मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में सरकार बर्खास्त करने का फैसला उलटा पड़ गया था. कोर्ट ने पलट दिया था. उत्तराखंड हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन हटा दिया था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने सही माना था. कर्नाटक में भी इस्तीफा देने वाले विधायकों की सदस्यता का सवाल उठ रहा है. क्या उनकी सदस्यता पर फैसला विश्वास मत से पहले नहीं आना चाहिए. उत्तराखंड हाई कोर्ट का फैसला नज़ीर बन सकता है. जस्टिस यू सी ध्यानी का फैसला है जिसमें उन्होंने बागी विधायकों की याचिका पर अपना मत दिया था. कोर्ट ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के आधार पर स्पीकर की कार्यवाही का अध्ययन किया है. अदालत मानती है दसवीं अनुसूची के पैराग्राफ 2(1)(a) के तत्व याचिकाकर्ता के खिलाफ जाते हैं. उनके व्यवहार से यह साबित होता है कि उन्होंने अपने राजनीतिक दल की सदस्यता स्वेच्छा से छोड़ दी है. भले ही वे किसी दूसरे दल के सदस्य नहीं बने हैं. 9 मई 2016 का उत्तराखंड का एक फैसला काफी कुछ कहता है. यही कि कर्नाटक के स्पीकर विश्वासत मत से पहले इस्तीफा देने वाले विधायकों की सदस्यता रद्द कर सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने सदस्यता रद्द करने की कार्यवाही पर रोक नहीं लगाई है. कर्नाटक के मामले में मुंबई गए विधायक के व्यवहार से भी ऐसा ही लगता है कि वे अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ चुके हैं. वे अपनी पार्टी की बात नहीं मान रहे हैं. 10वीं अनुसूची का यह प्रावधान इसलिए बनाया गया था कि आप जिस पार्टी के टिकट पर चुने गए हैं उसके साथ धोखा न करें.