भारत में कबूतरखानों पर कोहराम क्यों, अकबर के दरबार में थी 20 हजार कबूतरों की फौज,दिल्ली से लखनऊ तक मशहूर

भारत में कबूतरखानों को बंद करने को लेकर विवाद चल रहा है. लेकिन मुगलकाल से ब्रिटिश राज तक कबूतरबाजी का शौक था.

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Kabootarkhana pigeon house
नई दिल्ली:

Kabootarkhana: कबूतरखानों को लेकर दिल्ली से मुंबई तक कोहराम मचा है. बांबे हाईकोर्ट ने इंसानी सेहत को नुकसान का हवाला देते हुए कबूतरखानों को बंद करने, सार्वजनिक जगहों और चौराहों पर उन्हें दाना डालने की परंपरा पर रोक लगा दी है. इसको लेकर वन्यजीव प्रेमी और स्वास्थ्य को लेकर चिंतित लोग आमने सामने हैं. लेकिन क्या आपको पता है कि देश और दुनिया में कबूतरों को पालने और कबूतरबाजी का शौक करीब 5 हजार साल पुराना है. मुगलकाल से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध कबूतरों ने युद्ध और आपातकाल में संदेशवाहक की भूमिका निभाई.

मिस्र से इराक तक कबूतरों का इतिहास
कुत्ते-बिल्ली और अन्य तमाम जीवों के बाद दुनिया में कबूतरों को पालने का शौक करीब 5 हजार साल पहले शुरू हुआ. मिस्र और आज के इराक (पहले मेसोपोटामिया) के इलाके में सबसे पहले ये परंपरा शुरू हुई. मिस्र में कबूतरों को धार्मिक तौर पर पवित्र माना जाता था. यूनानी और रोमन सभ्यताओं में कबूतरों को सौंदर्य और प्रेम की देवी एफ्रोडाइट और वीनस के तौर पर पूजा जाता था. कबूतरों को संदेशवाहक के तौर पर ट्रेन किया जाने लगा. चीन, रोमन साम्राज्य से लेकर इस्लामिक शासन तक कबूतर हुकूमतों का अटूट हिस्सा रहे.

द्वितीय विश्व युद्ध में इस्तेमाल
आपदा से लेकर युद्ध काल में कबूतर सैकड़ों मील उडकर जरूरी सूचनाएं पहुंचाते थे. पहले और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भी कबूतरों के जरिये मोर्चे पर डटे अहम संदेश पहुंचाने का काम बड़े पैमाने पर हुआ. चेर एमी नाम का एक कबूतर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इतना लोकप्रिय हुआ कि उसे एक सेनानायक जैसा सम्मान दिया गया. खून से लथपथ होने के बावजूद उसने संदेश मोर्चे पर डटे सैनिकों तक पहुंचाया था. भारत और पासपड़ोस के देशों में भी कबूतरों को डाक सेवा की तरह सरकारी विभागों में भी इस्तेमाल किया गया.

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कबूतरबाजी रोमांचक खेल
मुगल शासन में अच्छी नस्लों के सुंदर कबूतरों को पालतू पक्षियों की तौर पर पाला गया.  कबूतरबाजी एक रोमांचक और शानदार खेल बना. मुगलकाल में बाबर-हुमायूं से लेकर अकबर के शासन में कबूतरबाजी चरम पर पहुंची. अकबर के दरबार में तो 20 हजार से ज्यादा कबूतरों की पूरी फौज थी.इनमें 500 के करीब खास तौर पर कबूतरबाजी के लिए प्रशिक्षित थी.कबूतरों के जरिये खास डाक सेवा चलाई जाती थी. ब्रिटिश काल और फिर आजादी के बाद भी भारत और पाकिस्तान में ये कबूतर को पालने की परंपरा परवान चढ़ी. बंगाल से लेकर ओडिशा तक कई राज्यों की पुलिस ने कबूतरों को इमरजेंसी मैसेज भेजने के लिए इस्तेमाल किया.

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मुगलकाल में कबूतरबाजी का शौक
मुगल काल में कबूतरबाजी एक शाही शौक बना. सुल्तान-बादशाह की बेगमें भी कबूतरों की दीवानी थीं. जहांगीर और अकबर जैसे मुगल शासकों ने इसे सेना का अहम हिस्सा बनाया. मुगलों के शासन में कबूतरों को जटिल कलाबाजी सिखाई जाती थीं. चर्ख यानी हवा में पूरा गोल घूम जाना और बाजी यानी हवा में पलटी मारना और गोते लगाने में कबूतरों को माहिर बनाया जाता था.

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बादाम-काजू, देसी घी और मलाई खिलाते थे
कबूतरों को बादाम-काजू, देसी घी और मलाई खिलाकर मजबूत और फुर्तीला बनाया जाता था. कबूतर पालने वालों को उस्ताद बोला जाता था. कबूतरों को सीटी-ताली और विशेष आवाज से प्रशिक्षित कर बुलाते थे.वाहू और फैंसी नस्ल के कबूतरों को ज्यादा पाला जाता था.

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पुराने शहरों में कबूतरबाजी आज भी जिंदा
पुरानी दिल्ली, अलीगढ़, लखनऊ और आगरा से लेकर हैदराबाद जैसे शहरों में कबूतरबाजी आज भी खूब होती है.सर्दियों में छतों से कबूतरों को उड़ाने और उनकी कलाबाजियों का आनंद लिया जाता था. भारत में कबूतर रेसिंग क्लब भी बने. बंगाल में सबसे पुराना कलकत्ता रेसिंग पिजंस क्लब है. यहां ट्रेन्ड कबूतरों को दौड़ में शामिल किया जाता है.

कबूतरखानों को लेकर विवाद
बांबे हाईकोर्ट ने कबूतर की बीट से होने वाली गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं को देखते हुए कबूतरखानों पर रोक का आदेश दिया है. दादर-अंधेरी से लेकर चर्चगेट तक तमाम स्थानों पर कबूतरखानों को बंद करने की बीएमसी की कार्रवाई को लेकर पशु प्रेमियों और स्वास्थ्य को लेकर चिंतित लोगों में घमासान मचा है.जैन धर्म के अनुयायियों का कहना है कि कबूतर खाना उनके लिए दाना पानी की जगह ही नहीं है. बल्कि करुणा-दया की परंपरा भी है.उसकी सिर्फ धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुंचाई जाए.

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