ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) लगातार हमारी पृथ्वी के लिए खतरा बनती जा रही है. भले ही इसके लिए कई ठोस कदम उठाए जा रहे हों और इंटरनेशनल (international) लेवर पर चर्चा हो रही हो, लेकिन इन सब के बावजूद जलवायु परिवर्तन यानी क्लाइमेट चेंज (climate change) का इकोसिस्टम पर भयानक प्रभाव पड़ना शुरू हो गया है. माना जा रहा है कि, आने वाले सालों में इसका असर बढ़ता चला जाएगा. एक नई साइंटिफिक स्टडी के अनुसार, आर्कटिक महासागर में ग्रीष्मकालीन समुद्री बर्फ 2030 तक पूरी तरह गायब हो सकता है, यानी 2023 तक गर्मियों के दिनों में इस महासागर में बर्फ नजर नहीं आएगी.
नेचर कम्युनिकेशंस नामक पत्रिका में छपी एक स्टडी में पाया गया कि, पेरिस जलवायु संधि के हिसाब से ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने से भी नॉर्थ पोल की तैरती बर्फ के विशाल विस्तार को पिघलने से नहीं रोका जा सकेगा.
हैम्बर्ग विश्वविद्यालय के समुद्र विज्ञान संस्थान के एक प्रोफेसर, सह-लेखक डर्क नॉटज़ ने कहा, 'आर्कटिक ग्रीष्मकालीन समुद्री बर्फ (Summer sea ice) को अब एक परिदृश्य और आवास के रूप में संरक्षित करने में बहुत देर हो चुकी है.'
द न्यूयॉर्क टाइम्स से बातचीत में उन्होंने कि ‘हम बहुत जल्दी आर्कटिक समर सी-आइस कवर को खोने वाले हैं, मूल रूप से हम जो कर रहे हैं उससे स्वतंत्र हैं. हमने शेष बर्फ की रक्षा के लिए जलवायु परिवर्तन को लेकर कुछ भी करने में काफी देर कर दी है.'
आपको बता दें कि बर्फ के गायब होने से मौसम, इंसानों और इकोसिस्टम तीनों पर गंभीर प्रभाव पड़ता है, न केवल उस क्षेत्र में बल्कि पूरी दुनिया पर इसका असर दिखता है. दक्षिण कोरिया में पोहांग यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के एक शोधकर्ता, प्रमुख लेखक सेउंग-की मिन ने कहा, ‘यह ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर को पिघलाकर ग्रीन हाउस गैसों से लदे पर्माफ्रॉस्ट को पिघलाकर ग्लोबल वार्मिंग को तेज कर सकता है.'
बता दें कि, वैज्ञानिक आर्कटिक महासागर को आइस फ्री कह सकते हैं, अगर बर्फ से ढका क्षेत्र एक मिलियन वर्ग किलोमीटर से कम है या महासागर के कुल क्षेत्रफल का लगभग सात प्रतिशत है.
अंटार्कटिका में समुद्री बर्फ, फरवरी में 1.92 मिलियन वर्ग किलोमीटर तक गिर गई, जो रिकॉर्ड पर सबसे निचला लेवल है और 1991-2020 के औसत से लगभग एक मिलियन वर्ग किलोमीटर नीचे है.
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