शांति का सपना और नेहरू-माओ मुलाकात... कुछ ऐसा था एक भारतीय प्रधानमंत्री का पहला चीन दौरा

1954 में तात्कालिक प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने "अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण विदेशी मिशन" शुरू किया. 1949 में माओत्से तुंग की जीत के बाद बीजिंग में कदम रखने वाले वह पहले गैर-कम्युनिस्ट नेता थे.

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जवाहरलाल नेहरू 1954 में चीन की यात्रा करने वाले पहले भारतीय प्रधान मंत्री बने
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  • प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 25वें शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए 30 अगस्त को चीन पहुंचे.
  • 1954 में जवाहरलाल नेहरू चीन के पहले गैर-कम्युनिस्ट नेता थे जिन्होंने बीजिंग का दौरा किया था.
  • पंचशील समझौते में भारत और चीन ने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांतों पर सहमति जताई थी.
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जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शनिवार, 30 अगस्त को तियानजिन में 25वें शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन में शामिल होने के लिए चीन पहुंचे, तो यह ड्रैगन के साथ भारत के जुड़ाव की लंबी, जटिल कहानी में एक और अध्याय था. 70 साल पहले, जवाहरलाल नेहरू पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का दौरा करने वाले पहले भारतीय प्रधान मंत्री बने थे. उस दौरे को तब कूटनीति के मोर्चे पर एक ऐतिहासिक सफलता के रूप में देखा गया था.

1954 में, नेहरू ने "अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण विदेशी मिशन" शुरू किया, 1949 में माओत्से तुंग की जीत के बाद बीजिंग में कदम रखने वाले वह पहले गैर-कम्युनिस्ट नेता थे. चीनी सरकार ने उनका बड़ी धूमधाम से स्वागत किया. न्यूयॉर्क टाइम्स ने उस समय रिपोर्ट लिखी थी, "शहर और हवाई अड्डे के बीच छह मील तक लोगों का हुजूम था, जो 'लंबे समय तक शांति' के चीनी नारे लगा रहे थे, ताली बजा रहे थे, जयकार कर रहे थे."

अपनी बेटी इंदिरा गांधी के साथ, नेहरू ने माओ और प्रधान मंत्री झोउ एनलाई से मुलाकात की. उन्होंने बीजिंग, शंघाई, नानजिंग और गुआंगजौ की यात्रा की. शीत युद्ध की प्रतिद्वंद्विता से मुक्त एशिया का सपना देखने वाले नेहरू के लिए यह यात्रा मित्रता के एक नए युग को मजबूत करती प्रतीत हुई.

पंचशील समझौता

उपनिवेशवाद के बाद की हलचल से जन्मे, पंचशील को 29 अप्रैल, 1954 के तिब्बत समझौते में शामिल किया गया था, जहां भारत और चीन ने आपसी सम्मान से अपने संबंधों को निर्देशित करने का संकल्प लिया था. नेहरू ने समझौते पर स्वयं हस्ताक्षर नहीं किये; इस पर भारत के राजदूत एन राघवन और चीन के प्रतिनिधि चांग हान-फू ने हस्ताक्षर किये.

दो महीने बाद, जून 1954 में, नेहरू और झोउ ने इन सिद्धांतों को न केवल द्विपक्षीय संबंधों के लिए बल्कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लिए भी एक रूपरेखा के रूप में घोषित किया. इस समझौते के प्रस्तावना में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांत दिए गए थे, जिन्हें दोनों ने व्यक्त किया:

  1. संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के लिए पारस्परिक सम्मान
  2. परस्पर अनाक्रामकता
  3. आंतरिक मामलों में परस्पर हस्तक्षेप न करना
  4. समानता और पारस्परिक लाभ
  5. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व

नेहरू ने पंचशील को एशिया के लिए घोषणापत्र के रूप में देखा. उन्होंने इसकी कल्पना एक स्वतंत्र एशियाई विदेश नीति के आधार के रूप में की, जो न तो वाशिंगटन और न ही मॉस्को के साथ गठबंधन करती थी. उन्होंने यह भी आशा व्यक्त की कि भविष्य में एशियाई-अफ्रीकी मंचों में चीन को शामिल करने से उसके पड़ोसियों को आश्वस्त किया जा सकेगा और पूरे महाद्वीप में शांति स्थापित की जा सकेगी. लेकिन इसमें चीन को एक ऐतिहासिक रियायत भी दी गई थी. पहली बार, भारत ने औपचारिक रूप से तिब्बत पर चीन की संप्रभुता को मान्यता दी, और इसे "चीन का तिब्बत क्षेत्र" बताया.

हस्ताक्षर करने से पहले मोलभाव

समझौते में शांति की बात थी लेकिन इस समझौते तक पहुंचने के पहले बहसों का कठिन दौर था. दिसंबर 1953 और अप्रैल 1954 के बीच, भारतीय और चीनी वार्ताकारों के बीच व्यापार मार्गों और सीमा मार्गों को लेकर बहसें हुईं. भारत ने कई हिमालयी दर्रों के लिए मान्यता मांगी जो सदियों पुराने व्यापार और तीर्थयात्रा की सुविधा प्रदान करते थे. चीन द्वारा बाकी को अस्वीकार करने के बाद अंततः केवल छह दर्रे ही शामिल किए गए. चीन ने डेमचोक (लद्दाख में एक सीमा दर्रा) को शामिल करने के भारत के दबाव पर भी आपत्ति जताई, जिससे नई दिल्ली को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा.

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और फिर जंग

लेकिन पंचशील समझौता जून 1962 में समाप्त हो गया, और कुछ ही महीनों के भीतर भारत और चीन अपनी हिमालयी सीमा पर युद्ध की स्थिति में थे. शांति के ये पांच सिद्धांत अक्साई चिन और मैकमोहन रेखा पर विवादों का सामना नहीं कर सके.

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