'We are Citizens of Europe'... यह वह विचार है,जो यूरोप के कई देशों को एक साथ लाया. यूरोप के किसी भी देश के नागरिक खुद को यूरोपीयन कहलाना उतना ही पसंद करते हैं, जितना कि वह अपने देश का नागरिक होने पर गर्व करते हैं. यूरोप के देशों की यही खास बात भी है. लेकिन यह विचार इन दिनों चुनौतियों का सामना कर रहा है. ब्रिटेन जैसी महाशक्ति आज से पांच साल पहले यूरोपीय संघ या यूरोपीय यूनियन (ईयू) से बाहर हो गई थी. ब्रिटेन के ईयू से बाहर आने को Brexit नाम दिया गया था. इसके बाद ईयू के सदस्य दशों की संख्या घटकर 27 रह गई थी. आज हम इस घटना की चर्चा हम इसलिए कर रहे है, क्योंकि यूरोपीय यूनियन का एक और देश उस दिशा में बढ़ता हुआ नजर आ रहा है. वह देश है, नीदरलैंड.
यूरोपीय संघ से बाहर आने का रूझान केवल नीदरलैंड में ही नहीं, बल्कि कई दूसरे देशों में भी देखने को मिल रहा है.इसकी वजह बन रहा है धुर दक्षिणपंथी पार्टियों का उभार.
नीदरलैंड में बदलता राजनीतिक माहौल
नीदरलैंड के प्रधानमंत्री डिक स्कोफ को इस्तीफा देना पड़ा. इसकी वजह बना, धुर दक्षिणपंथी नेता गीर्ट वाइल्डर्स की पार्टी फॉर फ्रीडम या पीवीवी का सत्तारूढ़ गठबंधन से अलग हो जाना. पिछले संसदीय चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी पीवीवी ने चुनाव प्रचार में इस्लाम विरोध, प्रवासी नीति और यूरोपीय यूनियन के विरोध की वजह से बड़ा समर्थन जुटाया था.
पत्रकारों से बातचीत करते नीदरलैंड के प्रधानमंत्री डिक स्कोफ.
वाइल्डर्स अपने भाषणों में सरकार की प्रवासी नीति की आलोचना करते हुए कई बार कह चुके हैं, "नीदरलैंड अब इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता. हमें अब सबसे पहले अपने लोगों के बारे में सोचना होगा. सीमाएं बंद हैं और कोई शरणार्थी नहीं है. बड़े पैमाने पर इमिग्रेशन के चलते मूल निवासियों की अनदेखी की जा रही है. वे खुद को दुर्व्यवहार का शिकार महसूस करते हैं."
इस दक्षिणपंथी नेता ने कहा है कि उनकी पार्टी के सभी मंत्री सरकार छोड़ देंगे, क्योंकि इमिग्रेशन पॉलिसी पर उनके सुझावों को अस्वीकार कर दिया गया है. अब अगला चुनाव पीवीवी अपनी पार्टी का प्रधानमंत्री बनाने के उद्देश्य से लड़ेगी. नीदरलैंड के राजनीतिक रुझानों को देखकर लगता है कि वाइल्डर्स अगले पीएम बन सकते हैं. अगर ऐसा हुआ तो यह यूरोपियन यूनियन के लिए बड़ी चुनौती है. हालांकि बहुत कुछ नीदरलैंड के मध्यावधि चुनाव के परिणामों पर निर्भर करेगा.
नीदरलैंड ही नहीं, बल्कि कई देश अब ईयू के विरोध में खड़े नजर आ रहे हैं.इटली में जियोर्जिया मेलोनी की पार्टी के सत्ता में आने का इशारा भी वहां ईयू विरोध की तरफ ही है. इस लिस्ट में हंगरी, फिनलैंड, स्वीडन जैसे देश भी शामिल हैं.
क्या 2008 की मंदी से कमजोर हुई यूरोप की एकता
अगर यूरोपीय संघ के बिखराव की कहानी को समझना है तो 2008 की आर्थिक मंदी को समझना बेहद जरूरी है. इस मंदी ने यूरोपीय संघ को बुरी तरह से प्रभावित किया. यूरोजोन (यूरोपीय संघ का पूरा क्षेत्र) की अर्थव्यवस्था ने ईयू को बुरी तरह प्रभावित किया. लाखों परिवारों ने अपना घर, बचत और कारोबार, सब कुछ खो दिया. इससे समाज के बहुसंख्यक तबके में हाशिए पर पड़े अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत पैदा हुई. उस समय यह कहा जाने लगा कि यह सब कुछ अप्रवासियों की वजह से हुआ है, यह उन्हीं की गलती है.
डेनमार्क की संसद पर लहराता डेनमार्क और यूरोपीय यूनियन का झंडा.
ग्रीस, आयरलैंड, पुर्तगाल जैसे देशों में कर्ज संकट बढ़ा. इसके लिए ईयू और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने बेलआउट पैकेज दिए. इन पैकेजों में कटौती और कर वृद्धि जैसे उपाय शामिल थे. इससे बेरोजगारी और सामाजिक असंतोष बढ़ा. साल 2010 तक यूरोप में बेरोजगारी 10 फीसदी से ऊपर पहुंच गई, विशेष रूप से स्पेन और ग्रीस में, जहां यह 20 फीसदी से भी अधिक थी. इसी आर्थिक अस्थिरता ने धुर दक्षिणपंथी पॉपुलिस्ट पार्टियों के उभार को बढ़ावा दिया.
इस संकट की पूरी कहानी को समझिए
यूरोप का सबसे बड़ा संकट है,'शरणार्थी संकट' या 'प्रवासी संकट'. यह 2015 में शुरू हुआ. दरअसल, यूरोप में 2015 में 1.2 मिलियन यानी कि 12 लाख से अधिक लोगों ने अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत शरण का दावा करने के लिए ईयू में प्रवेश किया. इसमें सबसे ज्यादा वो लोग थे जो सीरिया के गृह युद्ध के बाद भागकर आए थे. तत्कालीन जर्मन चांसलर एंजेला मार्केल ने 'Open Door Policy' अपनाई. इसके लिए उन्हें कड़ा विरोध भी झेलना पड़ा. इसका नतीजा यह हुआ कि इस मुद्दे को भुनाने वाली अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (AFD) जैसी पार्टी आज वहां की प्रमुख विपक्षी पार्टी बन चुकी है.
आज यूरोप में करीब 2.5 करोड़ लोग बेरोजगार हैं. यूरोपीय संघ अब बेरोजगारों का संघ बनता जा रहा है. मिडिल ईस्ट क्राइसिस और आतंकवाद के खतरों के साथ इस्लाम विरोधी रुझानों से भी यूरोप बिखरता हुआ नजर आ रहा है. अब जब बेरोजगारी, ऊर्जा की खपत और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर यूरोप में बात हो रही है. ऐसे में दक्षिणपंथी पार्टियों के नेता इस बात को लोगों तक पहुंचाने में कायमाब रहे हैं कि इन सबके पीछे वजह है- यूरोपीय यूनियन के सदस्य देशों की इमिग्रेशन पॉलिसी. अब फिर सीमा सुरक्षा के नाम पर बॉर्डर को बंद करने का मुद्दा प्रमुख मुद्दा बन चुका है. इसी के चलते उदारवादी रवैया छोड़ यूरोप के कई देश अब कट्टरपंथ की राह पर हैं.
जर्मनी के नए चांसलर फ्रेडरिक मर्ज के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने देश की अर्थव्यवस्था को संभालने की है. जर्मनी को ईयू के विकास का इंजन माना जाता है.
ईयू के इंजन जर्मनी के तरक्की की धीमी रफ्तार
यूरोपीय यूनियन से ब्रिटेन के बाहर होने के बाद अब जिम्मा जर्मनी पर है. लेकिन ईयू का इंजन माने जाने वाला जर्मनी भी भयंकर आर्थिक संकट से जूझ रहा है. यह देश 2011 में भारी वित्तीय और आर्थिक संकट के दौर से गुजर चुका है. उस समय जर्मनी में कई कंपनियां बंद हो गई थीं. लेकिन इस बार का संकट काफी अलग है. जर्मनी की जीडीपी ग्रोथ इस साल 2.2 फीसदी रह गई है. उसके अगले साल तक 2.5 फीसदी तक ही पहुंच पाने का अनुमान है. वहीं,बिजली की ऊंची कीमतों के चलते उद्योगों को भारी बोझ पड़ रहा है.
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