उत्तराखंड के जोशीमठ में लोग दहशत में जिंदगी बिताने के लिए मजबूर हैं. जोशीमठ के मकानों, खेतों, सड़कों, और जमीन में दरारे आ रही हैं. ये दरारें चौड़ी और गहरी होती जा रही हैं. पिछले कई महीनों से ऐसी स्थिति बनी हुई है. 7 फरवरी 2021 के बाद से इलाके में कई दरारें दिखना शुरू हुई थीं. सरकार किसी भी तरह की तबाही से बचने के लिए कोशिश कर रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस संकट को लेकर बैठक बुलाई है. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के निर्देश पर वहां से सैंकड़ों परिवारों को सुरक्षित जगह पर पहुंचाया गया है. लेकिन सवाल यह है कि इस इलाके में ऐसी स्थिति आखिर क्यों बनी. एनडीटीवी इंडिया ने इसके लिए कई भू-वैज्ञानिकों के शोध का अध्ययन किया है.
जोशीमठ भारत-चीन सीमा के करीब स्थित है. यहां से सड़क नीती घाटी की ओर जाती है, जो सीमावर्ती इलाका है. भारत का बाड़ाहोती इलाका वहीं है, जिस पर चीन दावा करता है. इसको लेकर दोनों देशों की सेनाओं में काफी तनाव रहता है. यह इलाका सामरिक रूप से बहुत अहम है. जोशीमठ के ऊपर ही औली है, यह एक पर्यटन स्थल है. जहां लोग स्कींग के लिए जाते हैं. औली में बर्फ रहती है. यह 4 हजार मीटर से ज्यादा की ऊंचाई पर है.
जोशीमठ की बात करें तो यह पहाड़ के एक ढलान पर बसा हुआ है. जोशीमठ के सामने हाथी पर्वत है. इसके सामने से घाटियों से होता हुआ बद्रीनाथ के लिए रास्ता जाता है. दाईं ओर से फूलों की घाटी और हेमकुंड के लिए रास्ता जाता है. बद्रीनाथ, फूलों की घाटी और हेमकुंड जाने के लिए जोशीमठ से ही गुजरना होता है.
क्या है भू-वैज्ञानिकों का मत?
साल 1939 में एक वैज्ञानिक ने यह पता लगाया कि जोशीमठ एक लैंडस्लाइड पर बसा हुआ है. वह लैंडस्लाइड बहुत अस्थिर है. इसके बावजूद यहां बसावट होती रही. 7वीं शताब्दी में उत्तराखंड के कत्यूरी राजवंश ने यहां राजधानी बनाई. यहां बसावट तब से शुरू हुई. पिछले कुछ समय से आबादी बहुत ज्यादा बढ़ गई है. पहले केवल यह एक बस्ती की तरह ही था, अब यहां हजारों घर हो गए हैं. ये बहुमंजिला इमारते हैं. इन घरों को पारंपरिक शैली से नहीं बनाया गया है. ये ईंट और कंकरीट से बनाए गए हैं. भूकंप के लिहाज से यह इलाका काफी संवेदनशील है. ऐसे में ईंट और कंकरीट से घर बनाना खतरनाक है.
भूवैज्ञानिक डॉ. एसपी सती, डॉ. शुभ्रा शर्मा और नवीन जुयाल ने स्थानीय लोगों के आग्रह पर इलाके का सर्वे किया था और एक रिपोर्ट सौंपी. इन्होंने खास बात बताई है कि यहां ढलान इतने खतरनाक क्यों हैं. औली से जोशीमठ की ओर नीचे जाएंगे तो ढलान तीखे होते जा रहे हैं. ढलान तीखे होते हैं तो भूस्खलन का खतरा ज्यादा होता है. उस तीखे ढलान पर आबादी बसा देंगे तो जमीन पर बोझ बढ़ेगा. ऐसे में किसी भी भूकंपीय गतिविधी में उसके ढहने का खतरा ज्यादा होगा.
सड़कें पैदा कर रही चिंता
इसके अलावा यहां सड़कों का भी जाल बिछा हुआ है. ये सड़कें ढलान को काटकर बनाई गई हैं. इन सड़कों को चौड़ा करने का जुनून ने खतरा ज्यादा बढ़ा दिया. पिछल कुछ सालों में सड़कों को चौड़ा करने का काम हो रहा है, इसे ढलान अस्थिर हो रहे हैं. इनको स्थिर करने बजाय अंधाधुंध तरीके से कटाव किया जा रहा है. इनका मलबा नदियों में गरिता है. यह एक नया इकॉलोजिकल डिजास्टर है. जोशीमठ से पहले एक सड़क बद्रीनाथ और हेमकुंड जा रही थी. लेकिन अब जोशीमठ को बायपास करके नीचे से एक सड़क बनाई जा रही है. इसके लिए पहाड़ के तलहटी को काटा जा रहा है. इससे पहाड़ अस्थिर होता है. विस्फोट किए जा रहे हैं, जिससे चट्टान कमजोर होती है.
प्राकृतिक दरारों पर बसा है पूरा इलाका
जमीन के अंदर एक बहुत बड़ी दरार (मैन सेंट्रल थ्रस्ट- MCT)जोशीमठ के ठीक नीचे से और औली के पीछे से गुजरती है. यह हेलंग से लेकर तपोवन तक है. इसके दो छोटी दरारें वैक्रता थ्रस्ट (VT) और पिंडारी थ्रस्ट (PT) गुजर रही हैं. ये दरारे प्राकृतिक हैं. यह पूरा इलाका कुदरती तौर पर बनी दरारों के ऊपर है. हिमालय पर्वत के बनने के दौरान ये दरारें बनी थीं.
सुरंग में फंसी मशीन ने पंचर कर दिया था पानी का स्रोत
जोशीमठ के नीचे से एक लंबी सुरंग बनाई गई है. यह सुरंग वहां से शुरू होती है, जहां पिछले साल ऋषिगंगा नदी ने तबाही मचाई थी. यह सुरंग वहां से शुरू होकर हेलंग तक जाती है. इस प्रोजेक्ट के जरिए तपोवन में पानी स्टोर होगा और सुरंग के जरिए हेलंग तक पहुंचेगा. यह सुरंग करीब एक किलोमीटर की निचाई में बनाई गई है. इस सुरंग पर जमीन का पूरा दबाव है. साल 2009 में हेलंग से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर इस सुरंग में एक टनल बोरिंग मशीन फंस गई थी. इस मशीन ने जमीन के नीचे एक पानी के स्रोत को पंचर कर दिया. इसकी वजह से करीब एक महीने तक पानी रिसता रहा. यह भी कहा जा रहा है कि जोशीमठ में दरारों की एक वजह यह भी हो सकता है. इसके अलावा यह भी कहा जा रहा कि पिछले साल तपोवन में आई त्रासदी में सुरंग में जो पानी घुसा था, कहीं वो ही पानी तो अब जोशीमठ में नहीं आ रहा है.
NTPC के प्रोजेक्ट पर उठते सवाल
जोशीमठ के ऊपर संकट को लेकर वैज्ञानिको ने पहले भी चेताया था. 'करेंट साइंस' में मई 2020 में एक पेपर छपा है. यह पेपर पीयूष रौतेला और एमपीएस बिष्ट ने लिखा है. इन वैज्ञानिकों ने पहले ही बोल दिया था कि जोशीमठ और तपोवन इलाके भूगोल, पर्यावरण के हिसाब से संवेदनशील है. इन्होंने कहा था कि इसके बावजूद इस पूरे इलाके के आसपास हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजनाओं को मंजूरी दी गई. विष्णु गरुड़ भी ऐसी ही एक परियोजना है. इसकी सुरंग भौगोलिक रूप से संवेदनशील इलाके जोशीमठ के नीचे से गुजरती है. यह भी कहा गया कि एनटीपीसी के इस प्रोजेक्ट के लिए जो सर्व कराया गया, उसके लिए जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की बजाय एक प्राइवेट कंपनी की मदद ली गई. उस सर्वे में पुराने शोधों का संज्ञान ज्यादा नहीं लिया गया. शायद यही वजह है कि सुरंग को लेकर कई सवाल पैदा हो रहे हैं. इस पेपर में भी 24 दिसंबर 2009 को सुरंग में मशीन फंसने का जिक्र किया गया है.
क्या कहती है 1976 की मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट?
साल 1976 की मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट में भी ऐसी ही बातें सामने आई थीं. उस वक्त गढ़वाल के आयुक्त एमसी मिस्रा ने एक कमेटी बनाई थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि जमीन की स्थिरता की जांच के बाद ही नया निर्माण करें और ढलान से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए. चट्टानों को खोदकर या धमाका करके ना हटाया जाए. इसके अलावा कहा गया कि पूरे इलाके में भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील इलाके में पेड़ ना काटे जाएं. मारवाड़ी और जोशीमठ के बीच बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण किया जाए. पहाड़ की तलहटी पर चट्टानों को सहारा देकर मजबूत किया जाए. ताकि चट्टाने टूटे नहीं. पांच किलोमीटर के दायरे में निर्माण सामग्री ना निकाली जाए.
ऋषिगंगा की तबाही
7 फरवरी 2021 को ऋषिगंगा नदी पहाड़ से उफनती हुई आई और रास्ते में सब कुछ तहस नहस कर दिया. इसका पानी तपोवन प्रोजेक्ट में गया. यह ऋषिगंगा जाकर धौली गंगा में जाकर मिल गई. इसकी वजह से तपोवन प्रोजेक्ट तहस नहस हो गया. प्रोजेक्ट की सुरंग में पानी घुस गया था. वहां काम कर रहे कई लोगों का अभी तक पता नहीं चल पाया है. अब सवाल उठता है कि सुरंग में जो पानी घुसा था क्या वो अब रिसकर जोशीमठ में निकल रहा है. जोशीमठ में निकल रहे पानी में मिट्टी का रंग ऐसा है, जैसे बांध निर्माण के वक्त होता है. हालांकि, इसे तब तक पुष्ट तरीके से नहीं का जा सकता, जब तक इसकी और धौली गंगा के पानी की केमिकल जांच नहीं होती है.