श्यामा प्रसाद मुखर्जी से राम माधव तक, बीजेपी के ‘मिशन कश्मीर’ की पूरी कहानी

Jammu Kashmir Assembly Election 2024 : जम्मू कश्मीर में चुनाव की रणभेरी बज चुकी है. भाजपा के लिए यह चुनाव किसी भी अन्य चुनाव से ज्यादा महत्वपूर्ण है. जानिए क्यों...

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Jammu Kashmir Polls 2024 : कश्मीर का दिल जीतने की भाजपा कई पीढ़ियों से कोशिश कर रही है.

Jammu Kashmir election 2024 :जम्मू कश्मीर में फिर चुनाव होने जा रहा है. भाजपा और संघ की इस चुनाव को लेकर गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राम माधव को प्रभारी बना दिया गया है. ये वही राम माधव हैं, जिनके चलते भाजपा ने पीडीपी के साथ गठबंधन कर जम्मू कश्मीर में पहली बार सरकार बनाई. मगर ये सफर राम माधव ने शुरू नहीं किया था. इसकी शुरूआत तो कश्मीर के भारत में विलय के समय से शुरू हो गया था. वो भी भाजपा के जन्म से बहुत पहले. कश्मीर को लेकर भारत में पहली लड़ाई श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने लड़ी थी. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ही राष्ट्रीय जनसंघ की स्थापना की थी, जो आज भारतीय जनता पार्टी के रूप में देश पर जानी जाती है.  

कौन थे श्यामा प्रसाद मुखर्जी? 

श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 को एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था. इनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी बंगाल में एक शिक्षाविद् और बुद्धिजीवी के रूप में प्रसिद्ध थे. कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होने के पश्चात मुखर्जी 1923 में सेनेट के सदस्य बने. अपने पिता की मृत्यु के पश्चात, 1924 में उन्होंने कलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में नामांकन कराया. 1926 में उन्होंने इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया, जहां लिंकन्स इन से 1927 में बैरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की. 33 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए और विश्व का सबसे युवा कुलपति होने का सम्मान प्राप्त किया. श्यामा प्रसाद 1938 तक इस पद को सुशोभित करते रहे. अपने कार्यकाल में उन्होंने अनेक रचनात्मक सुधार किये तथा इस दौरान 'कोर्ट एंड काउंसिल ऑफ इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बैंगलोर' तथा इंटर यूनिवर्सिटी बोर्ड के सक्रिय सदस्य भी रहे.

कश्मीर के लिए ही हुई मौत?

कांग्रेस प्रत्याशी और कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में उन्हें बंगाल विधान परिषद का सदस्य चुना गया, किन्तु कांग्रेस द्वारा विधायिका के बहिष्कार का निर्णय लेने के पश्चात उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। बाद में डॉ. मुखर्जी स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़े और निर्वाचित हुए. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अंतरिम सरकार में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में शामिल किया. नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के बीच हुए समझौते के पश्चात 6 अप्रैल 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर-संघचालक गुरु गोलवलकर जी से परामर्श लेकर मुखर्जी ने 21 अक्टूबर 1951 को राष्ट्रीय जनसंघ की स्थापना की. 1951-52 के आम चुनावों में राष्ट्रीय जनसंघ के तीन सांसद चुने गए, जिनमें एक डॉ. मुखर्जी भी थे. तत्पश्चात उन्होंने संसद के अन्दर 32 लोकसभा और 10 राज्यसभा सांसदों के सहयोग से नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया. डॉ. मुखर्जी भारत की अखंडता और कश्मीर के विलय के दृढ़ समर्थक थे. उन्होंने अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को भारत के बाल्कनीकरण की संज्ञा दी थी. अनुच्छेद 370 के राष्ट्रघातक प्रावधानों को हटाने के लिए भारतीय जनसंघ ने हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद के साथ सत्याग्रह आरंभ किया. डॉ. मुखर्जी 11 मई 1953 को कुख्यात परमिट सिस्टम का उलंघन करके कश्मीर में प्रवेश करते हुए गिरफ्तार कर लिए गए. गिरफ्तारी के दौरान ही विषम परिस्थितियों में 23 जून, 1953 को उनका स्वर्गवास हो गया.

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कांग्रेस का विरोध जारी रहा

श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बाद जनसंघ को पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने आगे बढ़ाया. धारा 370 हटाना जनसंघ का मुख्य एजेंडा था और इसके लिए कांग्रेस को हटाना जरूरी था. इसी दौरान भारत-चीन युद्ध हुआ तो भारतीय जनसंघ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा राष्ट्रीय सुरक्षा पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की नीतियों का डटकर विरोध किया. 1967 में पहली बार भारतीय जनसंघ एवं पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नेतृत्व में भारतीय राजनीति पर लम्बे समय से बरकरार कांग्रेस का एकाधिकार टूटा, जिससे कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की पराजय हुई. सत्तर के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में निरंकुश होती जा रही कांग्रेस सरकार के विरूद्ध देश में जन-असंतोष उभरने लगा. गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन के साथ बिहार में छात्र आंदोलन शुरू हो गया. कांग्रेस ने इन आंदोलनों के दमन का रास्ता अपनाया. लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार किया तथा देशभर में कांग्रेस शासन के विरूद्ध जन-असंतोष मुखर हो उठा. 1971 में देश पर भारत-पाक युद्ध तथा बांग्लादेश में विद्रोह के परिप्रेक्ष्य में बाह्य आपातकाल लगाया गया था जो युद्ध समाप्ति के बाद भी लागू था. उसे हटाने की भी मांग तीव्र होने लगी. जनान्दोलनों से घबराकर इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने जनता की आवाज को दमनचक्र से कुचलने का प्रयास किया. 25 जून, 1975 को देश पर दूसरी बार आपातकाल भारतीय संविधान की धारा 352 के अंतर्गत ‘आंतरिक आपातकाल' के रूप में थोप दिया गया. देश के सभी बड़े नेता या तो नजरबंद कर दिये गए अथवा जेलों में डाल दिए गये.

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ऐसे हुआ जनता पार्टी में विलय

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित अनेक राष्ट्रवादी संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया. हजारों कार्यकर्ताओं को ‘मीसा' के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया. देश में लोकतंत्र पर खतरा मंडराने लगा. जनसंघर्ष को तेज किया जाने लगा और भूमिगत गतिविधियां भी तेज हो गयीं. तेज होते जनान्दोलनों से घबराकर इंदिरा गांधी ने 18 जनवरी, 1977 को लोकसभा भंग कर दी तथा नये जनादेश प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की. जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर एक नये राष्ट्रीय दल ‘जनता पार्टी' का गठन किया गया. विपक्षी दल एक मंच से चुनाव लड़े तथा चुनाव में कम समय होने के कारण ‘जनता पार्टी' का गठन पूरी तरह से राजनीतिक दल के रूप में नहीं हो पाया. आम चुनावों में कांग्रेस की करारी हार हुई तथा ‘जनता पार्टी' एवं अन्य विपक्षी पार्टियां भारी बहुमत के साथ सत्ता में आई. पूर्व घोषणा के अनुसार 1 मई, 1977 को भारतीय जनसंघ ने करीब 5000 प्रतिनिधियों के एक अधिवेशन में अपना विलय जनता पार्टी में कर दिया. सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बने और लाल कृष्ण आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने. इन दोनों ने भी कश्मीर को अपने प्रमुख एजेंडे के रूप में रखा.

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ऐसे बनी भाजपा

जनता पार्टी का प्रयोग अधिक दिनों तक नहीं चल पाया. दो-ढाई वर्षों में ही अंतर्विरोध सतह पर आने लगा. कांग्रेस ने भी जनता पार्टी को तोड़ने में राजनीतिक दांव-पेंच खेलने से परहेज नहीं किया. भारतीय जनसंघ से जनता पार्टी में आये सदस्यों को अलग-थलग करने के लिए ‘दोहरी-सदस्यता' का मामला उठाया गया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंध रखने पर आपत्तियां उठायी जानी लगीं. यह कहा गया कि जनता पार्टी के सदस्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य नहीं बन सकते. 4 अप्रैल, 1980 को जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति ने अपने सदस्यों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य होने पर प्रतिबंध लगा दिया. पूर्व के भारतीय जनसंघ से संबद्ध सदस्यों ने इसका विरोध किया और जनता पार्टी से अलग होकर 6 अप्रैल, 1980 को एक नये संगठन ‘भारतीय जनता पार्टी' की घोषणा की. इस प्रकार भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई. अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी के प्रथम अध्यक्ष निर्वाचित हुए. धारा 370 को हटाना भाजपा के मुख्य एजेंडे में तब भी रहा. 1999 में कश्मीर की मुख्य पार्टी नेशनल कांफ्रेंस भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए की केंद्र सरकार में शामिल हुई और यहीं से भाजपा का कश्मीर में दखल बढ़ गया.

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पहली बार सरकार में आए 

28 दिसंबर, 2014 को जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित हुए. जनादेश अनिश्चित था. 87 सदस्यीय विधानसभा में पीडीपी को 28, भाजपा को 25, एनसी को 15 और कांग्रेस को 12 सीटें मिलीं. पीडीपी और भाजपा ने गठबंधन के लिए बातचीत की। न्यूनतम साझा कार्यक्रम - गठबंधन के एजेंडे को अंतिम रूप देने के लिए परामर्श में दो महीने लगे. 1 मार्च, 2015 को मुफ्ती मोहम्मद सईद ने दूसरी बार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. भाजपा सरकार में शामिल हुई. 7 जनवरी, 2016 को मुफ्ती मोहम्मद सईद का नई दिल्ली के एम्स में बीमारी के कारण निधन हो गया. 8 जनवरी, 2016 को पीडीपी-भाजपा के बीच गठबंधन जारी रखने के लिए कोई समझौता नहीं हो पाने के कारण फिर से राज्यपाल शासन लागू हो गया. पीडीपी ने गठबंधन के एजेंडे के क्रियान्वयन पर आपत्ति जताई और सरकार का नेतृत्व करने में अनिच्छा दिखाई. 22 मार्च 2016 को महबूबा मुफ्ती ने नई दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की. बैठक के बाद उन्होंने घोषणा की कि वे केंद्र से मिले आश्वासनों से संतुष्ट हैं. 4 अप्रैल 2016 को महबूबा मुफ्ती ने राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. मगर 19 जून 2018 को ही ये गठबंधन टूट गया और राष्ट्रपति शासन लग गया. 

धारा 370 से मिली मुक्ति 

फिर 5 अगस्त 2019 आया और केंद्र की मोदी सरकार ने धारा 370 को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया. गृहमंत्री अमित शाह ने कश्मीर में सुरक्षा के जबर्दस्त इंतजाम किए थे. पीएम मोदी ने तब देश को संबोधित करते हुए कहा था, "मेरे प्यारे देशवासियों, एक राष्ट्र के तौर पर, एक परिवार के तौर पर, आपने, हमने, पूरे देश ने एक ऐतिहासिक फैसला लिया है. एक ऐसी व्यवस्था, जिसकी वजह से जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के हमारे भाई-बहन अनेक अधिकारों से वंचित थे, जो उनके विकास में बड़ी बाधा थी, वो अब दूर हो गई है. जो सपना सरदार पटेल का था, बाबा साहेब अंबेडकर का था, डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का था, अटल जी और करोड़ों देशभक्तों का था, वो अब पूरा हुआ है. जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में एक नए युग की शुरुआत हुई है. अब देश के सभी नागरिकों के हक भी समान हैं, दायित्व भी समान हैं. मैं जम्मू-कश्मीर के लोगों को, लद्दाख के लोगों को और प्रत्येक देशवासी को बहुत-बहुत बधाई देता हूं."

पीएम मोदी ने किया था वादा

पीएम मोदी ने आगे कहा, "अभी केंद्र शासित प्रदेशों में, अनेक ऐसी वित्तीय सुविधाएं जैसे LTC, House Rent Allowance,बच्चों की शिक्षा के लिए Education Allowance, हेल्थ स्कीम, जैसी अनेक सुविधाएं दी जाती हैं, जिनमें से अधिकांश जम्मू-कश्मीर के कर्मचारियों को नहीं मिलती. ऐसी सुविधाओं का review कराकर, जल्द ही जम्मू-कश्मीर के कर्मचारियों और वहां की पुलिस को भी ये सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी. साथियों, बहुत जल्द ही जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में सभी केंद्रीय और राज्य के रिक्त पदों को भरने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी. इससे स्थानीय नौजवानों को रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध होंगे. साथ ही केंद्र सरकार की पब्लिक सेक्टर यूनिट्स और प्राइवेट सेक्टर की बड़ी कंपनियों को भी रोजगार के नए अवसर उपलब्ध कराने के लिए, प्रोत्साहित किया जाएगा. इसके अलावा, सेना और अर्धसैनिक बलों द्वारा, स्थानीय युवाओं की भर्ती के लिए रैलियों का आयोजन किया जाएगा. सरकार द्वारा प्रधानमंत्री स्कॉलरशिप योजना का भी विस्तार किया जाएगा ताकि ज्यादा से ज्यादा विद्यार्थियों को इसका लाभ मिल सके." इसके साथ ही पीएम मोदी ने विकास की नई इबारत लिखने का वादा किया.

ऐसा लोकतंत्र कभी नहीं दिखा

2019 से 2024 के बीच पीएम मोदी की अगुवाई में केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर में विकास के काम करने में कोई कोताही नहीं की. कश्मीर में बंदूकों की जगह सूफी संगीत सुनाई देने लगा है. आतंकवाद अब आखिरी सांसें ले रहा है. लोगों का सरकार पर भरोसा बढ़ा है. लोकतंत्र में भरोसा बढ़ा है. तभी तो नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी जैसे दल जो शुरूआत में राज्य का दर्जा मिलने और 370 की वापसी तक चुनाव नहीं लड़ने की बातें करते थे, अब चुनाव लड़ रहे हैं. यहां तक की जमात-ए-इस्लामी (Jamaat-e-Islami) ने भी चुनाव लड़ने की इच्छा जताई है. हालांकि, प्रतिबंधों के कारण उसके उम्मीदवार निर्दलीय ही चुनाव में उतरेंगे. इस संगठन ने अंतिम बार साल 1987 के विधानसभा चुनाव में हिस्सा लिया था. उसके बाद से लगातार इसकी तरफ से चुनाव का बहिष्कार होता रहा है. साल 2019 में देश विरोध गतिविधियों के कारण केंद्र सरकार ने इस संगठन पर यूएपीए के तहत प्रतिबंध लगा दिया था.  27 फरवरी 2024 को केंद्र सरकार ने इस संगठन पर प्रतिबंध को अगले 5 साल तक के लिए बढ़ा दिया था. भाजपा के विकास कार्यों का ही नतीजा है कि एक समय जिस पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए कश्मीर में प्रत्याशी नहीं मिलते थे, अब उसी पार्टी से टिकट पाने के लिए झगड़े हो रहे हैं. अभी हाल में जब भाजपा ने उम्मीदवारों की सूची जारी की तो कार्यकर्ताओं ने बवाल काट दिया. अंतत: सूची वापस लेनी पड़ी. भाजपा के लिए यह सिर्फ एक चुनाव नहीं है, बल्कि उसकी वर्षों की मेहनता की सबसे बड़ी परीक्षा है. राम मंदिर से भी पहले 370 भाजपा और जनसंघ के एजेंड में सबसे पहले थी. 370 हटने के बाद अब देखना यह है कि क्या भाजपा जम्मू कश्मीर के लोगों का दिल जीत पाती है?  

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