उच्चतम न्यायालय ने घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं के हितों की रक्षा करने वाले एक महत्वपूर्ण फैसले में बृहस्पतिवार को ‘साझा घर में रहने के अधिकार' की व्यापक व्याख्या की. न्यायालय ने कहा कि इसे केवल वास्तविक वैवाहिक आवास तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है, बल्कि संपत्ति पर अधिकार के बावजूद अन्य घरों तक विस्तारित किया जा सकता है.
न्यायमूर्ति एम आर शाह और न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना की पीठ पति की मृत्यु के उपरांत घरेलू हिंसा से पीड़ित एक महिला की याचिका पर सुनवाई कर रही थी.
इस दौरान पीठ ने भारतीय महिलाओं की उस अजीब स्थिति से निपटने की कोशिश की जो वैवाहिक आवासों से अलग जगहों पर रहती हैं, जैसे कि उनके पति का कार्यस्थल आदि. पीठ ने कहा, ‘‘ अनेक प्रकार की स्थितियां एवं परिस्थितियां हो सकती हैं और प्रत्येक महिला साझा घर में रहने के अपने अधिकार का प्रयोग कर सकती है...''
इससे पहले उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) को घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत अब तक शुरू किए गए मामलों की संख्या से अवगत कराने का निर्देश दिया था. न्यायमूर्ति यू. यू. ललित, न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट और न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा की पीठ ने कहा था कि इस संबंध में ब्योरा हासिल करने के लिए नालसा राज्य विधिक सेवा प्राधिकरणों को एक उपयुक्त प्रश्नावली भेज सकता है और आवश्यक जानकारी प्राप्त कर सकता है.
पीठ ने कहा था, ‘‘हम घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत अब तक शुरू किए गए मामलों की संख्या से अवगत कराने का राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) को निर्देश देते हैं और कितने मामलों में संरक्षण अधिकारी/सेवा प्रदाता या आश्रय गृहों की सेवाओं की जरूरत पड़ी.''
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