बिहार चुनाव 2025: इस बार मुसलमान किसके साथ?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनका जनता दल यूनाइटेड क्या एक बार फिर अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों का भरोसा जीत पाएंगे, इसकी पड़ताल कर रहे हैं प्रभाकर कुमार.

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पटना:

बिहार के जल संसाधन मंत्री विजय कुमार चौधरी के इस दावे ने सियासी हलचल बढ़ा दी है कि अल्पसंख्यक समाज एनडीए और नीतीश कुमार के साथ खड़ा है. यह दावा चुनावी रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है और हकीकत भी, लेकिन सवाल यह है कि नीतीश की पहले की 'सेक्युलर' छवि इस दावे के साथ कितनी सुसंगत बैठती है. मंत्री ने यह भी दावा किया कि अल्पसंख्यकों में जागरूकता बढ़ी है. मंत्री महोदय ने इसका श्रेय पिछले सालों में नीतीश सरकार की कल्याण योजनाओं और अल्पसंख्यक समाज के लिए किए गए कामों को दिया.

बिहार में मुसलमान वोट

विधानसभा चुनाव से पहले मंत्री का यह बयान विशेष महत्व रखता है, क्योंकि अल्पसंख्यक मतदाता अक्सर बिहार की राजनीति में एक निर्णायक भूमिका निभाते हैं. खासकर मुस्लिम समाज और सीमांचल सहित उन जिलों में जहां अल्पसंख्यकों की आबादी अधिक है. लेकिन सवाल यह है कि क्या यह दावा वास्तविकता पर टिका है या केवल चुनावी रणनीति का हिस्सा है? क्या इस तरह के दावों से नीतीश कुमार की 'सेक्युलर' छवि को कोई चोट तो नहीं पहुंच रही है.

नीतीश कुमार पिछले डेढ़ दशक से बिहार की राजनीति में एक ऐसे राजनेता के रूप में माने जाते हैं जिनकी छवि संघ वादियों से अलग, धर्मनिरपेक्षता के करीब थी. उनकी सरकारों ने कई मौकों पर अल्पसंख्यक कल्याण की योजनाएं चलाई हैं, जैसे मदरसा शिक्षकों की सैलरी, अल्पसंख्यक छात्रावास, कब्रगाहों की सुरक्षा, मस्जिद या मदरसों के लिए सुविधाएं बढ़ाना आदि. नीतीश कुमार की राजनीति हमेशा से संतुलन वाली रही है. लेकिन बार-बार बीजेपी से हाथ मिलाने से उनकी सेक्युलर छवि को आघात पहुंचता रहा. यही वजह है कि अल्पसंख्यक मतदाता अब उन पर पूरा भरोसा नहीं करता. उसे तुलनात्मक विकल्पों के आधार पर नीतीश को समर्थन देने या न देने का फैसला करना पड़ रहा है.

पिछले कुछ सालों में कई मुस्लिम संगठनों ने नीतीश कुमार से नाराज़गी जताई है. वक्फ बोर्ड सुधारों, मदरसों की हालत और सीमांचल में बुनियादी सुविधाओं को लेकर उनका मानना है कि सरकार की संवेदनशीलता कमजोर हुई है. कई बार बड़े संगठन नीतीश के इफ्तार पार्टी तक में शामिल होने से इनकार कर चुके हैं. 

नीतीश कुमार की राजनीति संतुलन वाली रही है, लेकिन बार-बार बीजेपी से हाथ मिलाने से इस छवि को नुकसान पहुंच रहा है.

बीजेपी के साथ जाने से नाराज हैं अल्पसंख्यक

सीमांचल और दरभंगा जैसे इलाकों के कुछ मुस्लिम जनप्रतिनिधियों का कहना है कि नीतीश की विकास योजनाएं अच्छी हैं, लेकिन बीजेपी के साथ उनके गठबंधन ने भरोसा तोड़ा है. वहीं, कुछ पंचायत स्तर के नेताओं का मानना है कि अल्पसंख्यकों को शिक्षा, छात्रवृत्ति और नौकरी में लाभ मिला है, इसलिए नीतीश पर आस्था अब भी पूरी तरह टूटी नहीं है. नीतीश कुमार की सेक्युलर छवि अभी भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है, लेकिन यह लगातार इम्तिहान से गुजर रही है. 2025 के विधानसभा चुनाव में उनके छवि की असली परीक्षा होगी. क्या मुसलमान फिर से नीतीश पर विश्वास करेंगे या इस बार वे नए विकल्प तलाशेंगे? 

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बिहार में मुसलमान पारंपरिक तौर से आरजेडी और कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों की ओर झुके रहे हैं. लेकिन अगर एनडीए या जेडीयू इस समाज का विश्वास जीत सका, तो इस चुनाव में उसे बहुत बड़ी बढ़त मिल सकती है. अगर नीतीश अल्पसंख्यकों को यह विश्वास दिला पाए कि बीजेपी से गठबंधन के बावजूद उनकी सुरक्षा और विकास की गारंटी बरकरार है. यह भरोसा एनडीए को अप्रत्याशित बढ़त दिला सकता है. लेकिन अगर विपक्ष इस 'सेक्युलर छवि' में दरार को और गहरा कर गया तो नीतीश कुमार को नुकसान उठाना पड़ सकता है.

अल्पसंख्यकों का समर्थन पाने का दावा, मंत्री विजय कुमार चौधरी और जेडीयू-एनडीए की जो रणनीति है, वह निश्चित रूप से राजनीतिक मायने रखती है. यह दावा इस बात का संकेत है कि गठबंधन अल्पसंख्यक मतदाताओं में अपनी पहुंच बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. यदि ये दावे धरातल पर सच हों यानी योजनाएं वास्तविक हों, उनका लाभ जनता तक पहुंच रहे हों, भरोसा बन रहा हो, तो नीतीश कुमार अपनी सेक्युलर छवि को रफू करने में कामयाब होंगे. लेकिन यदि ये दावे केवल प्रचार तक सीमित रहे या अल्पसंख्यकों की अपेक्षाएं पूरी न हों, तो छवि का नुकसान बढ़ने की आशंका है. चुनाव से पहले यह महत्वपूर्ण होगा कि जेडीयू-एनडीए यह दिखा पाए कि सेक्युलर  सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक समाज के जीवन में बदलाव लाने वाली नीतियां हों.

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