- सिताबदियारा गांव 2 राज्यों बिहार और यूपी की सीमा पर स्थित है और तीन जिलों से जुड़ा है, लेकिन पूरी तरह उपेक्षित
- जयप्रकाश नारायण के पैतृक घर पर बना राष्ट्रीय स्मारक अधिकांश समय ताले में बंद रहता है, आम जनता के लिए अनुपलब्ध
- गांव में पुलिस चौकी है पर पुलिसकर्मी अनुपस्थित हैं, शराबबंदी का नियम केवल कागजों में लागू है, हकीकत में नहीं
अपने ही गांव की बदहाली दुनिया के सामने लाना किसी ज़ख्म को नंगा करने जैसा है. लेकिन जब हालात सहनशक्ति की आख़िरी सीमा पार कर जाएं, तो चुप रहना भी एक गुनाह लगता है. आज मैं बोल रहा हूं, इस उम्मीद में कि आने वाले चुनावों में शायद किसी नेता की लिस्ट में सिताबदियारा का नाम भी कहीं लिखा जाए. शायद मेरे गांव की कहानी भी किसी भाषण में जगह पा ले.
दो राज्यों की सरहद पर अटका एक गांव
गंगा और सरयू के संगम पर बसा सिताबदियारा- एक अनोखा गांव, जो मानो दो नदियों की तरह दो राज्यों में बंट गया हो. आधा बिहार, आधा उत्तर प्रदेश और पूरा उपेक्षित. तीन ज़िलों आरा, बलिया और छपरा की सीमाओं से जुड़ा यह गांव 28 टोलों में बंटा है. हर टोला अपने आप में एक पूरा गांव है. मैं अलेख टोला से हूं, बिहार के छपरा जिले के रिविलगंज ब्लॉक में, जहां लगभग पांच हज़ार लोग रहते हैं- उम्मीदों और उपेक्षा के बीच.
जेपी का ज़्यादातर ‘बंद' स्मारक, जैसे ताले में बंद विरासत
हमारे टोले से बस डेढ़ किलोमीटर दूर है लोकनायक जयप्रकाश नारायण का पैतृक घर. सरकारों ने मिलकर वहां राष्ट्रीय स्मारक और पुस्तकालय बनाया है. लेकिन विडंबना यह है कि वह स्मारक ज्यादातर वक्त ताले में बंद रहता है. ताला तभी खुलता है जब कोई मंत्री या बड़ा नेता आता है. बाकी दिनों में दीवारें चुपचाप खड़ी रहती हैं, जैसे खुद जेपी का सपना वहां सन्नाटे में क़ैद हो गया हो.
राम भरोसे चलती कानून व्यवस्था और शराबबंदी की हकीकत
हाल ही में गांव में एक पुलिस चौकी बनी है. लेकिन पुलिसवालों वहां से नदारद है. एक अधिकारी हुआ करते थे, करीब पांच महीने से उनका भी ट्रांसफर हो गया. अब वहां कोई नही है. अब कानून व्यवस्था का प्रतीक सब कुछ भगवान भरोसे है. बिहार में शराबबंदी है, यह सबको पता है. लेकिन सिताबदियारा में यह भी सबको पता है कि शराबबंदी किताबों में है, ज़िंदगी में नहीं. गांव वाले कहते हैं, “यहां दारू ऐसे आती है जैसे दूध वाला रोज़ सुबह पहुंचता हो.”
खंभे हैं, पर रोशनी गायब है
रात में सिताबदियारा अंधेरे में डूबा रहता है. बिजली के खंभे खड़े हैं, पर उनमें से रोशनी जैसे गायब हो गई है. 11 अक्टूबर 2011, जेपी के जन्मदिन पर, हमारे गांव ने पहली बार ढिबरी छोड़कर बल्ब की रौशनी देखी थी. उस दिन रोशनी के साथ सपने भी जले थे. लेकिन अब वो सपने बुझ चुके हैं, खंभे हैं, पर उजाला नहीं. वार्ड नंबर 10 के लिए 16 सोलर लाइटें आईं थीं, लेकिन अब तक लगी नहीं. क्यों? क्योंकि वार्ड मेम्बर डेढ़ साल से दिल्ली में हैं. यहां विकास भगवान भरोसे है, योजनाएं कागज़ पर बनती हैं, और अमल की फाइलें धूल खाती हैं.
कागज़ी तरक्की की असली कहानी
सिताबदियारा के हर कोने में “विकास” का बोर्ड तो मिलेगा, लेकिन विकास खुद लापता है.
- पानी की टंकी: वार्ड के लिए बजट आया, पर टंकी वार्ड मेंबर के घर पर बन गई.
- सड़क और पगडंडी: 15 साल पुरानी पगडंडी अब टूटी पड़ी है, मरम्मत का आश्वासन भी अब थक चुका है.
- सफाई: सरकारी कर्मचारी नियुक्त है- लेकिन दिल्ली में रहता है. गांव में कूड़ा अब भी ‘स्थायी निवासी' है.
- शौचालय और आवास योजना: कागज़ों में सैकड़ों घर और शौचालय बने हैं, पर ज़मीन पर बस नींव की ईंटें दिखाई देती हैं.
- राशन कार्ड घोटाला: बीपीएल कार्ड ऐसे बंटे जैसे किसी मेले में मुफ्त गुब्बारे- जिन्हें जरूरत नहीं, वही लाभार्थी हैं.
जेपी के गांव की अंतिम प्रार्थना
यह कहानी सिर्फ अलेख टोला की नहीं, पूरे सिताबदियारा की है. यह गांव छपरा विधानसभा और सारण लोकसभा क्षेत्र में आता है, जहां विकास का नाम तो लिया जाता है, पर उसका पता कोई नहीं जानता.
- गांववालों की बस एक प्रार्थना है:
- हमारे गांव में भी विकास की हवा बहे.
- सोलर लाइटें सच में लगें.
- चौबीसों घंटे बिजली सच में मिले.
- सड़कें घर तक आएं.
- और तरक्की कागज़ों से उतरकर ज़मीन पर दिखे.
कभी तो जेपी के गांव की भी सुनवाई हो, कभी तो सिताबदियारा भी चमके. जिसने देश को वो रोशनी दी थी, जो अब खुद अंधेरे में गुम है.














