आखिर, क्‍यों STEM को समझा जाता है सिर्फ पुरुषों की फील्ड, महिलाएं भी कम नहीं...!

आमतौर पर भारतीय घरों में लड़कों से मैथ्स, साइंस की पढ़ाई करवाई जाती है, लेकिन लड़कियों पर ऐसा कोई दबाव नहीं होता. उन्हें अक्सर कहा जाता है कि वही सब्जेक्ट्स पढ़ो जो ज्यादा मुश्किल न हों. यहां तक कि लड़कियों के खिलौने आज भी घरेलू हैं और लड़कों के कामकाजी.

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नई दिल्‍ली:

क्‍या महिलाएं साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथ्स (STEM) में कमजोर होती हैं या इन विषयों में पढ़ाई नहीं कर रही हैं? ये सवाल इसलिए, क्‍योंकि नेशनल साइंस फाउंडेशन का डेटा बताता है कि ग्रेजुएशन के दौरान जहां STEM में 52 प्रतिशत महिलाएं एनरोल कराती हैं, वहीं जब बात STEM वर्कफोर्स का हिस्सा बनने की आती है, तो ये आंकड़ा 29 फीसद पर सिमट जाता है. BQ Prime की रिपोर्ट के मुताबिक, एग्जीक्यूटिव लेवल पर महज 3 प्रतिशत महिलाएं सीईओ की पोजीशन तक पहुंच पाती हैं. ऐसा नहीं है कि लड़कियां इन सब्जेक्ट्स में पढ़ाई नहीं कर रहीं. भारत में, STEM की फील्ड में ग्रेजुएट होने वालों में महिलाओं का आंकड़ा 43% है. लेकिन, सिर्फ 14 प्रतिशत हैं, जो किसी रिसर्च-डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट और यूनिवर्सिटी में साइंटिस्ट, इंजीनियर या टेक्नोलॉजिस्ट हैं. आखिर, ये स्थिति क्‍यों है...? 

स्‍कूलों में मैथ्स, साइंस पढ़ाने वाली महिला टीचर्स की भरमार, लेकिन...
अगर हम बात स्कूलों की करें, तो वहां मैथ्स, साइंस या कंप्यूटर पढ़ाने वाली महिला टीचर्स की संख्या काफी है. दरअसल, STEM सब्जेक्ट्स पढ़ने वाली महिलाओं को अक्सर टीचर बनने की सलाह दी जाती है. माना जाता है कि महिलाओं का तो काम है बच्चों को देखना, तो वो स्वाभाविक तरीके से उन्हें पढ़ा लेंगी. स्कूल टीचर तक तो सब मान्य है, लेकिन उच्च शिक्षा तक पहुंचते-पहुंचे ये फिर से पुरुषों की जागीर में तब्दील होता दिखता है. आईआईटी बॉम्बे में 143 में से सिर्फ 25 प्रोफेसर, महिलाएं हैं यानी 17.5 प्रतिशत . आईआईटी मद्रास में ये आंकड़ा 10.2 फीसद ही रह जाता है, जहां 304 में से 31 महिलाएं, प्रोफेसर की पोजीशन पर हैं. आज तक, न तो किसी आईआईटी और न ही IISc या TIFR जैसे किसी प्रतिष्ठित संस्थान में कोई महिला, डायरेक्टर बनी है.

'साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथ्स' में महिलाओं की मौजूदगी

घर से ही शुरू होती है समस्‍या!
आमतौर पर भारतीय घरों में लड़कों से मैथ्स, साइंस की पढ़ाई करवाई जाती है, लेकिन लड़कियों पर ऐसा कोई दबाव नहीं होता. उन्हें अक्सर कहा जाता है कि वही सब्जेक्ट्स पढ़ो जो ज्यादा मुश्किल न हों. यहां तक कि लड़कियों के खिलौने आज भी घरेलू हैं और लड़कों के कामकाजी. जहां पढ़ाई के साल ज्यादा दिखते हैं, वहां लड़कियों को हतोत्साहित किया जाता है. जब तक कि वो बहुत होशियार न हो. यही वजह है कि जब साइंस, टेक, इंजीनियरिंग और मैथ्स से जुड़ी नौकरियों के लिए कैंडिडेट चुने जाते हैं, तो कंपनियों को लगता है कि पुरुष ये काम बेहतर ढंग से करेंगे. जब महिलाओं को हायर भी किया जाता है तो वो इंपोस्टर सिंड्रॉम से जूझती हैं. उनमें आत्मविश्वास की कमी होती है. उन्हें अलग-थलग कर दिया जाता है. कुछ ग्लोबल वर्कफोर्स स्टडी बताती हैं कि STEM फील्ड में करीब  81% महिलाओं के प्रदर्शन को मापने में लैंगिक पक्षपात किया जाता है. ज्यादातर को लगता है कि उनकी कंपनियां, उन्हें टॉप पोजीशन ऑफर नहीं करेंगी. नतीजा, सैलरी में अंतर के तौर पर भी सामने आता है. महिलाएं, पुरुषों के मुकाबले 15%-30% कम कमाती हैं. ये बाकी इंडस्ट्रीज के उलट है जहां कम से कम शुरुआत में, दोनों को बराबर सैलरी मिलती है.

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सरकार ने अपनी तरफ से महिलाओं को STEM फील्ड्स में आगे बढ़ाने के लिए कुछ कदम जरूर उठाए हैं. साइंस एंड टेक्नोलॉजी विभाग के विज्ञान ज्योति कार्यक्रम के जरिए स्कूली लड़कियों को उच्च शिक्षा के लिए STEM में जाने को प्रोत्साहित किया जाता है. इसके अलावा ट्रांसफॉर्मिंग इंस्टीट्यूशंस फॉर जेंडर एडवांसमेंट (GATI), सरकार का एक ऐसा कार्यक्रम है, जिसमें STEM फील्ड्स में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए  एक चार्टर और फ्रेमवर्क तैयार किया गया है. लेकिन, इन सबके बावजूद बदलाव आपसे ही शुरू होगा. लड़कियों को STEM सब्जेक्ट्स लेने के लिए प्रोत्साहित करें. इन विषयों को लेकर उनकी जिज्ञासा बढ़ाएं. उन्हें उच्च शिक्षा के लिए आगे बढ़ाएं.

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