रखें या आगे बढ़ें. ख़ास कर वाम मोर्चे को अपनी राजनीति पर पुनर्विचार करना होगा.

Advertisement


वैसे एक बात इन चुनावों में और दिखी. वैकल्पिक राजनीति की बात करने वाले प्रशांत किशोर मीडिया में जितना ज़्यादा दिखे, नतीजों में कहीं नज़र नहीं आए. जाहिर है, बिहार किसी खोखले विकल्प पर भरोसा करने को तैयार नहीं है. वह भूल नहीं सकता कि प्रशांत किशोर अलग-अलग दलों के चुनावी रणनीतिकार भर रहे, वे किसी विचार या सिद्धांत वाले नेता नहीं हो सकते. 

बहरहाल, बिहार के ऐतिहासिक नतीजे क्या उसकी वैचारिक दिशा भी बदलेंगे? बीते तीन दशकों से बिहार मोटे तौर पर समाजवादी मॉडल पर चलता रहा. क्या अब वह हिंदूवादी विकास के मॉडल की ओर बढ़ेगा? इस सवाल का जवाब अभी देना संभव नहीं है. नीतीश की सेहत और बीजेपी की सियासत से इसका फ़ैसला होगा. निश्चय ही बीजेपी यह चाहेगी, लेकिन नीतीश की समाजवादी विरासत- जिसे लालू यादव के सामाजिक न्याय की राजनीति का भी बल मिलता रहा है- अभी कमज़ोर नहीं पड़ी है- यह इशारा साफ़ है. हालांकि क़ानून-व्यवस्था और सुशासन के अपने मिथक होते हैं जो जेडीयू में अनंत सिंह जैसे बाहुबलियों की जीत से भी पता चलता है. 
असली सवाल अब आने वाले दिनों के हैं. बिहार के चुनाव क्या बंगाल और यूपी के चुनावों को भी प्रभावित करेंगे? बहुत सारे चुनावी पंडित यह मानना चाहेंगे और बीजेपी भी यह मनवाना चाहेगी, लेकिन सच यह है कि ममता बनर्जी राजनीतिक मोर्चे पर अब तक तेजस्वी और राहुल से ज़्यादा ठोस साबित हुई हैं. और उत्तर प्रदेश में बीजेपी की अंदरूनी राजनीति की दुविधाएं भी उसे घेर सकती हैं. मगर ये बाद के सवाल हैं, फिलहाल बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन जश्न मना सकता है कि उसने बिहार में ऐसा खूंटा गाड़ा है जो आसानी से उखड़ने वाला नहीं. बिहार में एसआईआर को मुद्दा बनाने वाली और चुनाव से ठीक पहले मतदाता सूचियों में हेरफेर का आरोप लगाने वाली कांग्रेस फिर ये आरोप दुहराना चाहेगी, लेकिन जीत का फ़ासला जितना बड़ा है, उसका संदेश यही है कि सिर्फ कुछ वोटों के हेरफेर से इसे हासिल नहीं किया जा सकता. कांग्रेस को अपने भविष्य के बारे में नए सिरे से विचार करना होगा. 

Advertisement
Featured Video Of The Day
Syed Suhail | Bihar Election Result 2025: Bihar में NDA का डंका, पर CM Nitish पर क्यों शंका? | Bihar