GDP अंग्रेजी में जितनी खुशनुमा लगती है उतनी हिंदी में सुनने में नहीं लगती है. सकल घरेलू उत्पाद बोलते ही "सकल पदारथ है जग माहीं,करमहीन नर पावत नाहीं" की प्रतिध्वनि सुनाई देने लगती है. भारत की राजनीति में भाषणों का स्तर 10 वीं कक्षा स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिता से उपर नहीं उठ सका है. जब जनता अपनी नागरिकता छोड़ भक्ति में लग जाए तो उसे जनता नहीं जजमान कहना चाहिए.