खबरों की दुनिया में सूचनाएं इतनी तेजी से बदल जाती हैं कि पता ही नहीं चलता कि किस खबर का क्या हुआ. कुछ खबरों को देखकर लगता है कि देश बदला है न दिन, सब कुछ जहां था, वहीं रुका हुआ है. क्या हम एक ऐसे समय और समाज में रहने लगे हैं, जहां गृह मंत्री के लिए बोलना इतना भारी पड़ जाएगा कि उनके मंत्रालय ने 2002 के दंगों से जुड़े बलात्कार और हत्या के 11 सजायाफ्ता कैदियों की रिहाई को मंजूरी क्यों दी?
क्या अमित शाह और सरकार की चुप्पी की वजह से 2012 का यह आंदोलन भी खारिज हो जाएगा, जब निर्भया के साथ बलात्कार की घटना से सारी दिल्ली रायसीना हिल्स पर जमा हो गई. जिस जगह पर आज सेंट्रल विस्टा बना है, उसी जगह पर न जाने किन घरों से और धर्मों की लड़कियां और लड़के बलात्कार की इस घटना के खिलाफ़ सड़क पर उतर आए थे. वो लोग इस वक्त कहां हैं, जिनके गुस्से ने एक शानदार कानून बनवा दिया, निर्भया फंड बनवा दिया, क्या अब उस समय के लोगों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि गृह मंत्री अमित शाह के मंत्रालय ने हत्या और बलात्कार के 11 सज़ायाफ्ताओं को छोड़ने की मंज़ूरी दी है. क्या उनका आक्रोश अब सीमेंट बनकर सेंट्रल विस्टा में बिछ गया है, जहां दिल्ली की लड़कियां 2012 की सर्दियों में प्रदर्शन किया करती थीं? आज समाज चुप नज़र आता है इसलिए बेहतर है उस समय की लड़कियों को ही सुन लेते हैं जो निर्भया बलात्कार और हत्याकांड पर बोलने से पहले पुलिस की लाठियों की परवाह नहीं करती थीं. सर्दी के दिनों में पानी की बौछारों की परवाह नहीं करती थीं. ताकि याद रहे कि आज का समाज हमेशा मरा हुआ नहीं था, कभी ज़िंदा भी था.
तब समाज भी बोलता था, सरकार भी बोलती थी. आज सरकार से पूछते रहिए, उसके बदले गोदी मीडिया समाज को चुप करा देता है. बिलकीस बानो के केस के कवरेज़ और सवालों पर सरकार की चुप्पी को समझने के लिए आपको फ्लैशबैक में जाना ही पड़ेगा. तभी पता चलेगा कि उस समय क्या होता था.
आप जानते ही होंगे, आरके सिंह को, जो मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं, भाजपा सांसद हैं. उस समय यानी मनमोहन सिंह सरकार में गृह सचिव हुआ करते थे. आरके सिंह के बोलने पर कोई रोक नहीं थी. बल्कि जनदबाव इतना था, गुस्सा इतना था कि गृह सचिव के तौर पर आरके सिंह प्रेस कांफ्रेंस किया करते थे, इंटरव्यू दिया करते थे, भरोसा दिया करते थे. उनके साथ दिल्ली पुलिस के कमिश्नर की भी प्रेस कांफ्रेंस होती थी. जवाब दिया करते थे. आज तो ऑफ रिकार्ड भी गायब हो गया है, ऑन रिकार्ड तो शायद ही कोई ऐसे मामलों में बोलने आता है. खैर आज के गृह सचिव अजय कुमार भल्ला ही आरके सिंह की तरह बिलकीस मामले में बोल सकते थे, उन्हें इसी अगस्त में एक साल का सेवा विस्तार मिला है. जब गृह मंत्री अमित शाह नहीं बोल रहे, गृह सचिव नहीं बोल रहे तो आईए उस समय के गृह सचिव के बयानों से ही काम चलाते हैं, जब अफसर बोला करते थे.
15 अगस्त के दिन जब हत्या और बलात्कार के 11 कैदियों को छोड़ा गया, दंगाइयों को छोड़ा गया, तब उसे लेकर जो सवाल थे, काफी कम थे, वे सारे सवाल गुजरात सरकार के हलफनामे के बाद बदल गए हैं. उनका दायरा भी काफी बड़ा हो गया है. ऐसे-ऐसे दस्तावेज़ निकलकर आ रहे हैं, जिससे संदेह और भी गहरा हो रहा है कि इन्हें छोड़ा तो गया है, कानून की प्रक्रिया के नाम पर, मगर केवल कानून की प्रक्रिया के नाम पर नहीं छोड़ा गया है. बेहतर होता गृह मंत्री अमित शाह सारे सवालों के जवाब देते. वे चुप हैं, मगर ऐसा नहीं है कि वे सार्वजनिक मंचों पर सक्रिय नहीं हैं.
उनके ट्विटर हैंडल को तीन करोड़ से ज़्यादा लोग फोलो करते हैं. इतने लोगों के बीच अमित शाह मौजूद हैं. डिफेंस एक्सपो की तस्वीरें और प्रधानमंत्री के भाषण को ट्वीट कर रहे हैं. इसी में एक ट्वीट इस पर भी कर देते कि उनके मंत्रालय के फैसले को लेकर जो सवाल उठ रहे हैं, उस पर वे क्या सोच रहे हैं.
477 पन्नों का यह हलफनामा नहीं आया होता तो आप बहुत से तथ्यों के बारे में कभी नहीं जान पाते. गोदी मीडिया के इस दौर में न सवाल पूछा जाता है और न पूछने पर जवाब आता है. एक चार्ट भी हलफनामे के भीतर मिला. इससे पता चलता है कि एक को छोड़ इन सभी को 1000 दिनों से ज़्यादा ज़मानत पर रिहा किया गया. जिन्हें कानून भाषा में फरलॉ, परोल और अस्थायी ज़मानत कहते हैं. कैदी रमेश भाई चंदाना जेल से बार रहे, 4 साल से ज़्यादा. राजू सोनी 1348 दिनों तक जेल से बाहर रहे, साढ़े तीन साल से ज़्यादा. प्रदीप मोधिया 1264 दिनों तक जेल से बाहर रहे, करीब साढ़े तीन साल. दंगाइयों को हत्या और बलात्कार के मामले में सश्रम सख्त सज़ा दी जाए और साढ़े तीन साल से साढ़े चार साल परोल या फरलॉ पर ही बाहर रहना पड़े, तब क्या सज़ा का मकसद पूरा होता है?
हलफनामे से एक और ट्रेंड निकलकर आता है. रमेश भाई चंदाना एक बार फरलॉ पर बाहर आता है तो 122 दिनों की देरी से सरेंडर करता है और 2012 में परोल पर बाहर आता है तो 27 दिनों के बाद सरेंडर करता है. फिर इसका आचरण कैसे अच्छा माना गया? क्योंकि रिकार्ड बताते हैं कि परोल पर बाहर आने के बाद कैदी रमेश चंदाना ने कई बार सरेंडर करने में देरी की है. 2012 में रमेश चंदाना ने 27 दिनों की देरी से सरेंडर किया. तब परोल पर था. 2013 में 31 दिनों की देरी से सरेंडर करता है, तब फरलॉ पर बाहर था. 2014 में 8 दिनों की देरी से सरेंडर करता है, जब फरलॉ पर बाहर था. 2015 में 122 दिनों की देरी से सरेंडर करता है जब फरलॉ पर था.
फरलॉ और परोल पर कैदियों को कितने दिनों के लिए रिहा किया जाएगा, इसके नियम हर राज्य में अलग-अलग होते हैं. रमेश भाई चंदाना का रिकार्ड बताता है कि वह चार साल 90 दिनों से ज़्यादा परोल पर बाहर रहा. 2019 के बाद से वह परोल पर ज़्यादा दिनों के लिए बाहर आने लगता है. परोल और फरलॉ अलग होते हैं. 2019 में तो वह 109 दिन परोल पर बाहर रहता है, करीब चार महीने. हत्या और बलात्कार के मामले में सज़ा पाया कैदी एक साल में छह महीना बाहर रहता है? कोविड के समय यानी 5 मार्च 2020 से 31 अगस्त 2020 के बीच 180 दिनों के परोल पर बाहर आता है. 9 दिन जेल में रहता है और 9 सितंबर 2020 से लेकर 13 फरवरी 2021 के बीच 158 दिनों के लिए परोल पर बाहर आ जाता है. फिर 50-55 दिनों तक जेल में रहता है और 22 अप्रैल 2021 से 9 नवंबर 2021 के बीच 202 दिन परोल पर बाहर आ जाता है.
इस तरह रमेश चंदाना 5 मार्च 2020 से लेकर 8 अप्रैल 2022 तक परोल पर बाहर रहता है. करीब दो साल से भी ज्यादा समय तक परोल पर बाहर रहता है. क्या कोविड के नाम पर दूसरे मामलों के कैदियों के साथ इतनी मेहरबानी बरती गई? इसकी जांच होनी चाहिए? आपको याद होगा इसी दौरान, मतलब कोविड के दौरान एक डॉक्टर कफील ख़ान को कई महीने तक जेल में रहना पड़ा जबकि डॉ कफील खान ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा कि बाहर आने दीजिए ताकि कोविड के समय एक डॉक्टर के रूप में सेवा कर सकें. बाद में कोर्ट ने कहा कि कफील खान पर अवैध तरीके से NSA लगाया गया था और कफील खान को सात महीने तक जेल में रहने के बाद रिहा किया गया. तो आप देख रहे हैं कि कानून कैसे काम कर रहा है? इसलिए सवाल उठता है कि क्या इनके परोल या फरलॉ पर बाहर आने का मामला संदेहों के ऊपर है? या कुछ गड़बड़ है?
इसकी जांच होनी चाहिए कि इन्हें साढ़े तीन साल, किसी को तीन साल, किसी को साढ़े चार साल तक बाहर रहने की मेहरबानी की गई या एक सामान्य कैदी के अधिकार की तरह इन्हें ये सुविधा मिली? जब आप इस सवाल पर सोच ही रहे हैं तो इस पर भी ध्यान दे सकते हैं. इस मामले में भी हत्या और बलात्कार के मामले में सज़ा हुई है. लेकिन पॉजिटिव न्यूज़ यह है कि तमाम ट्रक, टेंपों के पीछे बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का नारा लिख दिया गया है.
चार दिन पहले डेरा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को 40 दिनों के परोल पर रिहा किया गया. इकनोमिक टाइम्स ने लिखा है कि चुनाव नज़दीक आ रहे हैं तो गुरमीत राम रहीम को छोड़ा गया है. इंडियन एक्सप्रेस ने भी लिखा है कि चुनाव के नज़दीक आते ही डेरा प्रमुख राम रहीम को परोल पर रिहा किया गया. हरियाणा में तीन नवंबर को आदमपुर में उपचुनाव है, साथ में पंचायत चुनाव भी होने हैं. राम रहीम को 2017 में सीबीआई की विशेष अदालत ने दो महिला शिष्याओं के साथ बलात्कार के मामले में सज़ा सुनाई थी. 2019 में हिरसा के बहादुर पत्रकार राम चंद्र छत्रपति जी की हत्या के मामले में सज़ा हुई. और पिछले साल डेरा के प्रबंधक रंजीत सिंह की हत्या के मामले में सज़ा हुई. इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है कि राम रहीम को 2021 में तीन बार परोल पर रिहा किया गया था. 2022 में दो बार. फरवरी में 21 दिनों के लिए और जून में एक महीने के लिए. अब फिर से 40 दिनों के लिए परोल पर छोड़ा गया है. नियम है कि साल में 90 दिनों का परोल मिल सकता है, अगर आचरण अच्छा हो.
तो हम बात कर रहे थे कि जेल सलाहकार समिति ने 2002 के गुजरात दंगों के मामले में किस तरह सज़ा पूरी होने से पहले माफी देकर छोड़े जाने की इजाज़त दी. इस 15 अगस्त को इन्हें रिहा किया तब सभी का ध्यान इसी समिति पर था. इंडियन एक्सप्रेस में बीजेपी के एक स्थानीय विधायक सीके रावजी का बयान छपा कि गोधरा जेल सलाहकार समिति ने आम सहमति से फैसला दिया था. लेकिन हलफनामे में आम सहमति की जो भाषा है उसे देखकर लग सकता है कि एक की ही सहमति की भाषा सभी सदस्य बोल रहे हैं. रमेशभाई रुपाभाई चंदाना को रिहा करते समय समिति के कई सदस्यों की भाषा एक समान लगती है. हमने रमेश भाई चंदाना के मामले में देखा, जिन्हें 1576 दिनों तक अस्थायी ज़मानत, परोल और फरलॉ पर बाहर रहने का मौक़ा मिला, 4 साल से ज़्यादा. जेल सलाहकार समिति के पांच सदस्यों की भाषा कैसे सेम टू सेम है, अंग्रेज़ी में है. क्या सभी सदस्यों को अंग्रेज़ी आती है या अनुवाद हुआ होगा, ऐसे ही एक सवाल मन में आ गया. इसमें तीन सामाजिक कार्यकर्ता हैं और दो विधायक हैं. ज़िलाधिकारी और पुलिस अफसर की भाषा इन सभी से अलग है. आप देखेंगे कि समिति के पांच सदस्यों की भाषा सेम टू सेम हैं. मगर सभी के नाम सेम टू सेम नहीं हैं. इनके नाम हैं, पवन कुमार सोनी, विनिता बेन लेले, सुमन बेन चौहान, सरदार सिंह पटेल, सी के रावजी.
रमेश भाई चंदाना के मामले में पांचों सदस्यों की भाषा एक समान है. रमेश भाई चंदाना एक बार परोल पर गए तो 122 दिन बाद आए थे. 122 दिन लेट आने पर कैसे लिखा जा सकता है कि समय पर आते थे या व्यवहार अच्छा था. क्या वाकई व्यवहार अच्छा होने के कारण इन्हें रिहा किया गया? परोल पर रिहा होने वाले कैदियों के खिलाफ थाने में जो FIR है, पुलिस के पास दो-दो शिकायतें हैं, उन्हें क्यों नज़रअदाज़ किया गया.
NDTV की रिपोर्ट है कि 2017 से 2021 के दौरान परोल पर बाहर आए चार कैदियों के खिलाफ बिलकीस बानो केस के चार अलग-अलग गवाहों की तरफ से एक मामले में FIR और दो मामले में थाने में शिकायत दर्ज कराई गई है. NDTV को मिली जानकारी के अनुसार साबरबेन पटेल नाम की गवाह ने 6 जुलाई 2020 को दाहोद के राधिकपुर थाने में दर्ज कराई थी. कैदी राधेश्याम शाह और मितेशभाई भट्ट के खिलाफ FIR हुई है. इसमें महिला की गरिमा को चोट पहुंचाने, हत्या की धमकी के मामले जोड़े गए हैं. FIR कराने वाली साबेरबेन पटेल बिलकीस बानो केस में गवाह भी हैं. उन्होंने आरोप लगाया है कि दोनों कैदियों, राधेश्याम शाह और मितेशभाई भट्ट के अलावा राधेश्याम के भाई आशीष ने सबेरा उनकी बेटी आरफा को धमकाया है. इस मामले में लिमखेड़ा कोर्ट में ट्रायल चल रहा है. यानी इस मामले में बरी होने का भी इंतज़ार नहीं किया गया.
गोधरा जेल सलाहकार समिति से लेकर गृहमंत्रालय तक ने इस FIR को किस आधार पर नज़र अंदाज़ किया? क्या इसलिए कि हत्या और बलात्कार के मामले में सज़ा पाए कैदियों के आचरण को अच्छा बताना था? यही नहीं बिलकीस मामले के एक अन्य गवाह मंसुरी अब्दुल रज़्ज़ाक़ ने एक जनवरी 2021 को दाहोद पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई है. उसमें लिखा है कि परोल पर बाहर आए एक कैदी शैलेश चिमनभाई भट्ट के साथ बीजेपी के विधायक शैलेश भाई भामोर और पूर्व राज्यमंत्री और लोकसभा सांसद जसवंत सिंह ने मंच साझा किया है. क्या आपको पता था कि हत्या और बलात्कार के मामले के कैदी के साथ बीजेपी के सांसद मंच साझा कर रहे हैं, इसकी तस्वीर भी शिकायत के साथ पुलिस को दी गई है. पुलिस को दी गई शिकायत में अब्दुल रज़्ज़ाक़ ने लिखा है कि परोल पर बाहर आए कैदी शैलेश भट्ट ने धमकी दी है. गुजरात पुलिस ने इस शिकायत को FIR में बदलने की ज़रूरत तक नहीं समझी. एक और पुलिस शिकायत है जो सज़ायाफ्ता गोविंद के खिलाफ 28 जुलाई 2017 को दर्ज कराई गई थी. आरोप लगाया था कि उन्हें समझौता करने की धमकी दी गई थी. इस शिकायत को भी FIR में नहीं बदला गया.
जांच होनी चाहिए कि बीजेपी के सांसद जसवंत सिंह और विधायक शैलेश भाई भामोर ने एक कैदी के साथ मंच साझा किया था या नहीं. क्योंकि इसकी तस्वीर शिकायत के साथ पुलिस को दी गई है? क्या दंगाइयों के साथ मंच साझा किया जा सकता है? क्या हत्या और बलात्कार के मामले में सज़ा पाए कैदी के साथ मंच साझा किया जा सकता है? पुलिस के पास यह तस्वीर है तो उसे सार्वजनिक करना चाहिए क्योंकि अगर यही तस्वीर विपक्ष के किसी नेता की होती तो गोदी मीडिया की पहली हेडलाइन होती. सवाल पूछा जा सकता है कि क्या इनकी रिहाई का संबंध गुजरात चुनाव से है, लेकिन अगर इसका जवाब हां में आ गया तो किसी भी समाज के लिए यह चिन्ता का विषय होना चाहिए कि नेता जनता के विवेक को इतना हल्का भी न समझें कि हत्या और बलात्कार के कैदी को रिहा करने को समर्थन मिल जाएगा? बसपा के सांसद दानिश अली ने इन्हीं सब राजनीतिक संदर्भो पर सवाल उठाए हैं.
हत्या और बलात्कार के मामले में जिन्हें छोड़ा गया, उसे लेकर केवल प्रशासनिक स्तर पर ही इतने सवाल उठते हैं कि धार्मिक स्तर पर जाकर राजनीतिक सवाल करने की नौबत बहुत बाद में आती है. हैरानी की बात है कि आम आदमी पार्टी ने इसे लेकर सीधा सवाल नहीं किया. सांसद संजय सिंह कह रहे हैं कि मामला सुप्रीम कोर्ट में है लेकिन जब हत्या और बलात्कार के सज़ायाफ्ता 15 अगस्त को बाहर आए थे, तब तो यह मामला सुप्रीम कोर्ट में नहीं था. और मामला भले कोर्ट में है, सारे दस्तावेज़ अब पब्लिक में हैं. क्या आम आदमी पार्टी यही पैमाना सभी मामलों में अपनाती है? आम आदमी पार्टी पर आरोप लग रहा है कि वह खास वजह से बिलकीस मामले में चुप है. क्या यह मामला केवल बिलकीस का है? महिलाओं के सम्मान का नहीं है? उससे ज्यादा गृह मंत्रालय की मंज़ूरी पर जब सवाल उठे तब आपको क्यों सुप्रीम कोर्ट का सहारा लेना पड़ रहा है?
जिन्हें रिहा किया गया वे दंगाई थे. 2002 के गुजरात दंगों के मामले में इन्हें सज़ा मिली थी. अदालत ने इन्हें दोषी करार दिया है. फिर आम आदमी पार्टी को इनकी रिहाई पर बोलने में इतना अगर मगर क्यों करना पड़ रहा है. बिलकीस बानो के बारे में सोचिए. उसके साथ बलात्कार करने वाले लोग बाहर होंगे. एक कमज़ोर महिला पर कितना मानसिक दबाव होगा. यह मामला बेशक कोर्ट में है, मगर उससे पहले ही कई सारी बातें पब्लिक में आ गई थीं. ये दस्तावेज़ कई गंभीर सवाल खड़े कर रहे हैं. कांग्रेस ने आप की चुप्पी पर सवाल उठाए हैं.
हमारे समाज में आए दिन बलात्कार की घटनाएं सामने आती रहती हैं. अगर राजनीतिक कारणों से चुप्पी साधी जाने लगे और किसी घटना को इतना राजनीतिक बना दिया जाए कि जांच और कोर्ट की सुनवाई से पहले ही आरोपी का एनकाउंटर कर दिया जाए यह ठीक नहीं. हैदराबाद वाले मामले में जांच और सुनवाई से पहले ही आरोपियों का एनकाउंटर कर दिया गया, बाद में पता चला कि एनकाउंटर फर्ज़ी था. आज ही ग़ाज़ियाबाद से बलात्कार और हत्या की खबर आई है. कथित तौर पर एक महिला को 5 लोगों ने अगवा किया, दो दिनों तक बलात्कार के बाद मार दिया. अगर इस मामले में दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालिवाल बोल सकती हैं तो बिलकीस बानो के मामले में भी बोल सकती हैं.
कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के नतीजे आ गए. इस चुनाव को लेकर खूब सवाल उठे कि चुनाव छद्म तरीके से हो रहा है. लेकिन इसी बहाने आज के दौर में देखने को मिला ही है कि कांग्रेस के भीतर दो नेता एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे और दोनों एक दूसरे के खिलाफ भी बोल रहे थे. लेकिन इस चुनाव से यह भी दिखा कि राजनीतिक दलों के भीतर आंतरिक चुनाव हो सकते हैं. अगर दिखावे के लिए हो सकता है तो दिखावे के लिए भी हो सकते हैं. यह सवाल उठाने वाले यह सवाल नहीं उठा रहे हैं कि बीजेपी से लेकर आम आदमी पार्टी में इसी तरह से चुनाव क्यों नहीं हो सकते? शशि थरूर को हराकर मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के नए अध्यक्ष बन गए हैं.
अच्छी बात है कि मध्यप्रदेश में मेडिकल की पढ़ाई हिन्दी में होगी लेकिन यह बात तब और अच्छी होती जब जांच की व्यवस्था उस जनता के लिए सुलभ होती जो हिन्दी बोलती है मगर अस्पताल पहुंचकर हिन्दी बोलती रह जाती है, इलाज नहीं मिलता और हिन्दी में ही मर जाती है. मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में एक पिता अपने नवजात शिशु को बाइक की डिक्की में बिठाकर लाया. उसका बच्चा मर गया था, क्योंकि इलाज नहीं मिला, वह कलेक्टर को उसका मुर्दा जिस्म दिखाने लाया था. पूरी घटना हिन्दी में ही दर्ज हुई है.
हिन्दी प्रदेशों को केवल हिन्दी नहीं चाहिए. हिन्दी भी चाहिए मगर हिन्दी के साथ हिन्दी में जीवन का सम्मान भी चाहिए और अवसर भी. बाकी आप दर्शकों को हिन्दी की कमी नहीं, यह कार्यक्रम तो हिन्दी में ही है.