भारत की राजनीति का दुखद पहलू यह है कि नेता होने का मतलब यह मान लिया जाता है कि भाषण कैसा देता है. भाषण ज़रूरी तो है, लेकिन क्या भाषण वही है जिसमें चीखते हुए गले की नस तन जाए, भौहें चढ़ जाए और बात करते हुए केवल शब्द गूंजने लगे. ज़्यादातर लोगों की ट्रेनिंग स्कूलों की वाद-विवाद प्रतियोगिता की होती है. जिसमें भाषण का मतलब होता है. ऐसे बोलना कि ताली बज जाए. बहुत कम लोग इस घेरे को तोड़ पाते हैं. गांधी बहुत अच्छा नहीं बोलते थे. अच्छा बोलने से मतलब है बोलते वक्त उछलते कूदते नहीं थे. माइक के चारों तरफ बाहें फैलाकर नौटंकी नहीं करते थे. इसके बाद भी गांधी की बातें कई दशकों तक टिकी हुई हैं. हम यह बात इसलिए कह रहे हैं कि जब राजनीति का स्तर गिर जाता है तब उसका असर भाषणों में भी दिखता है. नेता की बातों में बौखलाहट होगी.