बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में तेजस्वी के महागठबंधन की हार के पांच X फैक्टर

मतदान के दिन तक सत्ता में परिवर्तन का दावा करने वाले महागठबंधन और उसके नेता इस तरह कैसे धराशायी हो गए, इसकी कुछ खास वजहें दिखती हैं. RJD केवल हारी नहीं बल्कि मतदाताओं ने उसे पूरी तरह नकार दिया है. लालू यादव के लाल के नकारे जाने के क्या हैं अहम कारण?

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  • मतदान के दिन तक सत्ता में परिवर्तन का दावा करने वाली RJD और उसके नेता बिहार के चुनाव में कैसे धराशायी हो गए?
  • सीट बंटवारे में आपसी कलह, यादवों को तरजीह देना पड़ा भारी तो सरकारी नौकरी के वादा का बुलबुला फूटा.
  • EBC, सहयोगी पार्टियों की नाकामी, मुस्लिम तुष्टिकरण और जंगलराज वाली छवि, महिलाएं और युवा सबसे बड़े फैक्टर रहे.
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बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की है. इस ऐतिहासिक जीत में न केवल भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) ने जोरदार प्रदर्शन किया है बल्कि उनकी सभी सहयोगी पार्टियों ने भी अभूतपूर्व जीत हासिल की है. विपक्षी महागठबंधन की बहुत बड़ी हार हुई है तो इसकी सबसे बड़ी वजह इसकी सबसे बड़ी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) को मिली करारी हार है. शुरुआती मतगणना में खुद तेजस्वी यादव राघोपुर से पिछड़ रहे थे, हालांकि बाद में उन्होंने बढ़त बना ली. पर महुआ, तारापुर, मोकामा, अलीगंज, सीवान और छपरा जैसी अनेकों विधानसभा सीटों पर गठबंधन पिछड़ गई.

मतदान के दिन तक सत्ता में परिवर्तन का दावा करने वाले गठबंधन और उसके नेता इस तरह कैसे धराशायी हो गए, इसकी कुछ खास वजहें दिखती हैं. बिहार के मतदाताओं ने महागठबंधन को वोट को खूब दिए पर सीटों के समीकरण की वजह से वो सीटों में नहीं बदल सके. तेजस्वी यादव की आरजेडी केवल हारी नहीं बल्कि मतदाताओं ने पूरी तरह से उन्हें नकार दिया है. लालू यादव के लाल के नकारे जाने के क्या हैं अहम कारण?

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1. सीट बंटवारे में आपसी कलह और यादवों को तरजीह देना पड़ा भारी

लंबे समय से चुनावी आंकड़े और राजनीतिक पंडित यह कहते आ रहे हैं कि बिहार में जाति के आधार पर वोट डाले जाते हैं. संभव है यही वजह भी है कि तेजस्वी ने इसी जाति के आधार पर चुनाव में 52 यादवों को टिकट बांटे, जो पार्टी के कुल 143 प्रत्याशियों का 36 फीसद हैं. बता दें कि 2020 में 40 यादवों को टिकट दिए थे. इससे जातिवाद को बढ़ावा देने की उनकी छवि न केवल और मजबूत हुई बल्कि गैर-यादव वोटर्स भी उनसे छिटक गए. बिहार में यादवों की कुल संख्या 14 फीसद के करीब है. 

तेजस्वी ने जब इतनी बड़ी संख्या में यादवों को टिकटें बांटी तब एनडीए ने आरजेडी यादव राज का जुमला भी खूब चलाया. यह भी मैसेज गया कि वो एक बार फिर राज्य में यादव बहुल सरकार चाहते हैं. शहरी और मिडिल क्लास मतदाताओं ने इस मैसेज को हाथों हाथ लिया. यही वजह है कि बिहार में 126 यादव बहुल सीटों में से 52 पर अपने प्रत्याशी उतारने के बावजूद आरजेडी के एक तिहाई से भी कम, 17 प्रत्याशियों को सफलता मिली. कुल मिलाकर महागठबंधन के केवल 20 यादव प्रत्याशी ही जीत दर्ज कर सके. वहीं एनडीए ने इन 126 यादव बहुल सीटों में से 102 पर अपनी पकड़ बनाई.

कुछ चुनाव विश्लेषक इसे अखिलेश यादव के 2024 के चुनावों से भी जोड़ कर देख रहे हैं. तब अखिलेश ने केवल 5 यादव कैंडिडेट उतारे थे. विश्लेषकों का कहना है कि अगर तेजस्वी ने अखिलेश की तरह ही कम यादव कैंडिडेट उतारे होते तो उनका वोट प्रतिशत बढ़ सकता था.

इसके अलावा घोषणापत्र का नाम भी मतदाताओं को पसंद नहीं आया. इसे 'तेजस्वी प्रण' का नाम दिया गया. महागठबंधन के साथी दलों को इसका शीर्षक पसंद नहीं आया और माना जा रहा है कि उनके वोट आरजेडी और अन्य दलों को हस्तांतरित नहीं हो सका.

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2. राज्य के सभी परिवार में सरकारी नौकरी के वादे का फूटा बुलबुला 

तेजस्वी यादव ने अपने चुनावी वादों में राज्य के हर परिवार में एक सरकारी नौकरी का वादा किया था पर वो यह नहीं बता सके कि ये होगा कैसे. नौकरी देने के साथ ही उन्होंने पेंशन देने और जीविका दीदियों को  30,000 रुपये देने का वादा भी किया था. मतदाताओं को तेजस्वी यह समझा नहीं सके इसके लिए वो पैसे कहां से जुटाएंगे, साथ ही इसे लागू करने की उनकी योजना क्या है, इस पर भी वो जनता को विश्वास नहीं दिला सके. वो ये बोलते रहे कि केवल दो दिनों के भीतर वो इसकी योजना पर बात करेंगे, पर दोनों चरणों के मतदान खत्म होने के बावजूद वो दो दिन आए नहीं. कुल मिलाकर हर परिवार में एक सरकारी नौकरी देने का तेजस्वी यादव का वादा बिहार की युवा पीढ़ी के गले नहीं उतरा. 

3. EBC और सहयोगी पार्टियों की नाकामी का फैक्टर

ईबीसी में 130 से अधिक समुदाय आते हैं, तेजस्वी ने उनसे मतदान से एक दो दिनों पहले बात करना शुरू किया. यही कारण है कि राज्य की 141 EBC सीटों में से एनडीए ने जहां 125 पर अपनी बढ़त बनाई, वहीं महागठबंधन यहां केवल 14 सीटों पर सिमट गया. कभी इन ईबीसी सीटों में से 61 पर महागठबंधन के विधायक थे, जबकि एनडीए ने इनमें अधिकतम 78 सीटें जीती थीं. इस बार के चुनाव नतीजे में एनडीए ने 47 सीटें इन्हीं ईबीसी बहुत सीटों पर हासिल की है.
महागठबंधन की सहयोगी पार्टियों में सबसे बड़ी कांग्रेस है, पर 140 साल पुरानी इस पार्टी ने रणनीति बना कर अपने प्रत्याशियों का चयन नहीं किया. इसी वजह से मतदाताओं के बीच न तो उनकी कोई पहचान बनी और न ही उन्हें स्वीकार ही किया गया और कांग्रेस केवल एक ही सीट पर सिमट गई. कई सीटों पर प्रत्याशियों को बदल दिया गया, इससे असंतोष भी जाहिर हुआ और बागी उम्मीदवार खड़े हुए. साथ ही युवाओं और महिलाओं के बीच भी इस 'ग्रैंड ओल्ड पार्टी' का आकर्षण न के बराबर रहा. 

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4. मुस्लिम तुष्टिकरण और 'जंगलराज' वाली छवि

तेजस्वी यादव की हार में महागठबंधन की मुसलमान समर्थक छवि ने भी अहम किरदार निभाया. पर मुस्लिम बहुल सीमांचल में भी उसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा. तेजस्वी ने यह भी घोषणा की थी कि अगर वो मुख्यमंत्री बने तो "वक्फ कानून को कूड़ेदान में फेंकेंगे". वाम दल और कांग्रेस ने भी उनका समर्थन किया. चुनावी विश्लेषकों की नजर में इससे तेजस्वी के यादव समर्थक छिटक गए. उनके एमएलसी (विधानपरिषद के सदस्य) कारी सोहेब ने मंच से यह तक कह दिया कि "वक्फ बिल वालों का इलाज करना है”. 'इलाज करना' को बीजेपी ने धमकी के रूप में भुनाया. इसे जंगलराज की भाषा की रूप में प्रचारित किया गया. इसका सीधा फायदा एनडीए गठबंधन को हुआ. अंतिम चरण के मतदान के तुरंत बाद सभी एग्जिट पोल ने भी यह स्पष्ट कर दिया था कि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए की बिहार में वापसी हो रही है. जब 14 नवंबर को नतीजे आए तो एनडीए की 202 सीटों के मुकाबले महागठबंधन महज 35 सीटों पर सिमट गई.

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5. महिलाएं, युवा और लालू यादव की विचारधारा पर दोहरा मानदंड

महिलाओं की कई योजनाएं लॉन्च करने की वजह से नीतीश कुमार को महिलाओं के समर्थन की बात को जगजाहिर है. बीजेपी के प्रति महिला मतदाताओं का देशव्यापी रुझान पिछले कुछ वर्षों में दर्ज किया गया है. इस बिहार चुनाव में भी महिलाओं ने ऐतिहासिक रिकॉर्ड के साथ मतदान में भाग लिया. 

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2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में महिला मतदाताओं ने पुरुषों को पीछे छोड़ दिया था. 2020 में महिला वोटर्स 60 फीसद के पार पहुंच गईं, तो पुरुष 54 प्रतिशत तक ही पहुंच पाए. इस बार बिहार में महिलाओं ने चुनावी भागीदारी में वो वर्चस्व बनाया है जैसा 1977 में पुरुषों का हुआ करता था. 1977 में पुरुष मतदाताओं की संख्या 71.27% थी वहीं महिला मतदाता केवल 38.32% थीं. लेकिन 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में महिला मतदाताओं की संख्या 71.6% थी और पुरुषों के 62.8 प्रतिशत के मुकाबले यह 8.8% अधिक है.

अपनी योजनाओं के तहत बिहार सरकार ने चुनाव से ठीक पहले एक करोड़ से अधिक महिलाओं के अकाउंट में 10 हजार रुपये डाले थे. इसे भी चुनावी विश्लेषकों ने महिलाओं के प्रति रुझान के कारणों के तौर पर देखा. आम धारणा है कि नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार ने महिलाओं के साथ जो संवाद किया उसने एनडीए की जीत में बड़ा किरदार निभाया. किस तरह से महिलाओं ने बढ़ चढ़ कर वोट डाले और ये किसके पक्ष में गया वो नतीजों में परिलक्षित हो रहा है.

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तेजस्वी के रोजगार के लुभावने वादे युवाओं को महागठबंधन की ओर खींच नहीं सके. तो प्रशांत किशोर भी बढ़ चढ़ कर अपने मताधिकार का प्रयोग एनडीए के पक्ष में किया. चुनाव प्रचार के दौरान और इस प्रचंड जीत के बाद भी खुद प्रधानमंत्री ने भी महिलाओं और युवा मतदाताओं को धन्यवाद दिया.

इतना ही नहीं चुनाव में वो खुद को लालू यादव के सामाजिक न्याय की विचारधारा से तो जोड़ते रहे पर उनके 'जंगलराज' से दूरी बनाए रखे, उनका यह दोहरा मापदंड उनके पारंपरिक समर्थकों को रास नहीं आया. इतना ही नहीं जिन लालू प्रसाद यादव के छत्रछाए में आरजेडी अर्श पर पहुंची, इस बार वो कमोबेश चुनाव प्रचार से नदारद रहे तो पोस्टर पर भी उन्हें एक कोने में बहुत थोड़ी सी जगह मिल सकी.

कुल मिलाकर आरजेडी और उसके सहयोगी दलों को बिहार में जनता ने कई मानदंडों पर नकारा है जिसका परिणाम चुनाव में मिली सीटें साफ तौर पर दर्शा रही हैं.

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