राज ठाकरे का राजनीतिक यू-टर्न, क्या भाई उद्धव का साथ बचा पाएगा MNS का डूबता जहाज?

विधानसभा चुनाव में शर्मनाक हार के बाद कई जानकारों ने राज ठाकरे का राजनीतिक अध्याय समाप्त मान लिया था लेकिन राजनीति संभावनाओं का खेल है. आगामी BMC चुनाव उनके लिए संजीवनी साबित हो सकते हैं.

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  • एक दौर था, जब राज ठाकरे को महाराष्ट्र की राजनीति का अगला 'शिखर पुरुष' माना जाता था.
  • विचारधारा के अंतहीन कन्फ्यूजन ने ने राज ठाकरे की साख को कमजोर करने का काम किया है.
  • राज ठाकरे का राजनीतिक अध्याय समाप्त मान लिया गया था, लेकिन राजनीति संभावनाओं का खेल है.
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मुंबई:

महाराष्ट्र की राजनीति में राज ठाकरे पिछले तीन दशकों से ऐसा नाम रहे हैं, जिनकी एक आवाज पर मुंबई थम जाया करती थी. अपनी बात कहने की बेहतरीन शैली और बाला साहब ठाकरे जैसी छवि के कारण उन्हें महाराष्ट्र की राजनीति का अगला 'शिखर पुरुष' माना जाता था. लेकिन, विधानसभा चुनावों में मिली करारी हार ने उनकी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) को हाशिए पर धकेल दिया. अब करीब 20 साल के बाद अपनी पार्टी का अस्तित्व बचाने के लिए उन्होंने चचेरे भाई उद्धव ठाकरे से हाथ मिलाया है. ये वही उद्धव हैं, जो एक साल पहले तक राज ठाकरे के सबसे कट्टर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे.

आखिर ऐसा क्या हुआ कि 2009 के चुनाव में 13 सीटें जीतकर धमाका करने वाली, और उद्धव ठाकरे की शिवसेना के लिए एक वक्त बड़ी चुनौती बनने वाली राज ठाकरे की मनसे इस वक्त शून्य पर सिमट गई है? उनके वर्षों के राजनीतिक सफर और करीबी सहयोगियों से बातचीत के आधार पर इसके तीन प्रमुख कारण सामने आते हैं:

1. विचारधारा का अंतहीन कन्फ्यूजन

2005 में जब राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़ी और अपनी खुद की पार्टी बनाई, तो उन्होंने मराठी मानुष का झंडा बुलंद किया. उत्तर भारतीयों के खिलाफ उग्र तेवरों ने उन्हें रातों-रात चर्चा में ला दिया. 2008 के दंगों और उनकी गिरफ्तारी ने उन्हें मराठी हृदय सम्राट के रूप में पेश किया. उन्होंने कहा था कि उनकी एकमात्र निष्ठा 'महाराष्ट्र धर्म' के प्रति है और वह सांप्रदायिक राजनीति से दूर रहेंगे.

लेकिन जनवरी 2020 में उन्होंने अचानक रास्ता बदला और हिंदुत्व की राह पकड़ ली. पार्टी का झंडा केसरिया हो गया और मस्जिदों के लाउडस्पीकर के खिलाफ हनुमान चालीसा का पाठ शुरू हुआ. उनके समर्थक उन्हें हिंदू जन नायक और हिंदू हृदय सम्राट बुलाने लगे. अब बीएमसी चुनावों से ठीक पहले, वह फिर से उत्तर भारतीय विरोधी रुख अपना रहे हैं. विचारधारा के इस फ्लिप-फ्लॉप ने वोटरों को भ्रमित कर दिया है. लोग यह तय नहीं कर पा रहे कि राज ठाकरे असल में किसके साथ खड़े हैं.

2. गलतियों से सबक न लेना

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर राज ठाकरे का रुख हमेशा अस्थिर रहा है. 2011 में उन्होंने गुजरात जाकर मोदी की तारीफ की, 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें समर्थन दिया और बीजेपी की तब सहयोगी शिवसेना के मुकाबले अपने कैंडिडेट उतार दिए. लेकिन 2019 में वीडियो अभियान के जरिए पीएम मोदी पर तीखे हमले किए. प्रधानमंत्री पर गुजरात का फेवर लेने का आरोप लगाया. उसके बाद फिर अचानक से 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने पीएम मोदी को बिना शर्त समर्थन देने का ऐलान कर दिया. 

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मनसे के महासचिव वागीश सारस्वत भी मानते हैं कि पार्टी के इस विरोधाभासी रुख ने नुकसान पहुंचाया. 2024 के विधानसभा चुनावों में भी इसका असर दिखा. उनका कहना है कि जब आप खुद कह रहे हैं कि महायुति सत्ता में आएगी और देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री बनेंगे, तो कोई मतदाता मनसे के उम्मीदवार को वोट क्यों देगा? कई विश्लेषक मानते हैं कि इन यू-टर्न्स ने राज ठाकरे की राजनीतिक साख को गंभीर चोट पहुंचाई है.

3. हैरान करने वाले रणनीतिक फैसले

लोकतंत्र में हर पार्टी चुनाव जीतने और सत्ता में आने के लिए लड़ती है, लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव से पहले राज ठाकरे ने घोषणा कर दी कि उनकी पार्टी विपक्ष में बैठने के लिए चुनाव लड़ रही है. इस बयान ने समर्थकों का उत्साह ठंडा कर दिया. जनता भला उस पार्टी को वोट क्यों देगी, जिसने पहले ही हार मान ली हो और सरकार बनाने का इरादा ही न रखती हो. इस तरह के बयानों में पार्टी की विश्वसनीयता को सवालों के घेरे में ला दिया.

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अब क्या वापसी मुमकिन है? 

विधानसभा चुनाव में शर्मनाक हार के बाद कई जानकारों ने राज ठाकरे का राजनीतिक अध्याय समाप्त मान लिया था. लेकिन कहते हैं न कि राजनीति संभावनाओं का खेल है. आगामी बीएमसी चुनाव उनके लिए संजीवनी साबित हो सकते हैं. उद्धव ठाकरे के साथ उनका गठबंधन मराठी वोटों के बिखराव को रोक सकता है. 16 जनवरी 2026 को जब नगर निकाय चुनावों के नतीजे आएंगे, तभी यह साफ होगा कि राज ठाकरे की वापसी हुई या वह मनसे के राजनीतिक सफर का आखिरी पड़ाव बनकर रह जाएगा.

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