राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने एक फ़ेसबुक पोस्ट के जरिए बीजेपी नेता सुशील मोदी पर जमकर हमला बोला. उन्होंने लिखा कि सुशील मोदी 74 आंदोलन के नामी नेता थे. उस समय लालू यादव पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष थे, तो सुशील महासचिव. वह आंदोलन छात्रों और युवाओं का था. इसलिए लालू जी के बाद सुशील मोदी का ही नाम अख़बारों में छपता था. नीतीश कुमार या हम जैसे लोगों का नाम कम से कम आंदोलन के शुरुआती दौर में, सुशील मोदी के बनिस्बत कम जाना जाता था. आज उस आंदोलन के पचास वर्ष पूरे होने वाले हैं. इस बीच लालू यादव और नीतीश कुमार राष्ट्रीय राजनीति में दखल रखने वाले नेता की हैसियत में आ गए. लेकिन सुशील मोदी कहां तक पहुँचे! राजनीति में लालू और नीतीश के कंधे तक पहुंचने की तमन्ना रखने वाले सुशील इनके आसपास भी नहीं पहुँच पाए.
उनके अनुसार सुशील मोदी की राजनीति में कभी गंभीरता नहीं दिखी. जब 74 का आंदोलन चल रहा था उस समय कुछ लोगों को अख़बारों में छपने का गंभीर रोग था. आज जैसा टेलीविजन वाला वह जमाना नहीं था. जो कम छपते थे स्वाभाविक था कि उनमें ज़्यादा छपने वाले के विरूद्ध जलन होती थी. दो एक तो ऐसे थे जो अख़बार वालों को देने के लिए जेब में हमेशा अपना पासपोर्ट साइज़ फ़ोटो लेकर चलते थे. उन दिनों पटना से अख़बार भी कम ही छपता था. मंटु दा यानी मंटु घोष उन दिनों पीटीआई के संपादक हुआ करते थे. बहुत आदर और सम्मान था उनका. कर्पूरी जी, गफ़ूर साहब, तिवारी जी या अन्य नेताओं की भी बैठक उनके दफ़्तर में हुआ करती थी.
74 के युवा नेताओं को भी उनका बहुत स्नेह मिलता था. अक्सर यहां पीटीआई से युवा नेताओं का बयान रिलीज़ हो जाता था. एक युवा नेता इस मामले में सबसे आगे थे. अक्सर उनका बयान छप जाता था. उन पर मज़ाक़ चलता था. उनका नाम ही पड़ गया था……टोल्ड पीटीआई. वे अख़बार में उन दिनों खूब छपे लेकिन नेता नहीं बन पाए. आज सुशील मोदी की हालत उन्हीं जैसी है. रोज मीडिया में बोलना है. जब नीतीश कुमार के साथ थे तो नरेंद्र मोदी से ज़्यादा उन्हीं के क़रीब नज़र आते थे.
संभवतः इसीलिए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने बिहार के पुराने नेतृत्व को बदल दिया. सुशील दिल्ली ले जाए गए. उम्मीद थी कि वहां इनके अनुभव का इस्तेमाल होगा. लंबे समय तक बिहार के वित्त मंत्री रहे हैं. इतने तजुर्बेकार भाजपा में वहां कितने सांसद हैं ! लेकिन वहां इनके हाथ कुछ भी नहीं आया. भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व बिहार में नया नेतृत्व तैयार करना चाहता है. विपक्ष के नेता या पार्टी की अध्यक्षता की जवाबदेही नए लोगों को दी गई है. लेकिन सुशील मोदी सबके सर पर सवार हैं. नीतीश सरकार के विपक्ष में बिहार की भाजपा नहीं बल्कि सुशील मोदी ही दिखाई दे रहे हैं. बाक़ी सब को सुशील ने नेपथ्य में ढकेल दिया है.
सुशील बहुत झूठ बोलते हैं. ऐसा नहीं है कि बाक़ी सभी सत्य हरिश्चंद्र हैं. एक ही बात पर आज सुशील कुछ कह रहे हैं. उसी बात पर कल कुछ और कहेंगे. ऐसे एक दो नहीं कई उदाहरण दिए जा सकते हैं. नतीजा है कि बड़े नेता में जिस गंभीरता की लोग अपेक्षा करते हैं, वह सुशील मोदी में कहीं नज़र नहीं आता है.
सुशील मोदी के व्यक्तित्व में संवेदनशीलता शायद ना के बराबर है. जिस इंसान में मानवीय संवेदना नहीं है उसको पूर्ण इंसान नहीं माना जा सकता है. पटना के कई इलाक़े जब पानी में घिर गए थे. उस समय सुशील भी अपने राजेंद्र नगर वाले घर में फंस गए थे. तीन-चार दिन बाद इनके कहने पर ज़िला प्रशासन इनको वहां से निकाल रहा था, उस दृश्य को याद कीजिए. अपने परिवार के साथ नाव पर सुशील निकल रहे थे. इनके पड़ोसी मदद के लिए इनको आवाज़ लगा रहे थे. लेकिन ऐसा लग रहा था कि सुशील बहरे हो गए हों. किसी की आवाज़ उनके कानों में नहीं पहुंच पा रही है. ऐसी घोर अमानवीयता अपवाद ही दिखाई देती है. ऐसा मनुष्य बड़ा कैसा बन सकता है!
आज भी सुशील बिहार भाजपा को अपने गिरफ़्त में ही क़ैद रखना चाहते हैं. बिहार में नया नेतृत्व पनपे और बढ़े केंद्रीय नेतृत्व की इस मंशा को असफल करने में ही सुशील सक्रिय हैं. लालू या नीतीश के राजनीतिक सेहत पर इनके रोज़ाना बयान का कोई असर नहीं पड़ने वाला है. भले ही बिहार भाजपा का नेतृत्व सुशील मोदी के इस बेचैन सक्रियता से अपने को कुंद महसूस कर रहा हो.