'कानूनी जरूरत' के लिए संयुक्त परिवार की संपत्ति को बेचने का अधिकार, सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला

पीठ ने फैसले में अहम टिप्पणी करते हुए कहा, "यह सर्वविदित है कि परिवार अपनी बेटियों की शादी के लिए भारी कर्ज लेते हैं और ऐसे कर्ज का परिवार की वित्तीय स्थिति पर सालों तक प्रभाव पड़ता है".

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सुप्रीम कोर्ट ने फिर से साफ किया है कि हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) के कर्ता को 'कानूनी जरूरत' के लिए संयुक्त परिवार की संपत्ति को बेचने का अधिकार है, जिसमें बेटी की शादी भी शामिल है. अदालत ने ये भी स्पष्ट किया कि अगर शादी बिक्री से पहले भी हुई है तो भी संपत्ति की बिक्री वैध रहेगी. जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने फैसले में अहम टिप्पणी करते हुए कहा, "यह सर्वविदित है कि परिवार अपनी बेटियों की शादी के लिए भारी कर्ज लेते हैं और ऐसे कर्ज का परिवार की वित्तीय स्थिति पर सालों तक प्रभाव पड़ता है".

क्या था मामला

दरअसल यह मुकदमा कर्ता यानी पिता के चार बेटों में से एक ने HUF संपत्ति की बिक्री को चुनौती देते हुए दायर किया था. उसका दावा था कि उसका पिता शराबी था और बुरी आदतों का शिकार था. इन्हीं आदतों के चलते उसने कई मौकों पर परिवार की संयुक्त संपत्ति को बेचा. जब पिता ने एक और जमीन को बेचने के लिए सौदा किया तो उसे इसका पता चला. पिता ने वादा किया था कि वो उसे भी इसकी रकम का हिस्सा देगा जो कि नहीं दिया. इस दौरान पिता की मौत हो गई.

मामला पहुंचा सुप्रीम कोर्ट

खरीदार ने कर्ता और उसकी पत्नी के इस कथन के आधार पर बिक्री का बचाव किया कि बिक्री बेटी की शादी के खर्चों को पूरा करने के लिए की गई थी. निचली अदालत ने मुकदमा खारिज कर दिया था, लेकिन उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को पलट दिया और सेल डीड को रद्द कर दिया. इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया.

जस्टिस बागची द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया कि खरीदार ने 'कानूनी आवश्यकता' साबित करने का भार सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है, क्योंकि कर्ता ने अपनी बेटी काशीबाई की शादी के खर्चों को पूरा करने के लिए संपत्ति की बिक्री की थी. अदालत ने कहा कि, "धन रसीदों पर न केवल कर्ता, बल्कि उसकी पत्नी, बेटी और दो बेटों के भी हस्ताक्षर थे, जो लेन-देन के लिए परिवार की सहमति को दर्शाते हैं. ऐसे में  हाईकोर्ट ने निचली अदालत के सुविचारित आदेश में हस्तक्षेप करके गलती की." 

अदालत ने ये दलील भी ठुकरा दी कि जमीन 1995 में बेची गई, जबकि बेटी की शादी 1991 में हो चुकी थी. अदालत ने आगे कहा कि केवल यह तथ्य कि किसी सहभागियों को प्रतिफल राशि प्राप्त नहीं हुई, कर्ता द्वारा किए गए हस्तांतरण को चुनौती देने का वैध आधार नहीं है, क्योंकि ऐसी गैर-प्राप्ति को साबित करना साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के तहत सहभागियों के विशेष ज्ञान में निहित है और यह दायित्व क्रेता पर नहीं डाला जा सकता. 

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