महाराष्ट्र के लिए परिसीमन क्यों ज़रूरी? ये है सहयोगी दलों की राय

इस मामले पर एकनाथ शिंदे वाली शिवसेना के रवींद्र वायकर ने कहा कि पीएम मोदी फिर पीएम बन रहे हैं और उनके लिए हम हर तरह की बैटिंग करने के लिए तैयार हैं. हम साथ हैं चाहे जो परिस्थिति आए.”

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एक दशक के पूर्ण बहुमत के बाद भाजपा लोकसभा चुनावों में बहुमत से चूक गई, अब उसके मुख्य एनडीए सहयोगी सत्तारूढ़ गठबंधन में प्रमुख खिलाड़ी बनकर उभरे हैं, जो आगे बीजेपी की राह में महत्वपूर्ण फ़ैसलों पर भाजपा से असहमत होने पर अपने समर्थन की समीक्षा करने में संकोच नहीं करेंगे. ऐसा ही एक अहम मुद्दा है परिसीमन का. यानी डेलिमिटेशन. 48 लोकसभा सीटों वाले राज्य महाराष्ट्र में परिसीमन की क्या अहमियत है और इस पर सहयोगी दल क्या सोचते हैं. महा-युति (महाराष्ट्र में एनडीए गठबंधन का छोटा स्वरूप) को 48 में से 17 सीटें ही लाने में कामयाबी मिली जबकि चाहत चालीस पार की थी. आगे के सफ़र में ये साथ कितना अटूट रहेगा...अब इसकी रह-रहकर परीक्षा होगी. परिसीमन की चर्चा शुरू होने से पहले ही दक्षिणी राज्यों से विरोध के सुर उठे थे. अब 2026 में अगर परिसीमन हुआ तो क्या एनडीए के गुलदस्ते में शामिल दल साथ देंगे?

अजीत पवार गुट ने कहा- इस पर काम हो, हम साथ हैं

अजीत पवार वाली एनसीपी कहती है कि महाराष्ट्र जैसे राज्य के किए परिसीमन बेहद ज़रूरी है. अजीत पवार गुट के उमेश पाटिल ने कहा कि आज लोकसभा क्षेत्र में 20-22 लाख वोटर वोट करते हैं, एक एमपी उनको न्याय नहीं दे पाता है. इसलिए ज़रूरी है कि पुनर्रचना होनी चाहिए.अभी 6 विधानसभा का एक लोकसभा क्षेत्र बनता है जो बहुत बड़ा है. आबादी और भौगोलिक क्षेत्र दोनों का तालमेल हो, इसलिए परिसीमन आयोग इस पर विचार विमर्श कर देशभर की स्थिति को देखते हुए इसमें सुधार करे. जल्द आयोग का गठन हो. 2026 में पहले के तय क़ानून ख़त्म होने की समय सीमा है इस पर किसी भी हाल में आयोग को गठित कर इस पर काम हो, हम साथ हैं.”

एकनाथ शिंदे गुट ने भी किया साथ का वादा

शिंदे की शिवसेना भी फिलहाल सुर से सुर मिला रही है.  रवींद्र वायकर ने कहा कि पीएम मोदी फिर पीएम बन रहे हैं और उनके लिए हम हर तरह की बैटिंग करने के लिए तैयार हैं. हम साथ हैं चाहे जो परिस्थिति आए.”

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 जानें क्या है परिसीमन का अर्थ 

लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों की सीमा तय करने की प्रक्रिया जिसके लिए आयोग बनता है. पहले भी 1952, 1963, 1973 और 2002 में आयोग बन चुके हैं.लोकसभा सीटों के लिए 1976 में आखिरी बार आबादी के आधार पर परिसीमन हुआ था. अब 2026 में यही प्रक्रिया दोबारा शुरू होनी है. इतने बरसों में हिंदी पट्टी में आबादी बढ़ी है, और अगर आबादी के आधार पर परिसीमन होता है तो दक्षिण के राज्यों में लोकसभा सीटें घट जाएंगी और हिंदी पट्टी के सांसद और बढ़ेंगे, जिससे दक्षिण का प्रतिनिधित्व कम होगा. संविधान का अनुच्छेद 81 कहता है कि लोकसभा सांसदों की संख्या 550 से ज्यादा नहीं होगी हालांकि, संविधान ये भी कहता है कि हर 10 लाख आबादी पर एक सांसद होना चाहिए. राजनीतिक नजरिए से देखें तो  सवाल उठते हैं कि क्या परिसीमन से सत्तारूढ़ दलों को फायदा होगा ?

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चैलेंज क्या-क्या हैं

राजनीतिक विश्लेषक अनुराग त्रिपाठी ने बताया कि पिछला परिसीमन जब हुआ था तो कांग्रेस का रूल था, मैं पत्रकार था, कांग्रेस के समय मैंने ख़ुद देखा है कि किस तरह नेता ख़ुद निर्वाचन क्षेत्र तय करते थे, जो पार्टी सत्ता पक्ष में होती है उसे फ़ायदा तो होता ही है. अभी यहां बीजेपी है जो मौजूदा स्थिति है उसको देखते है ज़ाहिर सा दिखता है कि फिर नेता अपने हिसाब से अपनी अपना संसदीय क्षेत्र बनाएंगे. 

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दक्षिण के राज्य इस बात से चिंता में

संसद की नई इमारत की लोकसभा में 888 सांसद बैठ सकते हैं. इसी बात ने दक्षिण के राज्यों को चिंता में डाला हुआ है, क्योंकि उनको हिंदीभाषी राज्यों के मुकाबले अपनी सीटें करीब आधी हो जाने का डर है, लेकिन अभी 2021 की जनगणना नहीं हुई है. सरकार परिसीमन से पहले जनगणना कराना चाहेगी. अगर 2021 की जनगणना नहीं होती है, तो वो 2011 की जनगणना को आधार मानकर परिसीमन करा सकती है, लेकिन इसमें भी पेंच है.
 

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