दो दशक पुराने फर्जी दस्तावेज और धमकी मामले में फंसे दिल्ली पुलिस के पूर्व कमिश्नर, SC ने दिए जांच के आदेश

कथित तौर पर यह अपराध वर्ष 2000 में किया गया था और आज तक इसकी जांच नहीं होने दी गई है. पीठ ने कहा, "अगर इस तरह के अपराध की जांच नहीं की जाती है, खासकर जब सीबीआई में प्रतिनियुक्ति पर तैनात अधिकारियों की संलिप्तता हो, तो यह न्याय के साथ अन्याय होगा.

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(फाइल फोटो)
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  • SC ने दिल्ली पुलिस के पूर्व कमिश्नर के खिलाफ दो दशक पुराने फर्जी दस्तावेज और धमकी मामले की जांच आदेशित की है
  • कोर्ट ने जांच पुलिस को 3 महीने में पूरी करने और उच्च अधिकारियों को जांच में शामिल रहने का निर्देश दिया
  • मामला 2001 की घटना से जुड़ा है, जिसमें नीरज कुमार सीबीआई के संयुक्त निदेशक के पद पर थे और उन पर गंभीर आरोप हैं
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नई दिल्ली:

दिल्ली पुलिस के पूर्व कमिश्नर नीरज कुमार की सुप्रीम कोर्ट में मुश्किलें बढ़ गई हैं. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि उनके खिलाफ दर्ज दो दशक पुरान फर्जी दस्तावेज और धमकी मामले की जांच की जाएगी. सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल को तीन महीनों में जांच पूरी करने का आदेश दिया है. 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, जांच करने वालों की भी इस मामले में जांच होनी चाहिए. कोर्ट ने दिल्ली पुलिस के पूर्व कमिश्नर नीरज कुमार के खिलाफ दो दशक पुराने एक मामले में FIR की जांच करने का आदेश दिया है. इस मामले में उनके खिलाफ दस्तावेजों में हेराफेरी और आपराधिक धमकी देने के भी आरोप हैं. 

यह मामला 2001 की एक घटना से जुड़ा है जब कुमार सीबीआई में संयुक्त निदेशक के पद पर तैनात थे. दिल्ली उच्च न्यायालय ने 13 मार्च, 2019 को कुमार और तत्कालीन सीबीआई अधिकारी विनोद कुमार पांडे के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के एकल जज पीठ के 2006 के आदेश के खिलाफ अपील खारिज कर दी थी. 

अब जस्टिस मिथल और जस्टिस पी.बी. वराले की पीठ ने कहा, समय आ गया है कि कभी-कभी जांच करने वालों की भी जांच हो ताकि व्यवस्था में आम जनता का विश्वास बना रहे. दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखते हुए, शीर्ष अदालत ने मामले की जांच दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल और एसीपी रैंक से नीचे के किसी अधिकारी द्वारा न करने का निर्देश दिया है. 

हालांकि, पीठ ने निर्देश दिया है कि वे जांच में शामिल हों और जब भी बुलाया जाए, जांच अधिकारी के समक्ष उपस्थित होकर उनका सहयोग करें. यदि वे जांच में शामिल होते हैं और नियमित रूप से जांच अधिकारी के समक्ष उपस्थित होते हैं, तो उनके विरुद्ध कोई भी दंडात्मक कदम, जिसमें गिरफ्तारी भी शामिल है, तब तक नहीं उठाया जाएगा जब तक कि जांच अधिकारी यह संतुष्टि दर्ज न कर लें कि किसी भी स्तर पर हिरासत में पूछताछ आवश्यक है.  

कथित तौर पर यह अपराध वर्ष 2000 में किया गया था और आज तक इसकी जांच नहीं होने दी गई है. पीठ ने कहा, "अगर इस तरह के अपराध की जांच नहीं की जाती है, खासकर जब सीबीआई में प्रतिनियुक्ति पर तैनात अधिकारियों की संलिप्तता हो, तो यह न्याय के साथ अन्याय होगा. शीर्ष अदालत ने उस "प्रमुख कानून" को रेखांकित किया जो कहता है कि न्याय न केवल होना चाहिए, बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए.

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यह बात रिकॉर्ड में आई कि दो अलग-अलग व्यक्तियों शीश राम सैनी और विजय कुमार अग्रवाल ने 5 जुलाई, 2001 और 23 फरवरी, 2004 को पुलिस के समक्ष अलग-अलग शिकायतें दर्ज कराईं, जिनमें जांच की मांग की गई थी, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई. सैनी ने कुमार और पांडे पर दस्तावेज़ों में हेराफेरी का आरोप लगाया, जबकि अग्रवाल ने कुमार के कहने पर पांडे द्वारा उन्हें आपराधिक रूप से धमकाए जाने का आरोप लगाया.

उस समय, अग्रवाल और उनके भाई, विवादास्पद पूर्व प्रवर्तन निदेशालय अधिकारी अशोक अग्रवाल, आय से अधिक संपत्ति के एक मामले में सीबीआई द्वारा जांच की जा रही थी. शीर्ष अदालत ने बताया कि जब पुलिस अधिकारियों ने इस आधार पर उनकी शिकायतों पर विचार करने में अनिच्छा व्यक्त की कि सीबीआई अधिकारियों की जांच करना उचित नहीं है, तो शिकायतकर्ताओं ने उच्च न्यायालय का रुख किया.

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हालांकि, शीर्ष अदालत ने कहा कि दोनों अधिकारियों के खिलाफ FIR दर्ज करने से उनके प्रति कोई पूर्वाग्रह पैदा होने की संभावना नहीं है. अदालत ने कहा कि अधिकारियों को यह साबित करने के लिए जांच में भाग लेने का अधिकार होगा कि उन्होंने कोई अपराध नहीं किया है. पीठ ने कहा कि इसके बाद, जांच के दौरान एकत्रित सामग्री पर विचार करते हुए, जांच अधिकारी एक क्लोजर रिपोर्ट प्रस्तुत कर सकते हैं या आरोप पत्र दाखिल कर सकते हैं.

यदि क्लोजर रिपोर्ट दायर की जाती है और मजिस्ट्रेट द्वारा स्वीकार कर ली जाती है, तो अपीलकर्ताओं को कोई शिकायत नहीं होगी. आरोपपत्र दाखिल होने की स्थिति में, अपीलकर्ताओं को उचित मंच के समक्ष अपना पक्ष रखने का अवसर मिलेगा. हालांकि, हाईकोर्ट ने अपनी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए, दोनों अधिकारियों के विरुद्ध प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध पाए जाने पर, FIR दर्ज करने या जांच में बाधा डालना उचित नहीं समझा.

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शीर्ष न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि जांच अधिकारी, उच्च न्यायालय के किसी भी निष्कर्ष या अवलोकन से प्रभावित हुए बिना, कानून के अनुसार पूरी जांच करेंगे और इसे यथासंभव शीघ्रता से,  तीन महीने के भीतर, पूरा करेंगे, क्योंकि मामला लंबे समय से लंबित है. पीठ ने कहा कि अपीलकर्ताओं को निर्देश दिया जाता है कि वे जांच में शामिल हों और जब भी बुलाया जाए, जांच अधिकारी के समक्ष उपस्थित होकर उनका सहयोग करें. यदि वे जांच में शामिल होते हैं और नियमित रूप से जांच अधिकारी के समक्ष उपस्थित होते हैं, तो उनके विरुद्ध कोई भी दंडात्मक कदम, जिसमें गिरफ्तारी भी शामिल है, तब तक नहीं उठाया जाएगा जब तक कि जांच अधिकारी यह संतुष्टि दर्ज न कर लें कि किसी भी स्तर पर हिरासत में पूछताछ आवश्यक है.

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