17 साल बाद रिहा होगा मधुमिता शुक्ला का हत्यारा पूर्व मंत्री, क्या था मामला, कैसे हुई थी हत्या...?

अमरमणि त्रिपाठी ने भी NDTV से बातचीत में ज़ोर देकर कहा था कि वह निर्दोष हैं. उन्होंने कहा, ''मेरे परिवार और मेरा इस घटना से कोई लेना-देना नहीं है...''

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जिस वक्त मधुमिता शुक्ला की हत्या की गई थी, वह 24 वर्ष की थी, और गर्भवती थी...
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कवयित्री मधुमिता शुक्ला की 9 मई, 2003 को हत्या कर दी गई थी.
जांच में सिद्ध हुआ, मधुमिता के गर्भ में मौजूद बच्चे का पिता अमरमणि था.
अमरमणि त्रिपाठी तथा तीन अन्य को अदालत ने उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी.
नई दिल्ली:

वर्ष 2003 में कवयित्री मधुमिता शुक्ला की सनसनीखेज़ हत्या के दोषी ठहराए गए उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री और गैंगस्टर से नेता बने अमरमणि त्रिपाठी को जेल से रिहा किया जाएगा. उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने आदेश में कहा कि अमरमणि और उनकी पत्नी वर्ष 2007 से आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं, लेकिन जेल में 'अच्छे आचरण' के आधार पर उन्हें रिहा कर दिया जाएगा.

प्रदेश की तत्कालीन मायावती सरकार में मंत्री रहे अमरमणि त्रिपाठी को बहुजन समाज पार्टी प्रमुख के दाहिने हाथ के रूप में देखा जाता था और उन्होंने शुरू में दावा किया था कि इस भीषण हत्या से उनका कोई लेना-देना नहीं है. हालांकि, केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) द्वारा किए गए DNA परीक्षण के बाद उनके इंकार को खारिज कर दिया गया था, जिसमें साफ़ हुआ था कि जिस वक्त मधुमिता शुक्ला की गोली मारकर हत्या की गई थी, तब उनके गर्भ में जो बच्चा था, वह अमरमणि का ही था.

क्या था मधुमिता शुक्ला हत्याकांड...?

कविता की दुनिया में जाना-पहचाना नाम बन चुकी प्रखर कवयित्री मधुमिता शुक्ला की 9 मई, 2003 को हत्या कर दी गई थी. मधुमिता का शव लखनऊ के निशातगंज इलाके में उनके घर पर पाया गया था. मधुमिता शुक्ला 24 साल की थीं और कथित तौर पर अमरमणि त्रिपाठी की प्रेमिका थीं.

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अमरमणि त्रिपाठी उस समय तक चार बार विधायक रह चुके थे, उनके विभिन्न राजनीतिक दलों से संबंध थे और उनका काफी रसूख था. इसी वजह से सुप्रीम कोर्ट ने मामले को लखनऊ से देहरादून स्थानांतरित कर दिया था, क्योंकि मधुमिता शुक्ला के परिवार को डर था कि अमरमणि न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर सकते हैं.

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जिस वक्त मधुमिता की मौत हुई, वह गर्भवती थीं, और बच्चे का पिता अमरमणि को बताया गया, जिसकी पुष्टि CBI द्वारा की गई फोरेंसिक जांच के बाद कर दी गई. हालांकि तब अमरमणि त्रिपाठी का ख़ौफ़ इतना ज़्यादा था कि कोई गंभीर आरोप लगाना तो दूर की बात थी, कोई ख़िलाफ़ बोलने के लिए तैयार नहीं होता था.

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शुरुआत में उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी ने हत्या से कोई लेना-देना होने से इंकार किया था... 

अक्टूबर, 2007 में NDTV से बातचीत में मधुमिता शुक्ला की बहन ने अमरमणि त्रिपाठी द्वारा पैदा किए गए डर पर ज़ोर देते हुए कहा, "वह कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है... मैं बस इतना ही कह सकती हूं..." जब उनसे पूछा गया कि क्या वह अमरमणि त्रिपाठी से डरी हुई हैं, तो उन्होंने कहा, "हम इस समय मामले के बारे में और कुछ नहीं कह सकते..."

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मधुमिता की बहन ने परिवार के खिलाफ 'कभी न ख़त्म होने वाली' धमकियों की भी बात बताई और कहा कि धमकियां केस के उत्तर प्रदेश से बाहर पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में स्थानांतरित होने के बाद भी जारी हैं.

हालांकि, अमरमणि त्रिपाठी ने भी NDTV से बातचीत में ज़ोर देकर कहा था कि वह निर्दोष हैं. उन्होंने कहा, ''मेरे परिवार और मेरा इस घटना से कोई लेना-देना नहीं है...''

कैसे हुई मामले की तफ़्तीश...?

बहुजन समाज पार्टी (BSP) की मुखिया ने शुरुआती दौर में पुलिस के क्रिमिनल इन्वेस्टिगेशन डिपार्टमेंट (CID) को जांच का जिम्मा सौंपा था, लेकिन मधुमिता शुक्ला की मां की अपील के बाद मामला CBI को सौंप दिया गया था.

मधुमिता की बहन ने NDTV को बताया था, "हां, उन्होंने (मायावती ने) फोन किया था... मेरी मां ने कहा, 'अगर आप मामले की जांच CBI से कराओगे, तो सच्चाई सामने आ जाएगी... उन्होंने कहा, 'ठीक है... मैं इसके बारे में सोचूंगी...'"

आखिरकार CBI को बुलाया गया और सितंबर, 2003 में अमरमणि त्रिपाठी को गिरफ्तार कर लिया गया. हालांकि, केवल सात महीने बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अमरमणि को ज़मानत पर रिहा कर दिया.

उस वक्त तक भी इंसाफ़ की आस में भटक रहा मधुमिता शुक्ला का परिवार अपने आरोपों के साथ सार्वजनिक हुआ और सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसने मामले को देहरादून स्थानांतरित कर दिया और दैनिक सुनवाई का आदेश दिया.

छह महीने से भी कम समय में मामला ख़त्म हो गया. अभियोजन पक्ष ने 79 गवाह पेश किए, जिनमें से 12 ने गवाही दी, जबकि अमरमणि त्रिपाठी ने सिर्फ चार गवाह पेश किए.

फ़ैसला...

अमरमणि त्रिपाठी, उनकी पत्नी मधुमणि और दो अन्य - रोहित चतुर्वेदी और संतोष कुमार राय - को देहरादून की अदालत ने दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई.

पांच साल बाद उत्तराखंड हाईकोर्ट ने चारों दोषियों को दी गई सज़ा को बरकरार रखा.

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