- पाकिस्तान में महीने की शुरुआत में हिंसक विरोधों के बाद तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान पर फिर से प्रतिबंध लगाया गया
- पंजाब सरकार की सिफारिश पर TLP के खिलाफ कार्रवाई को संघीय कैबिनेट ने सर्वसम्मति से मंजूरी दी
- इस समूह पर पहले भी 2021 में प्रतिबंध लगाया गया था, लेकिन छह महीने बाद हिंसा न करने की शर्त पर बैन हटाया गया था
पाकिस्तान में इस महीने की शुरुआत में हुए हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बाद वहां की फेडरल (केंद्रीय) सरकार ने अपने आतंकवाद विरोधी कानून के तहत कट्टरपंथी धार्मिक पार्टी तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (TLP) पर फिर से प्रतिबंध लगा दिया है. डॉन की रिपोर्ट के अनुसार गुरुवार, 23 अक्टूबर को संघीय कैबिनेट की बैठक के बाद इस निर्णय की घोषणा की गई. यह कदम उस समय उठाया गया है जब पाकिस्तान में अक्सर स्वतंत्र रूप से संचालित होने वाले चरमपंथी संगठनों पर अंकुश लगाने में इस्लामाबाद की बार-बार विफलता पर आलोचना बढ़ रही है.
प्रधान मंत्री कार्यालय के एक बयान के अनुसार, पंजाब सरकार द्वारा आतंकवाद विरोधी अधिनियम (ATA) के तहत TLP के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश के बाद इस बैन को "सर्वसम्मति से" मंजूरी दी गई. पाकिस्तान के आंतरिक मंत्रालय (गृह मंत्रालय) ने कैबिनेट को "देश भर में TLP की हिंसक और आतंकवादी गतिविधियों" के बारे में जानकारी दी. अधिकारियों ने बैठक में बताया कि 2016 में गठित इस संगठन ने बार-बार देश भर में हिंसा और अशांति भड़काई है. डॉन के अनुसार, सरकारी बयान में कहा गया है, "अतीत में, TLP के हिंसक विरोध प्रदर्शनों और रैलियों में सुरक्षाकर्मी और आसपास से गुजरते निर्दोष लोग मारे गए हैं."
गौरतलब है कि इस समूह को पहले भी एक बार 2021 में प्रतिबंधित किया गया था, लेकिन हिंसा से बचने की कसम खाने के बाद इसपर से छह महीने बाद बैन हटा दिया गया था. अब पाकिस्तान का कहना है कि TLP ने यह वादा तोड़ दिया है. अपने गठन के बाद से, TLP ने अपने चरमपंथी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए सड़क पर शक्ति और हिंसा का उपयोग करके अपना नाम बनाया है. पार्टी पाकिस्तान के ईशनिंदा कानूनों का बचाव करने का दावा करती है और अक्सर धार्मिक मुद्दों पर भीड़ जुटाती है, जिससे पुलिस और सुरक्षा बलों के साथ झड़पें होती हैं.
पाकिस्तान की सरकार किसी संगठन पर अस्थायी प्रतिबंध ही लगा सकती है. इसपर अंतिम निर्णय के लिए संविधान के अनुच्छेद 17(2) के तहत पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय को भेजा जाना चाहिए. डॉन के मुताबिक, कानून कहता है कि ऐसे मामलों पर शीर्ष अदालत का फैसला "अंतिम" होता है.
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