BMC चुनाव में अंडरवर्ल्ड डॉन अरुण गवली ने उतारीं दो बेटियां, बाल ठाकरे से दुश्मनी ने बनाया गैंगस्टर से राजनेता

जिस गवली को ठाकरे गर्व से अपना बता रहे थे, वहीं गवली 1995 में शिव सेना के सत्ता में आने के दो साल बाद ठाकरे का दुश्मन बन गया.

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  • मुंबई महानगरपालिका चुनाव में अंडरवर्ल्ड डॉन अरुण गवली की बेटियां गीता और योगिता भायखला से चुनाव लड़ रही हैं
  • गवली ने 1997 में अखिल भारतीय सेना पार्टी बनाई थी जो शिवसेना और बाल ठाकरे के खिलाफ थी
  • गवली का गिरोह 1990 के दशक में मुंबई में हिंसा और उगाही के अपराधों में सक्रिय रहा था
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मुंबई में 15 जनवरी को होने जा रहे महानगरपालिका चुनाव के लिए अंडरवर्ल्ड डॉन अरूण गवली की दो बेटियां गीता और योगिता ने भी पर्चा भरा है. दोनों मुंबई के भायखला इलाके से चुनाव लड़ेंगीं. भायखला गवली गिरोह का गढ़ रहा है. गवली के बारे में अंडरवर्ल्ड में मशहूर है कि उसने भायखला के दगड़ी चाल में रहते हुए दुबई भागे अपने दुश्मन दाऊद इब्राहिम का जीना हराम कर दिया था. गवली को राजनीति में इसलिए उतरना पड़ा था, क्योंकि उसकी दिवंगत शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे से अदावत हो गई थी, जिनका वो कभी मुरीद हुआ करता था.

1995 के विधान सभा चुनाव प्रचार की एक सभा के दौरान बाल ठाकरे ने बड़ी शान से कहा था- “उनके पास दाऊद है तो हमारे पास गवली है. यहां "उनके” से ठाकरे का तात्पर्य कांग्रेस से था. शरद पवार समेत कांग्रेस के कुछ नेताओं पर उन दिनों दाऊद से रिश्तों के आरोप लग रहे थे. लेकिन जिस गवली को ठाकरे गर्व से अपना बता रहे थे, वहीं गवली 1995 में शिव सेना के सत्ता में आने के दो साल बाद ठाकरे का दुश्मन बन गया.

दरअसल जब 1995 में महाराष्ट्र में शिव सेना- बीजेपी की सत्ता आई तो गवली को लगा कि अब मुंबई अंडरवर्ल्ड में उसका वर्चस्व कायम हो जायेगा. जब सैंया भयै कोतवाल तो डर काहे का. गवली को उम्मीद थी कि सत्ता में अपना समर्थन करने वाली सरकार है तो वो बेरोक-टोक अपने गिरोह की गतिविधियां संचालित कर सकता है. गवली गिरोह ने बेखौफ होकर मुंबई में हिंसा का नंगा नाच करना शुरू कर दिया. न केवल गवली ने दुश्मन गिरोहों के सदस्यों को निपटाना शुरू किया, बल्कि जबरन उगाही के लिए धमकाने और हत्या करने जैसे अपराध भी बडे़ पैमाने पर करने शुरू कर दिए.

ये 90 के दशक का वो दौर था, जब मुंबई शहर पर अंडरवर्ल्ड का खौफ हावी थी. सिर्फ गवली ही नहीं बल्कि बाकी गिरोहों ने भी कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दीं थीं. गैंगस्टर्स के हौसले इतने बढ़ गए कि उन्होने ठीक पुलिस कमिश्नर के दफ्तर के बाहर एक मशहूर कपड़ों शोरूम रूपम के मालिक की हत्या कर दी. अखबारों और विपक्षी पार्टियों शहर के बिगडे़ हालात पर सरकार को आडे़ हाथों लेना शुरू किया. यहां तक कि तत्कालीन केंद्र सरकार ने भी राज्य सरकार से सफाई मांगीं.

अपनी खराब होती छवि को ठीक करने के लिए तब सरकार ने एक रणनीति अपनाई. ये रणनीति थी एनकाउंटर्स की. पुलिस की ओर से सभी गिरोहों के बडे़ बडे़ शूटरों को कथित मुठभेड़ों में मारा जाने लगा. मारे जाने वालों में उस गवली गिरोह के शूटर भी थे जिसे लग रहा था कि पुलिसिया कार्रवाई से उसे दूर रखा जाएगा.

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जब ये सारा कुछ चल रहा था, तब गवली किसी आपराधिक मामले में जेल में कैद था, लेकिन जेल अधिकारियों की मिलीभगत से वो अपना गिरोह चला रहा था. उसे अपने गिरोह के प्रति सरकार का रवैया नागवार गुजरा. इस बीच, अचानक उसका तबादला दूसरी जेल में कर दिया गया. इससे गवली को बड़ा झटका लगा. भ्रष्टाचार के बूते उसने पहली जेल में जो सिस्टम खड़ा किया था, उसे नई जेल में जाकर फिर से बनाने में वक्त लगता. गवली को खबर मिली कि उसके जेल से तबादले के पीछे जयंत जाधव नाम का शख्स है, जो बाल ठाकरे का इतना करीबी था कि उसे लोग ठाकरे का मानस पुत्र मानते थे. गुस्साए गवली ने अपने शूटरों को कहकर जाधव की हत्या करवा दी.

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जयंत जाधव की हत्या गवली की बहुत बड़ी भूल थी. इसके बाद गवली गिरोह पर मुंबई पुलिस का कहर बरपा और उसके शूटर चुन चुन कर मारे जाने लगे. गवली को लगा कि खुद अपने गिरोह को बचाए रखने के लिए सियासत से जुड़ना ही एकमात्र विकल्प है. इसलिए उसने 1997 में शिव सेना की तर्ज पर अपना राजनीतिक दल अखिल भारतीय सेना (अभासे) स्थापित किया.

अभासे के निशाने पर शिव सेना और बाल ठाकरे थे. शिव सेना के कई कार्यकर्ताओं को गवली ने अपनी पार्टी में शामिल कर लिया. साम, दाम, दंड, भेद का इस्तेमाल करते हुए उसने कई शाखा प्रमुखों को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया. कई शाखाओं पर और होटलों और बड़ी कंपनी की यूनियनों पर उसका कब्जा हो गया. एक वक्त तो ऐसा आ गया, जब लगा कि गवली मुंबई से शिव सेना को खत्म कर देगा.

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अपने अस्तिव को खतरे में पड़ता देख, शिव सेना ने गवली को खत्म करने के लिये सत्ता का पूरा इस्तेमाल किया. एक तरफ जहां मुंबई पुलिस उसके शूटरों को मार रही था तो दूसरी तरफ दुश्मन अश्विन नाईक का गिरोह उसके पार्टी पदाधिकारियों की हत्या कर रहा था. नाईक को भी ठाकरे का वरदहस्त मिला हुआ था. जब अभासे के बड़े नेता जीतेंद्र दाभोलकर की हत्या हुई तो गवली को बहुत बड़ा झटका लगा.

सत्ताधारी शिव सेना से टकराने के बावजूद गवली ने राजनीति से अपने पैर वापस नहीं खींचे. साल 2004 में विधान सभा चुनाव जीत कर वो भायखला इलाके से विधायक बन गया. अब तक राज्य से भगवा सरकार की जगह कांग्रेस-एनसीपी की सरकार आ चुकी थी, लेकिन इस सरकार ने भी गवली को समर्थन नहीं दिया. इससे पहले कि 2009 में गवली बतौर विधायक अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा कर पाता, उसे एक शिव सैनिक कमलाकर जामसांडेकर की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. इस मामले में अदालत ने उसे उम्रकैद की सजा सुनाई.

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हालांकि, गवली खुद सलाखों के पीछे था, लेकिन उसने अपनी बेटी गीता को राजनीति में लॉन्च कर दिया. साल 2007 में गीता बीएमसी चुनाव जीत कर पार्षद बन गई और उसके बाद लगातार दो और चुनाव भी जीते. गीता एक बार फिर चुनावी मैदान में है और इस बार उसकी बहन योगिता भी साथ है. गवली अब जमानत पर बाहर है लेकिन फिलहाल ये स्पष्ट नहीं कि वो बेटियों का चुनाव प्रचार करेगा. 

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