Analysis : PM मोदी का रूस और ऑस्ट्रिया जाना बस संयोग नहीं, कूटनीति का ये 'कोड' समझिए

पीएम मोदी के तीसरे कार्यकाल में भारत अपनी विदेश नीति को लेकर आगे बढ़ रहा है जो उसकी अपनी है. ना तो किसी के असर के दबाव में और ना ही किसी को खुश करने की नीयत से.

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नई दिल्ली:

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रूस और ऑस्ट्रिया का दौरा कर लौट चुके हैं. तीसरे कार्यकाल में पहले द्विपक्षीय दौरे के रूप में रूस को चुनना कोई अनायास लिया गया फैसला नहीं है. और ना ही रूस के बाद ऑस्ट्रिया जाना महज एक संयोग है. इन दोनों देशों का दौरा भारत की अपनी विदेश नीति को मजबूती से आगे बढ़ाने के दो अहम पड़ाव हैं. इसे समझने की कोशिश करते हैं कैसे यूक्रेन के साथ युद्धरत रूस पर अमेरिका और पश्चिमी देशों ने भारी पाबंदी लगा रखी है. ये चाहते हैं कि दुनिया के तमाम देश उनके प्रतिबंधों को मानें और रूस को अलग-थलग करने में उनका साथ दें. लेकिन भारत, अमेरिका और पश्चिमी देशों के इशारों पर कतई नहीं चलना चाहता और ना ही चल रहा है. इसकी मोटे तौर पर दो वजह हैं. एक तो भारत की अपनी जरूरत और रूस के साथ भारत की पुरानी दोस्ती और सहयोग, दूसरा विदेश नीति में अमेरिकी चौधराहट और पश्चिमी वर्चस्व को तोड़ कर मल्टीपोलर यानि कि बहुध्रुवीय विश्वव्यवस्था की तरफ कदम.

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पहले बात भारत की जरूरत और रूस की दोस्ती की. 145 करोड़ की आबादी वाले भारत के लिए उर्जा बड़ी जरूरत है. एक ऐसे समय में जब दुनिया यूक्रेन-रूस और इजराइल-हमास जंग से जूझ रहा है, तेल की आवाजाही और आपूर्ति पर भी असर पड़ा है और उसकी कीमत बढ़ी है. इसका असर भारत पर भी पड़ना लाजिमी था. लेकिन भारत में तेल की कीमतों को कमोबेश स्थिर रखने में रूस के तेल का अहम योगदान रहा है. रूस को अलग-थलग करने और उसकी अर्थव्यवस्था को कमजोर करने के लिए पश्चिम ने रूस के तेल निर्यात पर प्रतिबंध लगाया, उसकी प्राइस कैपिंग भी की. लेकिन भारत ने रूस से तेल आयात को रोका नहीं बल्कि बढ़ा दिया. एक आंकड़े के मुताबिक, यूक्रेन युद्ध से पहले भारत रूस से 7-8 फीसदी तेल लेता था जो कि बढ़ कर 40 फीसदी तक चला गया. भारत को ये तेल भी रियायती दरों पर मिला.

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जानकारों की राय के मुताबिक, भारतीय तेल कंपनियों ने अप्रैल 2022 से मई 2024 के बीच 10 बिलियन डॉलर की बचत की. इससे भारत ने तीन मकसद साधे. कीमत को स्थिर रखते हुए उर्जा की घरेलु जरूरत पूरी की. रूस की अर्थव्यवस्था में योगदान, उसके साथ अपनी दोस्ती निभाई और अगले पांच साल में द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाकर 65 से 100 बिलियन डॉलर करने का लक्ष्य निर्धारित किया. ये रूसी अर्थव्यवस्था को पूरी तरह अपने पर आश्रित करने की फिराक में लगे चीन को भी एक संदेश दिया.

चीन रूस के तेल का 50 फीसदी तक हिस्सा खरीद रहा है. पश्चिम के कई देश चीन के मामले में कह रहे हैं कि ये 'ब्लड मनी' है. लेकिन भारत के मामले में वे नाखुशी तो जताते हैं लेकिन 'ब्लड मनी' जैसे कठोर शब्द का इस्तेमाल नहीं करते. उल्टा अमेरिका जैसे देश से इस तरह के बयान आते हैं कि रूसी कच्चा तेल रिफाइनरी में रिफाइन होने के बाद रूसी नहीं रह जाता. जाहिर सी बात है कि इस बयान में पश्चिमी देशों की वो मजबूरी भी छिपी है जो बताती है कि रिफाइनरी से निकलने के बाद कैसे कई देश उसे खरीद कर अपनी जरूरत पूरा कर रहे हैं. रूसी तेल पूरी तरह बंद कर देने से दुनिया की अर्थव्यवस्था का भट्टा बैठ जाएगा. भारत का रूस से तेल लेना इसे सहारा देता है. अंदर ही अंदर पश्चिमी देश इसे महसूस भी कर रहे हैं.

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जहां तक रूस-यूक्रेन युद्ध की बात है तो भारत पहले दिन से कहता रहा है कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है. पीएम मोदी यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की और रूस के राष्ट्रपति पुतिन से कई बार फोन पर और आमने सामने की मुलाकातों में शांति वार्ता की वकालत करते रहे हैं.

सितंबर 2022 में उन्होंने राष्ट्रपति पुतिन से मुंह पर कह दिया कि ये युद्ध का काल नहीं है. इस बार तो और साफ कर दिया कि युद्ध के मैदान से समाधान नहीं निकला करते. भारत यूएन चार्टर और किसी भी देश की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के सम्मान की बात हमेशा से करता रहा है. रूस-यूक्रेन युद्ध में आंख मूंद कर अमेरिका और पश्चिमी देशों का अनुसरण नहीं कर रहा. अपना दम दिखाते हुए अपनी बात कह रहा है. चाहे किसी को भला लगे या बुरा.

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रूस के बाद पीएम मोदी ऑस्ट्रिया क्यों गए? ये भी सोचने की बात है. एक तो 41 साल बाद भारत के किसी पीएम ने ऑस्ट्रिया का दौरा किया. ये तो पोस्टर पर छपने वाली बात हो गई. लेकिन इसका अर्थ इससे कहीं गहरा है. इस दौरे से ऑस्ट्रिया के साथ द्विपक्षीय संबंधों में एक नई गति तो आयी ही है. ये भी गौरतलब है कि आयरलैंड, साइप्रस और माल्टा के साथ ऑस्ट्रिया भी एक ऐसा यूरोपीय यूनियन का देश है जो NATO का सदस्य नहीं है. इस तरह से रूस के दौरे के बाद पीएम मोदी एक ऐसे देश के दौरे पर गए जो यूरोपीय तो है लेकिन NATO का सदस्य नहीं.

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यूक्रेन-रूस युद्ध के पीछे सबसे बड़ी वजह यूक्रेन के NATO में शामिल होने की कोशिशे हैं. ये अब भी एक बड़ा मुद्दा है. रूस NATO को फूटी आंख नहीं देखना चाहता. रूस से निकल कर पीएम मोदी किसी NATO देश जाते तो लगता कि बैलेंसिंग एक्ट कर रहे हैं. रूस को भी खुश रखने की कोशिश कर रहे हैं और NATO को भी. वो भी उस समय जब वाशिंगटन में NATO समिट चल रहा हो. वैसे पीएम मोदी ऑस्ट्रिया में भी वही बात कह आए जो उन्होंने रूस में कही, "युद्ध के मैदान से समाधान नहीं निकलता". यानि कि भारत के अप्रोच में एकरूपता है. वह फर्म है. वह पश्चिम की चिंताओं को भी समझता है लेकिन इसके किसी एक पक्षीय समाधान के फॉर्मूले को नहीं स्वीकारता. इसलिए वह रूस के साथ भी हैं और यूक्रेन में मची तबाही के खिलाफ भी है. तभी पीएम मोदी ने राष्ट्रपति पुतिन के सामने हमलों की जद में बच्चों के आने पर गंभीर चिंता जतायी क्योंकि एक दिन पहले ही कीव में बच्चों के अस्पताल पर बड़ा हमला हुआ था.

जाहिर है कि पीएम मोदी के तीसरे कार्यकाल में भारत अपनी विदेश नीति को लेकर आगे बढ़ रहा है जो उसकी अपनी है. ना तो किसी के असर के दबाव में और ना ही किसी को खुश करने की नीयत से.

अमेरिका के साथ भारत की रणनीतिक साझेदारी है. कई क्षेत्र में बहुत ही नजदीकी सहयोग है. अमेरिका भी भारत को अहम साझेदार मानता है. वो भारत पर ये जिम्मेदारी भी डालता है कि रूस को शांति के लिए मनाने की जिम्मेदारी उसकी है. भारत, अमेरिका और पश्चिम देशों के साथ संबंधों को भी पूरी तवज्जो देता है. लेकिन वह अपनी स्वतंत्र विदेश नीति लेकर किस तरह चल रहा है पीएम का रूस और आस्ट्रिया का दौरा इसका गवाह है.

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