हॉकी प्लेयर निक्की प्रधान के संघर्ष की कहानी, जानें कैसे तय किया खेत से ओलिंपिक तक का सफर 

भारतीय सीनियर टीम के लिए 2015 में दिल्ली में ओपन ट्रेल हुए, जिसके लिए पूरी देश से 20 खिलाड़ी पहुंचे थे. इस ट्रायल में सिर्फ निक्की का ही चयन हुआ, जिसके बाद से वो राष्ट्रीय टीम के लिए खेल रही है. 

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निक्की प्रधान टोक्यो ओलंपिक में भारतीय टीम का हिस्सा थी
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निक्की प्रधान झारखंड के एक गरीब परिवार से आती हैं
खेलने के लिए हॉकी स्टिक नहीं थी तो बांस से हॉकी स्टिक बनाई
आज भी समय मिलने पर अपने खेतों में काम करती हैं निक्की
नई दिल्ली:

झारखंड के हेसेल गांव के बारे में बहुत कम ही लोग जानते होंगे. निक्की प्रधान (Nikki Pradhan) को भी बहुत कम लोग जानते होंगे. निक्की प्रधान भारतीय महिला हॉकी टीम (Indian Hockey Team) की खिलाड़ी हैं, जो हेसेल गांव से आती हैं. निक्की कोई सामान्य खिलाड़ी नहीं है, वो भारत के लिए वर्ल्ड कप से लेकर ओलिंपिक गेम्स (Olympic Games) में खेल चुकी हैं. दुख की बात यह है कि हमारे देश में हॉकी खिलाड़ियों की चर्चा बहुत कम होती है. हॉकी और हॉकी खिलाड़ी तब याद आते हैं जब ओलिंपिक में मेडल जीतने की बात आती है. अगर टीम मेडल जीत जाती है तो इनकी मेहनत पर सब वाहवाही लुटने पहुंच जाते हैं. कुछ दिन बाद सब इन खिलाड़ियों को नजरअंदाज किया जाता है और अगले मेडल की इंतजार शुरू हो जाता है.

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गांव से ओलंपिक खेलों तक का सफर

अंतरराष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी बनने के लिए निक्की ने बहुत संघर्ष की है. एक गरीब परिवार में जन्मी निक्की के पास हॉकी स्टिक तक नहीं हुआ करती थी तो वो बांस से हॉकी स्टिक बना कर खेलती थी. उनके गांव में कोई हॉकी का मैदान नहीं है. उन्होंने गलियों में हॉकी खेलना शुरू किया और आज ओलिंपिक गेम्स तक पहुंच गई. निक्की के पिता एक पुलिस कांस्टेबल थे इसलिए तनख्वाह ज्यादा नहीं मिलती थी. निक्की को घर का सारा काम करना होता था. वो अपने माँ को खेती में मदद भी करती थी. ताजुब की बात तो ये हैं कि एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी होने के बावजूद निक्की आज भी समय मिलने पर  अपने खेत में काम करने जाती हैं. 

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कैसे देखा हॉकी का सपना

एक बार निक्की के स्कूल में कुछ अंतरराष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी आए थे. यह खिलाड़ी अपने साथ पदक लेकर आए थे. पदक देख निक्की खुश हो गई और उसी वक्त सोच लिया कि वो खुद एक हॉकी खिलाड़ी बनेगी. लेकिन निक्की के लिए ये इतना आसान नहीं था, उनके पास एक हॉकी स्टिक भी नहीं थी. निक्की ने बांस से हॉकी स्टिक बनाई और खेलना शुरू किया. जिसके बाद निक्की ने 2006 में गवर्मेंट गर्ल्स हाई स्कूल में ट्रेनिंग सेन्टर जॉइन किया. इस स्कूल में दो होस्टल थे. एक स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (SAI) का होस्टल और दूसरा राज्य सरकार का. निक्की का एडमिशन SAI होस्टल में हो गया. लेकिन साल 2008 में उन्हें SAI होस्टल से निकाल दिया गया. हालांकि प्रिंसिपल और कोच के अनुरोध के बाद उन्हें स्टेट होस्टल में एक बार फिर जगह मिली. 

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खाली पेट ट्रेनिंग करने जाती थी निक्की

निक्की ने साल 2010 में ब12वीं पास की. स्कूल खत्म होने के साथ ही उन्हें स्टेट होस्टल से भी निकाल दिया गया और बताया गया कि सिर्फ ब12वीं तक ही होटल में रह सकते हैं. एक बार फिर कोच और प्रिंसिपल की मदद उन्हें होस्टल के अंदर सिर्फ रहने के लिए एक कमरा मिला, जहां निक्की खुद खाना बनाती थी. सुबह निक्की ट्रेनिंग के लिए जाती थी इसलिए नाश्ता नहीं बना पाती थी और खाली पेट ही खेलती थी. ट्रेनिंग के बाद वो खाना बनाकर खाती थी. थोड़ा आराम करने के बाद उन्हें फिर ट्रेनिंग के लिए जाना होता था. एक अच्छा खिलाड़ी बनने के लिए निक्की ने जी तोड़ मेहनत की है और धीरे धीरे कर उनकी मेहनत रंग लाई.

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कैसे बदली तकदीर?

साल 2011 में रांची में नेशनल गेम का आयोजन हुआ. निक्की का झारखंड हॉकी टीम में चयन हो गया और झारखंड ने इस टूर्नामेंट में सिल्वर मेडल जीता. ये साल निक्की के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुआ. इसके बाद इसी साल उनका राष्ट्रीय जूनियर टीम में चयन हो गया. इस तरह उन्हें पहली बार राष्ट्रीय अंडर-18 टूर्नामेंट खेलने का मौका मिला. साल 2012 में निक्की को खेल कोटे के तहत रेलवे में नौकरी मिल गई लेकिन वो जूनियर टीम से बाहर हो गई. उन्होंने मेहनत करना नहीं छोड़ा. दो बजे तक रेलवे में नौकरी करने के बाद वो ट्रेनिंग कैम्प के लिए जाती थी. भारतीय सीनियर टीम के लिए 2015 में दिल्ली में ओपन ट्रेल हुए, जिसके लिए पूरी देश से 20 खिलाड़ी पहुंचे थे. इस ट्रायल में सिर्फ निक्की का ही चयन हुआ, जिसके बाद से वो राष्ट्रीय टीम के लिए खेल रही है. 

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अब तक का सफर 

साल 2016 में निक्की को भारतीय टीम के साथ साउथ अफ्रीका के दौरे पर जाने का मौका मिला. सीनियर टीम के साथ यह उनका पहला टूर था. वो 2016 में हुए रियो ओलंपिक में भी भारतीय टीम का हिस्सा रही. वो अब तक एशियाई चैंपियन्स ट्रॉफी, एशिया कप, वर्ल्ड कप, कॉमनवेल्थ गेम्स जैसे कई बड़ी टूर्नामेंट्स में खेल चुकी हैं. निक्की पिछले साल खेले गए टोक्यो ओलंपिक (Tokyo Olympics) में भी भारतीय महिला टीम हिस्सा थी. हालांकि आज भी समय मिलने पर वो अपने खेतों में काम करती हैं. 

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इस मुकाम तक पहुंचने के लिए आज भी कई खिलाड़ियों को इसी तरह बहुत संघर्ष से गुजरना पड़ा है. ओलंपिक में एक गोल्ड मेडल के लिए टीम संघर्ष करती रहती है. जितना पैसा आज क्रिकेट में खर्च हो रहा है, उसका 20 प्रतिशत अगर हॉकी में खर्च हुआ होता तो हर ओलंपिक में हमें मेडल मिलता. आज देश में वर्ल्ड क्लास हॉकी स्टेडियम नहीं है. क्रिकेट को प्रयोजन करने के लिए कंपनियां लाइन में लगी रहती हैं. लेकिन जब राष्ट्रीय खेल कहे जाने वाले हॉकी की बात आती है तो राष्ट्रीय भावना कहीं गायब हो जाती है. जब भारतीय हॉकी टीम मेडल जीतने के करीब आ जाती है तब हमारे राजनेता चारों तरफ कैमरा लगाकर मैच देखते हैं, फिर वीडियो को ट्वीट करते हैं और एक बार फिर वो इन खिलाड़ियों के लिए गायब हो जाते हैं. 

साल 2008 के ओलंपिक में अमेरिका के माइकल फेल्प्स (Michael Phelps) ने स्विमिंग में अकेले आठ गोल्ड मेडल जीते थे. फेल्प्स का हौसला बढ़ाने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति उस वक्त स्टेडियम में बैठकर मैच देख रहे थे. क्या हमारे यहां राजनेता हॉकी मैच देखने के लिए स्टेडियम जाते हैं? खिलाड़ियों से मिलकर उनका हौसला बढ़ाते हैं. हमारे देश में ऐसा नहीं होता है. बास अगले मेडल की इंतजार किया जाता है. जब मेडल मिलने की बात आएगी तो सारे नेता जाग जाएंगे. सिर्फ नेता ही नहीं हमारे दर्शक भी कमाल के हैं. क्रिकेट के साथ करवट लेते हैं लेकिन जब हॉकी की बात आती है तो सो जाते हैं. इस देश में निक्की जैसे कई और खिलाड़ी हैं जो आज भी संघर्ष कर रहे हैं. ओडिशा के सुंदरगढ़ चले जाइए, एक से बढ़कर एक संघर्ष की कहानी सुनने के लिए मिलेगी. ओडिशा का सुंदरगढ़ हॉकी का गढ़ है. ओडिशा के जदातर खिलाड़ी यहीं से आते हैं. निक्की जैसे संघर्ष करने वाले खिलाड़ियों को सलाम. 

सुशील महापात्र की रिपोर्ट

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