हरियाणा में एक बार फिर से बीजेपी की सरकार बन रही है, उसे स्पष्ट बहुमत मिला है. वहीं कांग्रेस लगातार तीसरी बार सत्ता से बाहर ही रही. प्रदेश का माहौल, राजनीतिक विश्लेषकों का दावा और एग्जिट पोल के नतीजों के बाद कांग्रेस पूरी तरह आश्वस्त थी कि हरियाणा में उसका 10 सालों से चल रहा राजनीतिक वनवास समाप्त होने वाला है. पार्टी के बड़े नेता और स्टार प्रचारक राहुल गांधी ने भी चुनाव के दौरान कड़ी रैलियां की, लेकिन ये तमाम प्रयास भी कांग्रेस को जीत नहीं दिला पाई.
कांग्रेस नेता ने जिन 12 विधानसभा सीटों पर जनसभाएं की, उनमें से सिर्फ 5 सीट पर ही पार्टी को जीत मिल पाई. वहीं 4 पर बीजेपी ने जीत हासिल की. इनमें से गन्नौर, सोनीपत और बहादुरगढ़ में तो कांग्रेस को ऐसा झटका लगा कि यहां से निर्दलीय उम्मीदवार जीत गए.
गन्नौर सीट पर तो कांग्रेस प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे. मतलब, यहां पार्टी के अंदर की खेमेबाजी राहुल गांधी के प्रचार से खत्म नहीं हो पाई. राहुल गांधी ने मंच से कुमारी शैलजा और भूपेंद्र सिंह हुड्डा का हाथ मिलवाकर पार्टी के एकजुट होने का संदेश भी दिया था, लेकिन यहां ये भी काम नहीं आया.
राहुल ने महेंद्रगढ़, नूंह, सोनीपत, गोहाना, थानेसर, नारायनगढ़, बरवाला, गन्नौर, बहादुरगढ़ और असांध विधानसभा सीटों पर प्रचार किया.
वहीं हरियाणा में पीएम मोदी की सिर्फ 4 रैलियां हुईं. लेकिन, इसका व्यापक असर इस चुनाव में मतदाताओं पर पड़ता दिखा. मोदी ने 16 अगस्त को हरियाणा में चुनाव घोषणा के बाद पहली रैली 14 सितंबर को की थी. पीएम जहां चुनावी सभा की, उन सीटों पर जीत का स्ट्राइक रेट 75 प्रतिशत रहा. यानी प्रधानमंत्री की बात और उनका साथ हरियाणा के लोगों को भी भा गया.
कांग्रेस ने अपने चुनाव प्रचार अभियान में बेरोजगारी, किसानों की न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए कानूनी गारंटी की मांग, अग्निपथ सैन्य भर्ती योजना और महंगाई जैसे मुद्दे उठाकर राज्य में भाजपा की एक दशक पुरानी सरकार पर निशाना साधा था.
कांग्रेस ने हरियाणा में चुनावी कैंपेन की शुरुआत तो पूरे दमखम के साथ की थी, लेकिन धीरे-धीरे पार्टी के अंदर का अंतर्कलह खुलकर लोगों के सामने आ गया. एक तरफ पार्टी के वरिष्ठ नेता और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा का खेमा था तो दूसरी तरफ रणदीप सुरजेवाला के समर्थक. कांग्रेस पार्टी के भीतर जिसकी नाराजगी की चर्चा सबसे ज्यादा रही, वो हैं सांसद कुमारी शैलजा. जिनका खेमा अलग ही अंदाज में इस चुनाव के दौरान नजर आया. कुमारी शैलजा खुद ही लंबे समय तक पार्टी के चुनाव प्रचार से दूर रहीं और शामिल हुईं भी तो एकदम बेमन से, जिसका परिणाम चुनाव नतीजों में साफ उभरकर आया.
दरअसल, एक तरफ कांग्रेस के खिलाफ मैदान में आम आदमी पार्टी का होना कांग्रेस को परेशान कर ही रहा था, वहीं पार्टी के अंदर प्रदेश के शीर्ष नेताओं के बीच कलह ने पार्टी को और ज्यादा नुकसान पहुंचा दिया.
दलित और महिला कार्ड खेलकर, साथ ही पार्टी आलाकमान से नजदीकी बढ़ाकर कुमारी शैलजा भी सीएम की कुर्सी पर नजर टिकाए हुए थीं. ऐसे में चुनाव परिणाम से पहले ही कांग्रेस के भीतर घमासान हरियाणा में शुरू हो गया था. ऐसे में हरियाणा से विधानसभा चुनाव के जिस तरह के परिणाम आए, उसने साफ कर दिया कि यहां कांग्रेस ने ही कांग्रेस को हराया और पार्टी के अंदर की लड़ाई ने उसे सत्ता से दूर कर दिया.