असम में हिमंत सरकार पुराने दंगों के रिपोर्ट क्यों निकाल रही है? इसका 2026 के विधानसभा चुनाव पर क्या असर होगा?

असम आंदोलन के दौरान अवैध प्रवासियों, खासकर बांग्लादेशी मुसलमानों के खिलाफ राज्य में व्यापक विरोध था. दंगे से जुड़े इन रिपोर्ट्स को सार्वजनिक कर हिमंत सरकार ने 2026 में होने वाले असम विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में राजनीतिक माहौल को गरम कर दिया है.

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  • इससे 2026 में होने वाले असम विधानसभा चुनाव को लेकर माहौल गरमाएगा.
  • हिंसा के पीछे के मूल कारण (अवैध प्रवासी विवाद) आज भी असम की राजनीति को प्रभावित करता है.
  • यह रिपोर्ट पुरानी घटनाओं को फिर से सार्वजनिक कर चुनाव की राजनीति में नया विवाद और बहस पैदा करेगी.
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असम सरकार ने फरवरी 1983 में हुए बड़े दंगों से जुड़ी दो रिपोर्टें विधानसभा में प्रस्तुत की हैं, जिनमें एक सरकारी और दूसरी गैर-सरकारी (अधिकारिक नहीं) है. ये दंगे असम आंदोलन के दौरान हुए थे, जब अवैध प्रवासियों के मुद्दे पर पूरे राज्य में बड़ी हिंसा हुई थी. इस हिंसा में करीब 3000 लोगों की मौत हुई थी जिसमें सबसे कुख्यात नेल्ली नरसंहार शामिल है, जहां लगभग 2000 लोग मारे गए थे.यह मुद्दा इसलिए नए सिरे से उभर रहा है क्योंकि 2026 में असम में विधानसभा चुनाव होने हैं और बीजेपी के नेतृत्व वाली हिमंत बिस्वा सरकार ने इन रिपोर्टों को सामने लाकर उस दौर की घटनाओं को याद दिलाया है.

असम आंदोलन के दौरान हुई हिंसा की पृष्ठभूमि

1979–85 तक चले असम आंदोलन (अवैध प्रवासियों के खिलाफ संघर्ष) के दौरान असम में भारी सामाजिक तनाव था. तब अवैध प्रवासियों, खासकर बांग्लादेशी मुसलमानों के खिलाफ व्यापक विरोध था. यह आंदोलन उस समय की सरकारी नीतियों के विरोध में था, जिनके कारण स्थानीय आदिवासी और जातीय समूहों की सुरक्षा खतरे में थी. चुनाव को लेकर विवाद और हिंसा इस आंदोलन की सबसे दर्दनाक घटनाएं थीं.

फरवरी 1983 में हुए चुनाव के समय हिंसा चरम पर पहुंची — 13 गांवों में लगभग 6 घंटों में 1800 से 2000 लोगों की मौत हुई, खास कर उन इलाकों में जहां नरसंहार हुआ — जिसे बाद में नेल्ली नरसंहार का नाम दिया गया.

इस घटना के बाद एक सरकारी जांच आयोग बनाया गया — टीडी तिवारी कमीशन और एक नागरिक-समाज द्वारा गठित गैर-सरकारी जांच आयोग टीयू मेहता कमीशन. लेकिन तब इन रिपोर्टों को सार्वजनिक नहीं किया गया.

तिवारी आयोग vs मेहता आयोग — रिपोर्टों में क्या था?

तिवारी आयोग की रिपोर्ट में 1983 की हिंसा को सांप्रदायिक नहीं बताया गया. आयोग ने कहा कि यह हिंसा एक सुनियोजित आंदोलन का हिस्सा थी, जिसमें बड़े पैमाने पर आगजनी, तोड़फोड़, संपत्ति क्षति हुई — और उसका कारण केवल चुनाव या राजनीतिक अस्थिरता नहीं था. इस रिपोर्ट ने ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) और ऑल असम गण संग्राम परिषद (एजीएसपी) को मुख्य रूप से जिम्मेदार ठहराया.

दूसरी ओर, मेहता आयोग की रिपोर्ट (जो गैर-सरकारी है) ने यह रुख लिया कि 1983 में चुनाव कराने का फैसला, उस वक्त का माहौल, और हिंसा के पीछे तत्कालीन सरकार (केंद्र तथा राज्य) की भूमिका थी. इस रिपोर्ट में कहा गया कि चुनाव ही वह तात्कालिक कारण था जिसने सामूहिक हिंसा को बढ़ावा दिया. 

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यानी, दोनों रिपोर्टों में जो निष्कर्ष सामने आए वो आपस में मेल नहीं खाते थे. एक ने हिंसा को गैर-सांप्रदायिक आंदोलन-आधारित बताया तो दूसरी ने चुनाव और सत्ता के फैसले को नरसंहार का कारण माना.

हिमंता सरकार ने अब रिपोर्ट क्यों निकाली

25 नवंबर 2025 को असम सरकार ने विधानसभा में दोनों रिपोर्ट्स तिवारी आयोग और मेहता आयोग सदन में दाखिल कर दीं. इससे चार दशकों से दबी इस फाइल को सार्वजनिक और विधायी रिकॉर्ड में लाया गया. सरकार का कहना है कि यह सिर्फ 'इतिहास के सच को सामने लाने' और 'असम के अतीत के एक अहम और दर्दनाक अध्याय' को डॉक्युमेंट करने का प्रयास है. पर असम में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और ये उससे ठीक पहले हुआ है, ऐसे में यह एक स्पष्ट राजनीतिक दांव लगता है, जो 2026 के विधानसभा चुनाव से पहले माहौल को बदलने की कोशिश है.

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सरकार, विपक्ष और राजनीति के संदर्भ में इसके मायने क्या हैं?

इस कदम से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को यह मौका मिलता है कि वह 1983 के दंगों की जांच के बहाने 'अवैध प्रवासन, अवैध बसावट, असमिया-पहचान' जैसे संवेदनशील मुद्दों को फिर से उठाए. इस तरह के मुद्दे चुनाव से पहले उठाने से वहां की आवाम के बीच विपक्षी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ वर्तमान सरकार को एक फायदा मिल सकता है क्योंकि तब के दंगों के दौरान कांग्रेस ही सत्तारूढ़ थी. इन मुद्दों के जरिए कांग्रेस को घेरना आसान हो जाएगा.

वहीं विपक्ष यानी कांग्रेस पार्टी के लिए यह राजनीतिक रूप से मुश्किल पैदा कर सकता है. यही कारण है कि कई जानकार इसे चुनाव पूर्व वोटबैंक की राजनीति या ध्रुवीकरण की रणनीति मान रहे हैं. यही कारण है कि विपक्ष खुल कर इसका विरोध किया है और ध्रुवीकरण जैसी बातों उठाई हैं. उनका कहना है कि पुरानी घटनाओं को सामने लाने से समाज में डर, संशय पैदा हो सकता है — खासकर उन समुदायों के लिए जो 1983 में प्रभावित हुए थे.

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2026 विधानसभा चुनाव पर असर — मतदाता, गठबंधन, रणनीति

2026 के चुनाव से पहले यह मुद्दा फिर से गर्म होने से राज्य में 'पहचान, नागरिकता, अवैध प्रवासन, भूमि अधिकार' जैसे संवेदनशील विषयों पर भावनात्मक राजनीति फिर से सक्रिय हो जाएगी. जो मतदाता पहले से इस तरह के मुद्दों को लेकर एक समुदाय के विरोध में थे उन्हें सरकार की यह रणनीति आकर्षित कर सकती है.

यह कदम उन मतदाताओं को गठबंधन में बांधने की कोशिश होगी जो 'असमिया पहचान' और 'अवैध प्रवासियों' के सवाल को लेकर चिंतित हैं — इससे बीजेपी या उससे जुड़े दलों को फायदा हो सकता है.

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वहीं, विपक्ष को मतदाताओं को समझाना होगा कि यह सिर्फ एक पुरानी घटना है, और ऐसा करना सामाजिक सौहार्द कमजोर कर सकता है. हालांकि तब सत्ता में रहे विपक्ष के लिए इसे मतदाताओं को समझा पाना चुनौतीपूर्ण होगा.

कुल मिलाकर, यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बीजेपी के नेतृत्व वाले असम सरकार ने 2026 के असम विधानसभा चुनाव को लेकर अपने पत्ते खोलने अभी से शुरू कर दिए हैं और इस मुद्दे का तब राजनीतिक महत्व काफी होगा क्योंकि प्रवासियों का मामला असम में लंबे समय से चला आ रहा ऐसा मुद्दा है जो आज की राजनीतिक में और भी अधिक प्रासंगिक है.

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