जब देश भर में दिवाली की तैयारियां जोरों पर हैं, बाजार सजे हैं, घर जगमगा रहे हैं और हर चेहरा रौशन है, आपको एक ऐसी दुनियां के बारे में जहां रौशनी आँखों से नहीं, दिल से देखी जाती है. NDTV पहुंचा दिल्ली के पंचकुइयाँ रोड पर, जहां स्थित है भारत का सबसे पुराना दृष्टिहीन विद्यालय, जो न सिर्फ ऐतिहासिक है, बल्कि उम्मीद, आत्मबल और जिजीविषा की मिसाल भी है.
1939 से अब तक एक रौशनी, जो बुझी नहीं
इस विद्यालय की शुरुआत 1939 में लाहौर में हुई थी-जब भारत आजाद भी नहीं हुआ था. 1947 में विभाजन के बाद यह स्कूल दिल्ली के पंचकुइयाँ रोड पर स्थानांतरित हुआ. आज इसे राजधानी में लोग “अंध विद्यालय” के नाम से जानते हैं, और इसका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में देश के सबसे पुराने ब्लाइंड स्कूल के रूप में दर्ज है.
बच्चों के लिए पढ़ाई, रहना, खाना सब कुछ निःशुल्क
इस स्कूल को केंद्र सरकार के समाज कल्याण विभाग से सालाना ₹10 लाख की आर्थिक सहायता मिलती है. बाकी जरूरतें समाज के सहयोग से पूरी होती हैं. बोर्ड पर जरूरतें लिख दी जाती हैं, और जो सक्षम होता है, चुपचाप मदद कर जाता है.
जहां रास्ता टेकटाइल पाथ दिखाता है, और मंजिल आत्मनिर्भरता बन जाती है
स्कूल में पीले रंग के टेकटाइल पाथ लगे हैं जो क्लासरूम, वॉशरूम और डाइनिंग हॉल का रास्ता बताते हैं, ताकि बच्चे स्वतंत्र रूप से चल सकें. यहां बच्चे कंप्यूटर क्लास लेते हैं, संगीत सीखते हैं, खेलों में भाग लेते हैं. दीवारों पर सजी ट्रॉफियां और अवॉर्ड्स इस बात की गवाही देते हैं कि यहां के बच्चे केवल पढ़ते नहीं, पूरा जीवन जीना सीखते हैं.
'दिवाली पर मैं आवाज से अंदाजा लगाकर पटाखे फोड़ता हूं'
प्रिंस, जो आठवीं तक इसी स्कूल में पढ़े और अब सरकारी स्कूल में दसवीं के छात्र हैं, वह झारखंड से हैं. जन्म से दृष्टिहीन हैं. NDTV से बात करते हुए उन्होंने कहा, " दिवाली पर मैं आवाज से अंदाजा लगाकर पटाखे फोड़ता हूं. आज तक कभी रौशनी नहीं देखी. अफसोस होता है… काश देख पाता." आगे मुस्कुराकर वह बताते हैं कि उनका सपना शिक्षक बनना है.
उन्होंने NDTV के साथ एक कविता भी साझा की- एक ऐसी कविता जो बताती है कि रोशनी केवल देखने से नहीं, मन से अनुभव करने से आती है:
नहीं हुआ है अभी सवेरा, पूरब की लाली पहचान
चिड़ियों के जगने से पहले, खाट छोड़ उठ गया किसान
खिला-पिला कर बैलों को, ले चला खेत पर करने काम
जरा न रुकता, लेता दम
कभी नहीं त्योहार न छुट्टी
बिना किए आराम हराम…
रणजीत शाह - जो आवाजों से तस्वीरें बनाते हैं
रणजीत, दसवीं में पढ़ते हैं. न्यूज सुनना पसंद है. कहते हैं, "ना मां-बाप को देखा, ना दुनिया को. लेकिन जब कोई बोलता है, आवाज से ही तस्वीर बन जाती है मन में." उनकी कल्पना की दुनिया ही उनकी असली दुनिया है, जो शब्दों से रंग भरती है.
मीनाक्षी- 25 साल से बच्चों की परछाईं बनी हुईं
मीनाक्षी, पिछले 25 वर्षों से इस विद्यालय से जुड़ी हैं. बच्चों को नहलाना, तैयार करना, कपड़े धोना — हर छोटी-बड़ी जिम्मेदारी वो स्नेहपूर्वक निभाती हैं. वह कहती हैं कि, "ज्यादातर बच्चे गरीब परिवारों से हैं, यूपी, बिहार, झारखंड और एमपी से. लेकिन ये बच्चे मुझे कभी परेशान नहीं करते. बल्कि, इन्होंने मुझे जीना सिखाया है."
दृष्टिहीन शिक्षक, जो रौशनी बांटते हैं
सुधांशु जी, 2017 से पढ़ा रहे हैं. वे स्वयं भी दृष्टिहीन हैं. कहते हैं कि, "यहां से पढ़े बच्चे रेलवे, बैंक और विश्वविद्यालयों में काम कर रहे हैं. यह स्कूल बच्चों के भविष्य की नींव है."
संस्थागत चुनौतियां, लेकिन उम्मीद जिंदा है
हाल ही में स्कूल को प्रशासन की ओर से एक नोटिस मिला है. स्कूल प्रबंधन ने इसकी वजह जमीन से जुड़े दस्तावेजों की अपूर्णता बताया है. स्कूल प्रबंधन को भरोसा है कि समाज का साथ हमेशा की तरह बना रहेगा.
इस दिवाली, एक दीया उनके नाम…
जो आँखों से नहीं देख सकते,
लेकिन सपनों को रौशनी से भरते हैं.