बीकानेर हाउस में अशोक भौमिक की 'कलात्मक विरासत'... इन चित्रों में समय बोलता है

मसलन सत्तर के दशक में बनाई गई एक पेंटिंग है जिसके बारे में वे कहते हैं कि यह इमरजेंसी के दौरान बनाई गई. अचानक आपातकाल के दौरान की विभीषिका और इंदिरा गांधी की उन दिनों की छवि इस चित्र में उजागर हो उठती है. उस दौर में श्वेत-श्याम चित्रों की एक पूरी शृंखला है जो अशोक भौमिक के तत्कालीन रुझानों का सुराग देती है.

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नई दिल्ली:

दिल्ली के बीकानेर हाउस में इन दिनों विख्यात चित्रकार अशोक भौमिक के चित्रों की प्रदर्शनी चल रही है. इसे क्यूरेटर राजन श्रीपाद फुलारी ने अशोक भौमिक की कलात्मक विरासत का नाम दिया है. अशोक भौमिक की एकल चित्र प्रदर्शनियां पहले भी खूब लगती रही हैं, लेकिन संभवतः पहली बार या अरसे बाद उनके कलाकर्म को लेकर इतना बड़ा आयोजन दिखाई पड़ रहा है. बीकानेर हाउस की सीसीए गैलरी की पूरी दो मंजिलें उनके तरह-तरह के काम से पटी पड़ी हैं. करीब 215 चित्र और इंस्टालेशन इस प्रदर्शनी में शामिल किए गए हैं. यह संख्या यह बताने के लिए पर्याप्त है कि अशोक भौमिक कितनी विपुल संख्या में चित्र बनाते रहे हैं. लेकिन इससे ज़्यादा बड़ी बात यह है कि क़रीब पांच दशकों में फैले उनके काम को इस प्रदर्शनी में समझना संभव हो पाया है. दूसरी बात यह कि इन पेंटिंग्स को देखते हुए, उनके राजनीतिक-सामाजिक मंतव्यों से गुज़रते हुए यह खयाल आता है कि कला चुपचाप कितना काम करती रहती है और काल उसे किस तरह बचाए रखता है. 

सच तो यह है कि अशोक भौमिक ने कला और साहित्य की दुनिया में काफ़ी लंबी यात्रा की है. बहुत कम लोग ऐसे हैं जो दोनों विधाओं को साधते हों और फिर भी सिर्फ़ कलाकार या सिर्फ़ लेखक के रूप में मान्यता पाने के हक़दार हों. लेकिन रचनात्मकता की अलग-अलग शाखाओं में काम करने के बावजूद यह अलक्षित नहीं रहता कि उनकी मूल प्रेरणाएं एक ही हैं. वे जनवादी आग्रहों से लैस कलाकार हैं. वे साहित्यिक संगठनों से जुड़े रहे और बिल्कुल सड़क पर उतर किए जाने वाले सांस्कृतिक प्रतिरोधों में शामिल रहे. तो उनके काम का बड़ा हिस्सा उन पोस्टरों से भी बनता है जो उन्होंने समय-समय पर ऐसे प्रतिरोधों के लिए बनाए. हालांकि ख़ुद अशोक भौमिक इस बात की पुरज़ोर वकालत करते रहे हैं कि चित्रों को व्याख्याओं से परे देखा जाना चाहिए, लेकिन उनके कई चित्रों की राजनीतिक व्याख्याएं उनके बहुत अभिभूत करने वाले अर्थ खोलती हैं और चित्रों को नए मानी देती हैं. 

मसलन सत्तर के दशक में बनाई गई एक पेंटिंग है जिसके बारे में वे कहते हैं कि यह इमरजेंसी के दौरान बनाई गई. अचानक आपातकाल के दौरान की विभीषिका और इंदिरा गांधी की उन दिनों की छवि इस चित्र में उजागर हो उठती है. उस दौर में श्वेत-श्याम चित्रों की एक पूरी शृंखला है जो अशोक भौमिक के तत्कालीन रुझानों का सुराग देती है.

अशोक भौमिक के चित्र आमंत्रित करते हैं कि उन्हें बार-बार देखा जाए. ऊपर से दिखने वाली सरल और यांत्रिक लगती संरचनाएं हमारे देखते-देखते सांस लेने लगती हैं. धूल में मिलते साम्राज्य, टूटते-दरकते क़िले, सत्ता के नष्ट होते परकोटे, बीच-बीच में तलवार-बर्छियां लिए लोगों का हुजूम- यह अंतर्वस्तु जैसे इन चित्रों में बार-बार रूप बदल कर लौटती है. धीरे-धीरे समझ में आता है कि अशोक भौमिक जो कुछ भी बनाते हैं, उसमें अपने समय और समाज की धूल-मिट्टी और उसका रंग शामिल रहते हैं. कोविड के दौरान दूर होते शहर एक हूक पैदा करते हैं. मुंबई प्रवास के दौरान दिखने वाले पहाड़ उनके चित्रों का हिस्सा हो जाते हैं. उनकी निगाह पांच तत्वों- जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश तक जाती है और इन्हें वे अपने चित्रों में अलग तरह की रचनात्मकता के साथ रचते हैं. 

बैल और चिड़िया- ये दो जैसे अशोक भौमिक के प्रतिरोध के मूल स्वर हैं. इस प्रदर्शनी में एक बैल का संस्थापन ख़ास तौर पर ध्यान खींचता है. कला की दुनिया में बैल की अपनी प्रतीकात्मकता रही है. पिकासो की मशहूर पेंटिंग गुएर्निका में बैल युद्ध की क्रूरता और विभीषिका का प्रतीक बन कर सामने आता है. लेकिन कई दूसरे कला उपक्रमों में वह पाशविक शक्ति, ऊर्वरता और प्राचुर्य के प्रतीक के रूप में भी मिलता है. संंस्थापन कला (इंस्टालेशन) के लिए बैल की पूरी आकृति बहुत आदर्श है. लेकिन अशोक भौमिक के बैल अपने उठे हुए कंधों, अपनी चमकती आंखों के साथ प्रतिरोध के मानवीय प्रतीक के तौर पर उभरते हैं. और सबसे सुंदर है उनकी चिड़िया. चिड़िया साहित्य और संस्कृति की दुनिया में बहुत सारी चीज़ों की प्रतीक रही है- उड़ान भरने की इच्छा की, निरीहता की, मासूमियत की. अशोक भौमिक की चिड़िया में भी ये सारे गुण मिलते हैं, लेकिन सबसे ज़्यादा मिलता है साहस. वह असंभव सी जगहों पर बैठी दिखाई पड़ती है- जहां उसके होने की कोई उम्मीद नहीं होती. किलों के परकोटों पर तो चिड़िया बैठती ही हैं, लेकिन इन चित्रों में वह मेहनतकश लोगों के कंधों पर, तानाशाह दिखने वालों की टोपी पर, किसी के सिर पर- कहीं भी बैठी मिल सकती है. उड़ती हुई तो वह कई जगह मिलती है- स्थापत्यों के ऊपर से, ध्वंसावशेषों के ऊपर से. 

समकालीन कला की दुनिया में अशोक भौमिक अपनी अनूठी प्रविधि से बिल्कुल विशिष्ट पहचान बनाते हैं. उनके चित्र बहुत आसानी से पहचान में आते हैं. उनकी आकृतियां जैसे किसी टकसाल में ढली धातु की आकृतियां जान पड़ती हैं. एक लम्हे को लगता है कि ये सारे चित्र एक जैसे तो नहीं. लेकिन हम पाते हैं कि उनमें पर्याप्त विविधता है, संप्रेषण के कई स्तर हैं. रंगों के कई खेल हैं- कभी श्वेत-श्याम और कभी धूसर रंगों से होती हुई उनकी चित्राकृतियां चटख लाल-पीले-नीले रंगों तक आते हुए अलग ढंग से खिलती हैं. इन चित्रों में एक सक्रियता लगातार मिलती है. हाथ कुछ न कुछ कर रहे होते हैं. कभी पतवार चलाते, कभी कोई औज़ार उठाते, कभी कुछ संभालते-सहेजते. एक सफेद डंडे जैसी लकीर बीच-बीच में इन आकृतियों को बांटती है- लेकिन इस तरह कि वे अलग नहीं होते, बल्कि उभरते हुए मालूम पड़ते हैंं. एक दिलचस्प तथ्य की ओर खुद अशोक भौमिक ने किसी कला-मर्मज्ञ के हवाले से ध्यान खींचा कि इन चित्रों में ज़्यादातर जो सक्रिय है, वह दाहिना हाथ है. बायां हाथ अमूमन स्थिर है. 

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हालांकि इस संक्षिप्त टिप्पणी में पूरे पांच दशकों में पसरी अशोक भौमिक की कला-यात्रा को पूरी तरह समेटना असंभव है. लिखते-लिखते ध्यान आ रहा है कि उन्होंने बहुत बड़ी संख्या में किताबों के कवर भी बनाए हैं. इसके अलावा कला के इतिहास और कला की समझ पर उनका विपुल लेखन हमारे लिए एक नई दृष्टि प्रस्तावित करता है. यह प्रदर्शनी बुधवार तक लगी रहनी है. इसे देखना समकालीन भारतीय कला के एक महत्वपूर्ण अनुभव और स्तंभ से साक्षात्कार करना है.

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