डोनाल्ड ट्रंप और अमेरिका के राष्ट्रपति की कुर्सी... चार साल के गैप के बाद फिर से दोनों का मिलन हो गया है. पूरी दुनिया की नजर सिर्फ इस बात पर टिकी है कि अब आगे क्या होगा? इसका कुछ नजारा ट्रंप ने अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण (US President Donald Trump) के तुरंत बाद दे दिया. अमेरिका को WHO से बाहर निकालने की शुरुआत से लेकर मेक्सिको बॉर्डर पर इमरजेंसी के ऐलान तक, ट्रंप ने एक के बाद एक, कुल 78 कार्यकारी आदेशों पर अपनी कलम चलाई. एक ही दिन में 78 फैसले लिए. ट्रंप ग्रीनलैंड खरीदने, मैक्सिको, कनाडा से लेकर चीन पर टैरिफ लगाने और रूस से डील करके यूक्रेन युद्ध रोकने की बात कह रहे हैं.. ऐसे में सबकी नजर इस बात पर है कि अगले 100 दिन में क्या कुछ होगा, खासकर अमेरिका के टॉप पोस्ट पर ट्रंप की एंट्री से क्या कुछ बदलाव होना है?
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डोनाल्ड ट्रंप की व्हाइट हाउस में वापसी को व्यापक रूप से अमेरिका के विदेश नीति के लिए महत्वपूर्ण उथल-पुथल के दौर की शुरुआत के रूप में देखा जा रहा है. यह तय है कि अमेरिका की कूटनीति का तरीका बदलेगा. डोनाल्ड ट्रंप ने 2016 से 2020 के अपने पहले कार्यकाल में ही दिखा दिया था कि उनके लिए सबसे बड़ा कूटनीतिक हथियार विदेशी नेताओं को धमकी देने का उनका पसंदीदा स्टाइल ही है. जिस तरह से ट्रंप के शपथ लेने से पहले ही हमास-इजरायल के बीच सीजफायर डील हुई है, लगता है ट्रंप का यह अंदाज पहले ही असर दिखा रहा है.
दक्षिण अमेरिका के देशों पर दबाव
ट्रंप के निशाने पर दक्षिण अमेरिका के देश (लैटिन अमेरिका के देश) दिख रहे हैं. अपने चुनावी कैंपेन के बीच ही ट्रंप ने यह दिखाने की कोशिश की कि उनका ध्यान इस रीजन में एक साथ अमेरिकी प्रभुत्व पर जोर देने और किसी भी रणनीतिक कमजोरियों को दूर करने पर केंद्रित रहेगा.
वैसे तो ट्रंप के भाषणों में ग्रीनलैंड, मेक्सिको, कनाडा और पनामा नहर छाए रहे हैं. लेकिन ट्रंप के वापसी का क्यूबा, निकारागुआ और वेनेजुएला के साथ अमेरिकी संबंधों पर भी प्रभाव पड़ सकता है. इसकी वजह मानी जा रही है कि ट्रंप ने विदेश मंत्री के रूप में मार्को रुबियो को चुना है, जो अपने आक्रामक दृष्टिकोण के लिए जाने जाते हैं.
बीजिंग ने लैटिन अमेरिका में अपनी पहुंच मजबूत की है, खासकर इकनॉमी के जरिए. जिस मेक्सिको से अमेरिका सबसे ज्यादा आयात करता है वहां के बाजार में चीन ने खूब निवेश किया है. इसे अमेरिकी बाजार तक चीन के बैकडोर एंट्री के रूप में देखा जा रहा है. अनुमान लगाया जा रहा है कि अगले 100 दिनों में ट्रंप अपने धमकी भरी बयानबाजी, टैरिफ और राजनीतिक दबाव के जरिए लैटिन अमेरिका के देशों पर दबाव बढ़ाएंगे.अभी के लिए अपडेट है कि ट्रंप ने ओवल ऑफिस में कार्यकारी आदेशों पर साइन करते हुए कहा है कि वह 1 फरवरी से मेक्सिको और कनाडा से आने वाले सामानों पर 25% टैरिफ लगाने पर विचार कर रहे हैं.
यूरोप की राजनीति में बाइडेन से ज्यादा हस्तक्षेप
ट्रंप का यह रुख साफ है कि वह यूक्रेन में युद्ध समाप्त करके अमेरिका का संसाधन फ्री कराएंगे ताकि चीन और रूस पर ध्यान क्रेंद्रित किया जा सके. ट्रंप ने कहा है कि वह यूक्रेन युद्ध को खत्म कराने के लिए रूस के साथ समझौता कराएंगे. ट्रंप ने शपथ लेने के बाद मीडिया से कहा कि यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की भी युद्ध को समाप्त करने के लिए एक समझौता करना चाहते हैं.
हालांकि इसके साथ-साथ, ट्रंप के निशाने पर नाटो के दूसरे सहयोगी देश हैं. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि नाटो में अमेरिका के सहयोगी देश अपना रक्षा खर्च बढ़ाएं. अभी वाशिंगटन नाटो के सभी खर्च का 68% उठाता है, जबकि दूसरे यूरोपीय सदस्य देश 28% देते हैं.
जिस तरह से ट्रंप डेनमार्क से ग्रिनलैंड खरीदने की बात कर रहे हैं, कनाडा को अमेरिका में मिलाने की बात कर रहे हैं, यह तय है कि अगले 100 दिनों में यूरोप के देश अपने ‘बिग ब्रदर' की ओर संदेह की नजर से देखेंगे. इतना ही नहीं बल्कि ट्रंप के करीबी विश्वासपात्र बने, एलन मस्क, ब्रिटेन और जर्मनी में सरकारें बदलने के अपने प्रयासों के बारे में खुलेआम डींगें मार रहे हैं.
चीन-रूस से इरान तक, संघर्ष पर नजर
लैटिन अमेरिकी देशों, यूरोप और मिडिल ईस्ट के साथ भविष्य के संबंधों को लेकर ट्रंप का दृष्टिकोण काफी स्पष्ट है, लेकिन चीन को लेकर उनकी रणनीति क्या होगी, इसपर सवाल उठे हैं. एक तरफ पनामा नहर पर चीनी के कंट्रोल की बात करके वो उसे वापस अमेरिका के कंट्रोल में लाने की मांग कर रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ वो यूक्रेन में शांति समझौते के लिए चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग की मदद मांग रहे हैं. माना जा रहा है कि चीन ट्रंप चीन के साथ समझौते के लिए तैयार हो सकते हैं लेकिन जुबानी हमले को कम किए बिना.
अपने पहले कार्यकाल के दौरान, ट्रंप ने ईरान के खिलाफ "अधिकतम दबाव" की नीति अपनाई थी. उन्होंने अमेरिका को 2015 के परमाणु समझौते से वापस ले लिया, जिसने प्रतिबंधों से राहत के बदले में इरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम पर प्रतिबंध लगाया था. इरान परमाणु शक्ति बनने की दहलीज पर है, इसका मजबूत बैलिस्टिक मिसाइल प्रोग्राम प्रगति पर है, और वह अमेरिका को मिडिल ईस्ट पर अपने प्रभुत्व के लिए मुख्य बाधा के रूप में देखता है. अगले 100 दिनों में ट्रंप फिर से "अधिकतम दबाव" की नीति दोहरा सकते हैं. इस प्रयास में वह ईरान के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों का विस्तार कर सकते हैं.
भारत के लिए क्या?
व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप के कमबैक पर भारत करीब से नजर रखेगा. इस कमबैक का दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा. उम्मीद जताई जा रही है कि ट्रंप व्यापार पर अपना कड़ा रुख जारी रखेंगे. अमेरिका टैरिफ के जरिए अपने संरक्षणवादी नीतियों पर जोर दे सकता है. हालांकि दूसरी तरफ भारत के लिए प्लस प्वाइंट यह है कि ट्रंप भारत के रणनीतिक महत्व को लेकर भी मुखर समर्थक रहे हैं, खासकर इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में, जहां अमेरिका का लक्ष्य चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करना है. ऐसे में दोनों के बीच सहयोग बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है.
यानी कुल मिलाकर जमापूंजी यह है कि ट्रंप पर नजर रखिए, भले आप यूरोप में बैठे हों या भारत में.. बहुत कुछ होने वाला है. ट्रंप खुद को एक डिसरप्टर के रूप में देखते हैं, और MAGA (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) का नारा लगाने वाला उनका वोट बैंक उनसे वैसा ही होने की उम्मीद करता है. ट्रंप के साथ एक ही चीज निश्चित है- कि कुछ निश्चित नहीं है.