वह साल 1977 था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (PM Indira Gandhi) द्वारा लगाई गई इमरजेंसी के 19 महीने बाद देश में छठा लोकसभा (Lok Sabha) चुनाव हुआ था. देशभर में तब कांग्रेस (Congress) के खिलाफ हवा थी. ऐसे में कांग्रेस के विकल्प के तौर पर बनी जनता पार्टी (Janta Party) पर लोगों ने भरोसा किया था. जनता पार्टी को उस आम चुनाव में 542 में से 295 सीटें मिली थीं, जबकि बहुमत के लिए 272 सीटों की ही दरकार थी. कांग्रेस को 198 सीटों का नुकसान हुआ था.
जनता पार्टी के नेता के रूप में 81 साल के मोरारजी देसाई (Morarji Desai) देश के पहले गैर कांग्रेसी और चौथे प्रधानमंत्री बने. उन्होंने 24 मार्च 1977 को देश की बागडोर संभाली थी. उसी साल देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सातवीं विधानसभा के लिए चुनाव हुए. इन चुनावों में भी जनता पार्टी ने बेहतरीन प्रदर्शन किया था. 425 सदस्यों वाली यूपी विधान सभा में तब जनता पार्टी ने प्रचंड बहुमत हासिल करते हुए कुल 352 सीटें जीती थीं.
लखनऊ से लेकर नई दिल्ली तक तब सियासी अटकलों का बाजार गर्म था कि राज्य का दूसरा गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री कौन होगा? इससे पहले चौधरी चरण सिंह पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बन चुके थे. उन्होंने 1967 से 1968 और फरवरी 1970 से अक्टूबर 1970 तक राज्य की कमान संभाली थी लेकिन अब केंद्र में अहम भूमिका निभा रहे थे.
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तब जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे चंद्रशेखर. जनता पार्टी का गठन 23 जनवरी, 1977 को कई दलों (भारतीय लोक दल, भारतीय क्रांति दल, स्वतंत्र पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय जनसंघ पार्टी, कांग्रेस ओ, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी आदि ) को मिलाकर हुआ था.
जब यूपी में नए मुख्यमंत्री के नामों पर मंथन हो रहा था, तभी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री राज नारायण, जिन्होंने इंदिरा गांधी को चुनावों में हराया था, जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर के पास गए और आजमगढ़ से पहली बार सांसद बने रामनरेश यादव को सीएम बनाने का प्रस्ताव दिया. रामनरेश यादव राज नारायण के काफी करीबी थे. इसके बाद दोनों नेता प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के पास गए और उन्हें भी मना लिया.
यह सब इतनी जल्दी हुआ कि किसी को कानों-कान खबर तक नहीं हुई. रामनरेश यादव को भी समझ में नहीं आया लेकिन उन्हें 22 जून, 1977 की तपती दोपहरी में बुलाकार एक सीलबंद लिफाफा थमा दिया गया और फौरन पहली ट्रेन से लखनऊ रवाना करा दिया गया. उन्हें कहा गया कि ये लिफाफा सीधे राजभवन जाकर गवर्नर को देना है.
अगले ही दिन सुबह-सुबह रामनरेश यादव लखनऊ मेल से उतरकर स्टेशन से रिक्शा लेकर राजभवन चल दिए. तभी उन्हें आकाशवाणी के निदेशक रास्ते में मिल गए और उन्हें बतौर मुख्यमंत्री बधाई देने लगे. आकाशवाणी के निदेशक ने उन्हें राजभवन तक अपनी गाड़ी में चलने का अनुरोध किया लेकिन सादा जीवन जीने वाले रामनरेश यादव ने इसे सविनय ठुकरा दिया.
बाद में उसी दिन यानी 23 जून, 1977 की शाम में रामनरेश यादव को राजभवन में राज्य के 10वें मुख्यमंत्री के पद की शपथ दिलाई गई. इसके बाद उन्होंने एटा के निधौली कलां से विधानसभा चुनाव जीता था. 25 फरवरी 1979 को यादव विधान सभा में बहुमत सिद्ध करने में असफल रहे. इसके बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था. वो करीब दो साल तक यानी 27 फरवरी, 1979 तक इस पद पर रहे. जब वो मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने राजभवन गए तब भी वो इस्तीफा देकर वापस रिक्शे पर ही अपने घर लौटे थे. इसे संयोग कहा जा सकता है या फिर रामनरेश यादव की सादगी.
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रामनरेश यादव आजमगढ़ के औंधीपुर गांव के रहने वाले थे. उनका जन्म 1 जुलाई, 1928 को हुआ था. वह लोगों के बीच बाबूजी नाम से लोकप्रिय थे. बाद में यादव ने जनता पार्टी छोड़ दी और लोकदल में शामिल हो गए. उसके बाद वो कांग्रेस में शामिल हो गए. यूपीए सरकार में उन्हें छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया था. व्यापम घोटाले में नाम आने के बाद उन्होंने 2015 में गवर्नर पद से इस्तीफा दे दिया था. लंबी बीमारी के बाद 22 नवंबर 2016 को उनका लखनऊ में निधन हो गया था.