EXPLAINER: क्या है डिजिटल अरेस्ट, कैसे करें पहचान, कैसे करें बचाव

आइए, आज आपको बताते हैं, क्या होता है डिजिटल अरेस्ट, क्या होते हैं उसे पहचानने के तरीके, और उनसे बचने के उपाय भी - यानी आपके लिए पेश है डिजिटल अरेस्ट एक्सप्लेनर.

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दुर्भाग्य से साइबर ठग ठगी के इस ताज़ातरीन तरीके, यानी डिजिटल अरेस्ट को कामयाबी से अंजाम दे रहे हैं...
नई दिल्ली:

अब तो आएदिन ऐसी ख़बरें नज़र में आने लगी हैं, जिनमें डिजिटल अरेस्ट (Digital Arrest) का ज़िक्र हो. कुछ ही दिन बीते हैं, जब वर्धमान ग्रुप के CMD एस.पी. ओसवाल को डिजिटल अरेस्ट कर ₹7 करोड़ ठग लिए गए थे, और इस बार तो हद ही हो गई, जब एक महिला शिक्षक को उनकी बेटी के सेक्स रैकेट में फंसने का कॉल आया, और डर के मारे महिला की मौत हो गई. सो, दुर्भाग्य से साइबर ठग ठगी के इस ताज़ातरीन तरीके, यानी डिजिटल अरेस्ट को कामयाबी से अंजाम दे रहे हैं, और दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाले मुल्क में उनके लिए शिकारों की कोई कमी नहीं है. आइए, आज आपको बताते हैं, क्या होता है डिजिटल अरेस्ट, क्या होते हैं उसे पहचानने के तरीके, और उनसे बचने के उपाय भी - यानी आपके लिए पेश है डिजिटल अरेस्ट एक्सप्लेनर.

क्या होता है डिजिटल अरेस्ट...?

साइबर कानून विशेषज्ञ और वकील पवन दुग्गल का कहना है, "किसी भी शख्स को किसी भी गलतफहमी का शिकार बनाकर डर और दहशत में डाल देने और उस डर की मदद से रकम वसूलने, यानी साइबर क्राइम का शिकार बनाने को डिजिटल अरेस्ट कहते हैं..."

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विशेषज्ञों का कहना है, डिजिटल अरेस्ट के दौरान ठग अपने संभावित शिकार के मन में डर पैदा कर देते हैं, और उन्हें भरोसा दिला दिया जाता है कि जो भी उन्हें बताया जा रहा है, वही असलियत है. उनके या उनके किसी परिजन के साथ कुछ बुरा हो चुका है, या होने वाला है, या वह पुलिस, CBI या ED की जांच के घेरे में फंस चुके हैं. बस, इसके बाद 'शिकार' डरकर मान लेता है कि अगर कॉलर का कहना नहीं माना, तो बहुत बुरा होगा, या वह सचमुच गिरफ़्तार हो जाएगा.

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डिजिटल अरेस्ट की पहचान कैसे करें...?

  • डिजिटल अरेस्ट के मामलों में संभावित शिकार को फोन कॉल आता है, जिनमें उन्हें बताया जाता है कि वह मनी लॉण्डरिंग के केस में, या ड्रग्स के गंभीर केस में शामिल रहे हैं, और अगर उन्होंने कॉल कर रहे 'जांच अधिकारी' का कहना नहीं माना, तो गिरफ़्तारी और जेल की सज़ा सिर्फ़ वक्त की बात है. डिजिटल अरेस्ट के कुछ मामले तो इंटरनेट कनेक्शन काट देने की मामूली धमकी जैसी कॉल से भी शुरू हो सकते हैं, और फिर 'शिकार' के डरना शुरू करते ही कॉलर तेज़ी से पैंतरा बदलकर अपनी चाल चल देता है.
  • 'शिकार' को पुलिस जैसी वर्दी, पुलिस स्टेशन या CBI ऑफ़िस जैसा माहौल (स्टूडियो में बनाकर) और यहां तक कि पहचानपत्र (आईडी कार्ड) दिखाकर ठग के जांच अधिकारी होने का यकीन दिला दिया जाता है.
  • टारगेट को हर वक्त अपना मोबाइल कैमरा और माइक्रोफ़ोन चालू रखने के लिए कहा जाता है और बुरे नतीजे की धमकी दे-देकर उनके भीतर डर बिठा दिया जाता है.
  • उन्हें यह भी कहा जाता है कि जो कुछ भी हो रहा है, उसके बारे में किसी से बात न करें, किसी को भी कुछ न बताएं.
  • जब 'शिकार' के भीतर पर्याप्त डर बैठ जाता है, वह ठग की हर बात मानने लगता है, और फिर उसके बाद ठग बेहद तसल्ली से उनके पास मौजूद पाई-पाई लूट लेते हैं, जो लाखों भी हो सकते हैं, और करोड़ों भी.

डिजिटल अरेस्ट से बचने के लिए क्या करें...?

केंद्रीय गृह मंत्रालय के मुताबिक, बहुत-से 'शिकारों' ने 'डिजिटल अरेस्ट' करने वाले ठगों के चलते बड़ी-बड़ी रकमें गंवाई हैं.

गृह मंत्रालय के बयान के मुताबिक, "केंद्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत काम करने वाला इंडियन साइबर क्राइम को-ऑर्डिनेशन सेंटर (I4C) मुल्क में साइबर क्राइ  से निपटने से जुड़ी संबंधित गतिविधियों का समन्वय करता है... इस तरह के फ़्रॉड का मुकाबला करने के लिए गृह मंत्रालय अन्य मंत्रालयों तथा उनसे संबद्ध एजेंसियों, RBI तथा अन्य संगठनों के साथ मिलकर काम कर रहा है... I4C फ़्रॉड के मामलों की पहचान और तफ़्तीश के लिए राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों के पुलिस अधिकारियों को इनपुट और तकनीकी सहायता भी प्रदान कर रहा है..."

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बयान में यह भी कहा गया है, "नागरिकों को सतर्क रहने और इस प्रकार की धोखाधड़ी के बारे में जागरूकता फैलाने की सलाह दी जाती है... ऐसी कॉल आने पर नागरिकों को मदद के लिए तुरंत साइबर क्राइम हेल्पलाइन नंबर 1930 या www.cybercrime.gov.in पर घटना की रिपोर्ट करनी चाहिए..."

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नोएडा पुलिस के साइबर क्राइम विभाग सहित पुलिस बलों ने भी संदिग्ध फ़ोन को वेरिफ़ाई करने की अहमियत पर ज़ोर दिया है. पुलिस बल के मुताबिक, कॉल करने वालों की असलियत की पहचान की कोशिश आधिकारिक वेबसाइटों के ज़रिये करने की कोशिश करनी चाहिए, सिर्फ़ गूगल या बिंग जैसे सर्च इंजनों के ज़रिये नहीं, जहां अक्सर ठग अपने फ़्रज़ी नंबर पोस्ट कर दिया करते हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के मामलों में पैसे की मांग होते ही फ़्लैग की जानी चाहिए. आखिर कोई भी क़ानूनी जांच सिर्फ़ इसलिए खत्म नहीं की जा सकती, क्योंकि किसी आरोपी (ठगी का शिकार) ने किसी जांच अधिकारी (ठग) को भुगतान किया है. अगर असल तफ़्तीश हो रही होती, तो यह भुगतान रिश्वत कहलाती.

सबसे अहम पहलू यह है कि विशेषज्ञों ने ज़ोर देकर साफ़ किया कि भारतीय क़ानून में 'डिजिटल अरेस्ट' का कोई प्रावधान है ही नहीं, और किसी को भी हर वक्त वीडियो या माइक्रोफोन चालू रखने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.

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