Special Report : डूब जाएगी 700 साल पुरानी विरासत? जानिए क्यों पस्त हो रहे समंदर के दबंग

पानी में बढ़े प्रदूषण और समुद्र में निर्माण गतिविधियों से होने वाले कंपन के कारण मछलियां अपना स्‍थान बदल चुकी हैं. इसके कारण महाराष्‍ट्र के कोली मछुआरा समुदाय की 700 साल पुरानी विरासत पर संकट मंडरा रहा है.

विज्ञापन
Read Time: 9 mins
मुंबई:

महाराष्‍ट्र के कोली मछुआरा समुदाय का इतिहास करीब 700 साल पुराना है. प्राचीन संस्‍कृति को अपने में समेटे इस समुदाय के लोग मछली पकड़ने के पारंपरिक और इकलौते विकल्‍प को अब बोझ की तरह खींच रहे हैं. समुदाय से जुड़ी महिलाएं अपनी परेशानी को हंसते-हंसते बताती हैं, लेकिन उस हंसी के पीछे छिपा दर्द उभर ही आता है. दशकों पुरानी विरासत धीरे-धीरे डूब रही है और मछलियों को अपने जाल में फांसने वाले समंदर के दबंग मछुआरे आज खुद संकट के जाल में फंसे हैं. मछली, मछुआरे और संघर्ष को लेकर खास रिपोर्ट. 

कोली मछुआरा समुदाय से जुड़ी महिलाएं बताती हैं कि अब कुछ नहीं बचा है. मछलियां ही नहीं बची हैं. हम कर्ज में डूबे हैं. वे कहती हैं कि उनके पति काम छोड़कर पहले ही निकल गए क्‍योंकि हमारे बोट बर्बाद हो गए. वो अब किसी काम के नहीं हैं. नजदीक की मछलियां बची नहीं हैं. उन्‍होंने कहा कि हमारे बच्चे इस व्यवसाय में नहीं आएंगे. किसी तरह मजदूरी कर उन्‍हें पढ़ा रहे हैं.  

दूसरे विकल्‍पों की तलाश तेज

मछलियों को पकड़ने और उन्‍हें किनारे तक लाने का काम मछुआरे करते हैं. हालांकि उन मछलियों को बाजार तक पहुंचाने और बेचने का काम महिलाएं करती हैं. इस काम धंधे में महिलाओं की हिस्सेदारी 70 फीसदी रही है, लेकिन संकट की घड़ी में कई महिलाएं दूसरे विकल्प तलाश रही हैं. 

Advertisement

महिलाएं कहती हैं कि हमारे दौर में मौसम देखकर बताते थे कि किस मछली का मौसम है, कौनसी कितनी दूरी पर मिलेगी. अब मीलों दूर जाओ तो मछली मिलती है. इतने साधन हम गरीब लोग कहां से लाएंगे. पिछले बाजार की तुलना में हमारी कमाई आधी से भी कम रह गई है. 

Advertisement

ग्राहकों की परेशानी भी कम नहीं है. एक ग्राहक ने कहा कि मछलियां महंगी हो गई है. हम रोज के खाने वाले हैं, अब मनपसंद मछली कैसे खाएं. मनपसंद मछलियां बची भी नहीं हैं. अब पॉम्‍फ्रेट, सुरमई, टूना बहुत महंगी हो गई हैं. 

Advertisement

समुद्र में दूर निकलने की मजबूरी 

मछुआरे खाड़ियों में ही अच्छी मछलियां पकड़ लेते थे. हालांकि अब समुद्री और वायु प्रदूषण की ऐसी मार है कि उन्हें सागर में किनारे से बहुत दूर तक जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. यह दूरी इतनी होती है कि यह किसी छोटी नाव के बस की बात नहीं है. पहले अपनी छोटी नाव में 10 किलोमीटर के दायरे में ही मनपसंद मछली पकड़ने वाले मछुआरे अब 18 से 25 लोगों की एक सेना बनाकर करीब 1200 किलोमीटर दूर तक जाते हैं और कई बार श्रीलंका-पाकिस्तान की सीमा तक भी पहुंच जाते हैं. 

Advertisement
एक बोट के मालिक मछुआरे कृष्‍णा चौहान बताते हैं कि एक महीने का राशन लेकर चलते हैं. मछली पकड़कर उसे बर्फ में स्‍टोर करते हैं. करीब 20 लोग साथ होते हैं. बहुत जोखिम है, लेकिन खर्च इतना है कि मछली लेकर लौटने के लिए कई बार गुजरात की तरफ और उससे आगे निकलकर पाकिस्तान की समुद्री सीमा पर पहुंच जाते हैं. कई बार कार्रवाई भी होती है, लेकिन क्‍या करें, हर ट्रिप पर 3-4 लाख रुपये का खर्च आता है. कभी कभी तो बिना मछली लिए भी लौटना पड़ता है. 

इस बदलाव का मतलब सिर्फ ज्‍यादा मजदूरी और समुद्र में ज्‍यादा घंटे बिताना नहीं है, बल्कि लाखों का खर्च, बड़ी नावें, बर्फ का ढेर, महीने भर का राशन, कई लीटर ईंधन और पानी के साथ ढेर सारा जोखिम लादकर मछली पकड़ने के मिशन पर निकलना पड़ता है. 

मछुआरे शेखर धोरलेकर कहते हैं कि एक आदमी भी गिर गया तो उसका पूरा परिवार बर्बाद हो जाता है. कुछ हो जाए या गिर जाए तो कोई सहायता नहीं है. इसलिए कोई अब इस धंधे में रहना नहीं चाहता है. यह पूरी तरह से खत्‍म है. उन्‍होंने कहा कि सरकार हमारे लिए भी कुछ सोचे. 

50 फीसदी तक घट गई नावें 

एक फिशिंग बोट 4 लाख रुपए खर्च करने के बाद करीब 8 टन मछली लेकर लौटी है. इस कारण से क्रू खुश है. बोट ने समुद्र में 15 दिन बिताए और उसे इतनी मछलियां मिलीं. हालांकि डिमांड में रहने वाली पॉम्‍फ्रेट और सुरमई जैसी मछलियां अब लगभग किस्‍मत वालों के जाल में ही फंस रही है. 

मछुआरे सतीश कोली बताते हैं कि महंगी मछलियां ज्‍यादा नहीं मिलती हैं, लेकिन कोई बात नहीं है, खर्च निकल गया है. कई बार से खाली लौट रहे हैं. 

गहरे समुद्र में जाने की उच्च लागत और अनिश्चित पकड़ ने इस पेशे को तेजी से इतना अस्थिर बना दिया है कि मछली पड़ने वाली नावें करीब 50 फीसदी घट गई हैं. 

उत्तर भारतीय मजदूरों पर निर्भरता 

बोट मालिक धवल कोली ने बताया कि पहले डॉक पर बोट खड़ी करने की जगह नहीं थी. मैं 28 लाख रुपये के लोन में डूबा हूं. दो महीने तक बोट बंद रही और मजदूर चले गए. धवल जैसे कोली मछुआरे मछली व्यवसाय में बने हुए तो हैं लेकिन अब समंदर की गहराई की चुनौतियों से भिड़ने के लिए उत्तर भारतीय मजदूरों पर निर्भर हैं. धीरे-धीरे उत्तर भारतीय मजदूर कोली समाज के पारंपरिक व्यवसाय में जगह बना रहे हैं. 

धवल कोली ने कहा कि हमें मजदूर नहीं मिल रहे हैं. इसलिए इन्‍हें बिहार-झारखंड से लाना पड़ता है. कमाई का आधा हिस्‍सा मेरे पास और आधा हिस्‍सा यह आपस में बांटते हैं. 

उत्तर भारत के मजदूर अशोक कुमार ने कहा कि यह हमारी रोजी-रोटी है. हमें आए दो महीने हो गए हैं. हम मेहनती हैं और हर मार को सहने की ताकत रखते हैं. वहीं दीपक निषाद ने कहा कि हम जो ताकत दिखाते हैं, वो शायद कोई और नहीं दिखा पाता है. इसलिए यहां पर हमारी जरूरत है. 

प्रदूषण और कंपन के कारण बदला प्रवास 

पानी में बढ़े प्रदूषण और समुद्र में निर्माण गतिविधियों से होने वाले कंपन के कारण मछलियां बीते चार सालों में अपनी जगह बदल चुकी हैं और किनारे से बहुत दूर जा चुकी हैं, लेकिन अब धुंध ने दो-तीन हफ्तों में खेल और बिगाड़ दिया है. समुद्र के ऊपर हवा में धुंध को समुद्री कोहरा कहते हैं. ये तब बनता है जब गर्म, नम हवा ठंडे पानी के ऊपर से गुजरती है. हालांकि यह सफेद चादर जिससे मुंबई करीब महीने भर से घिरी है, यह सिर्फ कोहरा हो तो सुबह के कुछ घंटों में साफ हो जाता है, हालांकि यह चौबीसों घंटे यूं ही बना रहता है क्‍योंकि यह प्रदूषण से भरा स्मॉग है. इसके कारण मछलियां साफ और नर्म पानी की तलाश में किनारे से दूर जाती हैं और मछुआरे जोखिम उठाकर उनके पीछे-पीछे.

धुंध और ठंडे पानी को मछलियों के बदलते स्‍थान का कारण बताने वाले मछुआरों के तर्क पर मौसम विभाग के वैज्ञानिक सुनील कांबले ने अपनी बात रखी. 

क्‍या कहते हैं वैज्ञानिक? 

कांबले ने कहा कि मछलियों की दिशा बदलने के पीछे धुंध और समुद्र के पानी के तापमान का कोई कनेक्शन समझ नहीं आ रहा है. इस मौसम में किनारे के पास तो पानी तुलना में गर्म ही रहेगा जबकि किनारे से दूर पानी ठंडा होगा. गर्म पानी की तरफ किनारे से मछलियां दूर जा रही हैं, यह तर्क ठीक नहीं है. 

असल कारणों को तलाशें तो समुद्र में शहर की गंदगी घुल रही है. नालों का पानी, प्लास्टिक कचरा और उद्योग व्यवसायों से निकलने वाला जहरीला केमिकल मछलियों के दूर भगाने का मुख्य कारण है.

ठाणे क्रीक की हालत देखकर आपको यकीन नहीं होगा. करीब 37 किमी की ठाणे क्रीक में सफेद झाग को साफ देखा जा सकता है. यह पानी अरब सागर में मिलता है. कहते हैं कि वाटर ट्रीटमेंट प्‍लांट से यह पानी ट्रीट होकर यानी साफ होकर निकलता है. हालांकि इसकी हालत देखकर यह कहीं से साफ नहीं दिखता है. हर तरफ कचरा है. 

स्‍टैंडर्ड सीमा से 100% ज्‍यादा टॉक्सिक : पावर 

पर्यावरण वॉरियर नंदकुमार पावर ऐसे इलाकों का सैंपल इकट्ठा कर चुके हैं और हैरान करने वाले नतीजे आए हैं. उन्‍होंने बताया कि रिपोर्ट में आया है कि पानी के सैंपल के नतीजे स्टैंडर्ड सीमा से कई सौ फीसदी ज्‍यादा टॉक्सिक हैं. जहर से ना सिर्फ मछलियां दूर साफ पानी की तरफ जा रही हैं, बल्कि यह खुद जहरीली भी हो रही हैं. इंसानी ब्रेन में देखिए नैनो प्लास्टिक भी मिला है. स्टडी भी कहती है कितनी मछलियां खुद कैंसर का शिकार हैं, अब यह इंसान खाएगा तो कैंसर को ही निमंत्रण है तो हम जिन जालियों से मछलियां पकड़ते थे अब उन्हीं जालियों से कचरा निकालते हैं. 

मुंबई सस्‍टेनेबिलिटी सेंटर के डायरेक्‍टर ऋषि अग्रवाल ने कहा कि जल प्रदूषण का बहुत बड़ा रोल है. करीब 70 फीसदी हमें गंभीरता से इसे लेना होगा. 

पानी से केमिकल को साफ करना मुश्किल : मिश्रा 

अदाणी समूह के वॉटर ट्रीटमेंट प्रोजेक्‍ट के शोभित कुमार मिश्रा के मुताबिक, पानी में जब केमिकल घुल जाए तो साफ करना मुश्किल है. कचरा आप डालें वो बाहर या किनारे पर आएगा, केमिकल पानी में घुलेगा मछलियों को खत्म या जहरीला करेगा, इसलिए समंदर की सफाई के लिए ट्रीटमेंट प्लांट की बहुत जरूरत है. 

इन जालियों को “पर्स नेट” कहते हैं, पारंपरिक तरीकों को पीछे छोड़ अब मछुआरे इसका प्रयोग करते हैं. यह करीब 10 लाख रुपये की आती है, समंदर में बिछाकर मशीन से खींची जाती है. हालांकि ये अपने साथ छोटी मछलियों, वनस्पतियों को भी खींच लेती है जो विलुप्त होती मछलियों का अहम कारण है. 

नंदकुमार पावर कहते हैं कि यह नेट मछलियों को खत्म करता है, इतनी छोटी मछलियों को भी खींच लेता है जो मछली का विकसित रूप नहीं ले पाई हैं. इससे प्रजनन भी रुकता है. उनके प्रजनन के लिए जैसी जगह समंदर के भीतर बननी चाहिए अब सब खत्म हो रहा है तो मछलियां कैसे बढ़ेंगीं अगर बचेंगीं ही नहीं?. 

समुद्र के पास और भीतर निर्माणकार्यों, आयल ड्रिलिंग मशीनों के कंपन ने भी मछलियों को खूब डराया है. 

कंस्‍ट्रक्‍शन के कारण बिगड़े हालत : भोईर

मच्छीमार सोसाइटी कोलाबा के चेयरमैन जयेश भोईर ने कहा कि कोस्टल रोड के कंस्ट्रक्शन ने जब से हालत बिगाड़ी है, वह फिर संभली ही नहीं और खराब हो रही है. सब चौपट हो गया है. समुद्र में इतना निर्माण कार्य हो रहा है तो मछलियां कहां से बचेंगी? जैसे किसानों के लिए सोचते हैं, हमारे लिए भी सोचें. 

बाहरी दबाव, आंतरिक चुनौतियां कोली समाज को तोड़ रही हैं. समुदाय की नई पीढ़ी के युवा मछली व्यवसाय छोड़ रहे हैं, ज्‍यादा पैसे के लिए पुश्तैनी जमीनें बेच रहे हैं. अब अगर उनकी जमीनें नहीं बचेंगीं? मछलियां नहीं बचेंगीं? कोली मछुआरे नहीं बचेंगे तो क्या दशकों पुराने इस समुदाय के पारंपरिक व्यवसाय और संस्कृति को हम सिर्फ इतिहास में पढ़ेंगे? महाराष्ट्र सरकार को गंभीर सोच के साथ कदम उठाने होंगे.

Featured Video Of The Day
Supreme Court ने Allahabad High Court को लेकर ऐसा क्यों बोला, 'पता नहीं आगे क्या होगा...'