26 जनवरी की सुबह जब आप उठेंगे, टीवी का रिमोट ऑन करेंगे तो आपको राजपथ पर गणतंत्र दिवस परेड की भव्य झलक दिखेगी. संभवत: दिल्ली सहित हर राज्य में नेता अपने उद्बोधन में बच्चों की बुनियादी तालीम के ढांचे पर तमाम तरह के दावे भी कर सकते हैं. लेकिन मध्य प्रदेश से जो तस्वीर सामने आई है वो दिखाती है कि ये ढांचा कितना जर्जर और कमजोर है जिसमें बच्चों की परीक्षाएं पहले हो जाएं और किताबें सरकारी दफ़्तरों में धूल खाती नजर आएं, जहां हजारों करोड़ खर्च करने का दावा करने के बावजूद बच्चे खंडहर जैसे स्कूल नहीं बल्कि झोपड़े में पढ़ते हैं.
रशीदिया कांसेप्ट स्कूल, बरखेड़ी में 5वीं के छात्र अतुल प्रतिभापर्व की तैयारी में जुटे हैं. प्रतिभा पर्व का मकसद शिक्षा की गुणवत्ता की सही जानकारी लेना है, परेशान हैं किताबें देरी से मिली. अगर किताबें जल्दी मिल जाती तो पढ़ाई में दिक्कत नहीं आती, बोला है पेपर को भर कर जमा करना है.
वैसे स्कूल कहता है ऐसे 1-2 बच्चे ही हैं, स्कूल में सहायक शिक्षक आशुतोष पांडे कहते हैं कि कोरोना की वजह से स्कूल टाइम से नहीं खुले, 3 महीने पढ़ाई हुई, किताबें तो टाइम पर आई हैं.. 1-2 बच्चे ऐसे हो सकते हैं लगभग सभी बच्चों को किताबें दी गई हैं.
बच्चे प्रतिभा पर्व की तैयारी में डूबे हैं लेकिन कितने तैयार हुए हैं ये जानने भोपाल से हम आगर-मालवा भी पहुंचे. राजधानी में जब देर हुई तो दूर के जिलों में क्या हालात हैं इसे समझा जा सकता है. पिछले 2 सालों से कोविड-19 में स्कूल लगातार नहीं लग पा रहे हैं. सरकार ने व्यवस्था की थी बच्चों को शिक्षा मिलती रहे इसलिए प्रत्येक छात्र छात्रा को विषय वार पुस्तकें उपलब्ध कराई जाए ताकि शिक्षण कार्य प्रभावित ना हो. लेकिन एनडीटीवी की टीम ने जब जानकारी ली तो पता लगा कि भोपाल से निकली रंग बिरंगी पुस्तकें बच्चों की पहुंच से दूर सरकारी दफ्तरों में जमा पड़ी हैं. हैरत की बात यह है कि ब्रिजिंग कार्य के लिए विषय वार पुस्तकें जो बच्चों को 15 नवंबर 2021 से 15 जनवरी 2021 तक पढ़ाया जाना था, उनका वितरण आज तक भी नहीं हो पाया.
जिन किताबों से बच्चों का मुस्तकबिल संवारने के दावे होते हैं उन्हीं किताबों के ढेर में तालीम के फ़लसफ़े दबे नजर आ रहे हैं. प्रतिभा पर्व के तहत बच्चों को प्रश्न पत्रों में जो सवाल हल करने के लिए दिए गए वह सभी इन वन कोर्स की पुस्तकों से लिए गए हैं जो बच्चों तक पहुंचे ही नहीं. ऐसे में बच्चों ने किस स्तर का अध्ययन किया होगा ये जानने हम आगर मालवा जिला मुख्यालय पर शासकीय स्कूल पहुंचे. छठी में पढ़ने वाले अल्ताफ ने सारे जवाब तो कॉपी में लिखे हैं लेकिन जब हमने कहा पढ़कर सुनाओ क्या लिखा है, तो अल्ताफ़ ने कहा "पढ़ नहीं सकते हैं, पढ़ना नहीं आता. लिख तो लेते हैं, हमारी बहन ने बताया हमने मोबाइल पर बोल बोल के लिख लिया था."
आदिल की कहानी भी इससे कुछ अलग नहीं. अपनी बहन की मदद से प्रश्नों के उत्तर तो लिख दिए लेकिन उसे याद कुछ नहीं है क्योंकि जब कुछ पढ़ा ही नहीं याद कैसे होगा. आदिल का कहना था "किताब नहीं मिल, मिल जाती तो पढ़ लेते".
स्कूलों के शिक्षक भी कबूल करते हैं कि बच्चों तक जब किताबें ही नहीं पहुंचेगी तो उनका शैक्षणिक विकास संभव नहीं है और दक्षता मूल्यांकन की बात तो पूछा ही नहीं जाए. आगर-मालवा शासकीय स्कूल के शिक्षक ब्रजेश तिवारी कहते हैं, "इनसे संबंधित वीडियो से पढ़ाया, पुस्तकें उपलब्ध नहीं थी इसलिये पढ़ाने में असमर्थ थे.'' वहीं जन शिक्षा केन्द्र की प्रभारी सरोज मंगल ने कहा, 'परसों शनिवार 22 जनवरी को किताबें मिली हैं, 22 प्राइमरी और 9 मिडिल स्कूलों में इसे बांटना है."
यहां तो किताबें ही नहीं पहुंची लेकिन आदिवासी बहुल डिंडौरी जिले के सेनगूढ़ा गांव में तो स्कूल की बिल्डिंग ही नहीं पहुंची. जो है वो खंडहर बन चुकी है. 52 बच्चे हैं. गांववाले सबसे गुहार लगाकर हार गये तो 70 महिलाओं ने एकजुट होकर दो दिनों में लकड़ी, बांस और घासफूस के सहारे झोपड़ी बनाकर तैयार कर दिया. 1 जनवरी से स्कूल का संचालन झोपड़ी में ही किया जा रहा है. यहां पढ़ रहे छात्र लोकेश धुर्वे कहते हैं, ''यहां पढ़ने में अच्छा लगता है नहीं, नया स्कूल बनना चाहिये.'' वहीं यहां तैनात शिक्षक कमल सिंह परस्ते झोपड़े को दिखाकर कहते हैं, "ये यहां कि महिलाओं ने बनाया है, हमारी सहमति नहीं है. 1 तारीख से बच्चों को बिठा रहे हैं."
मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों की हालत इस बात से भी समझी जा सकती है कि प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पिछले 10 साल में पहली से आठवीं तक के 40 लाख 13 हजार बच्चे कम हो गए. जबकि इसी दौरान 65 लाख बच्चों को 1100 करोड़ की ड्रेस, किताबें और मिड-डे मील बांट दिया. ये और बात है कि अफसरों ने खुद स्वीकारा है कि माध्यमिक स्कूलों में औसतन बच्चों की उपस्थिति 20 से 25 फीसदी ही रहती है. असर की रिपोर्ट बताती है राज्य में पहली से बारहवीं तक के 91.10 लाख छात्रों पर औसतन सालाना 47,000 रुपये खर्चे गये. राज्य के 99411 सरकारी स्कूलों में 43% में बिजली नहीं है, 5% में छात्राओं के लिये शौचालय नहीं है. ये हालात तब हैं जब इनपर 100 करोड़ सालाना खर्च का दावा है. राज्य में लगभग 21,000 सरकारी स्कूल एक शिक्षक के बूते चल रहे हैं और शायद यही वजह है कि देशभर में स्कूली शिक्षा के मामले में मध्यप्रदेश 17वें नंबर पर है.