बादल नहीं, ग्‍लेशियर की झीलें फटीं! धराली में सैलाब कैसे आया, जानिए साइंटिस्ट ने क्या बताया

प्रो चुनियाल ने ये भी बताया कि हमारे पूर्वजों ने कभी ऐसे अस्थिर और जोखिमपूर्ण स्थानों पर आवास नहीं बनाए थे. लेकिन आधुनिक समय में बिना उचित भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के, इन जगहों पर अतिक्रमण हुआ है.

विज्ञापन
Read Time: 5 mins
फटाफट पढ़ें
Summary is AI-generated, newsroom-reviewed
  • उत्तराखंड में धराली आपदा का कारण खीर गंगा नदी के ऊपरी कैचमेंट क्षेत्र में ग्लेशियर तालाबों का फटना हो सकता है.
  • भारी बारिश से ग्लेशियर तालाबों में जलस्तर बढ़ा और उनमें से एक या अधिक तालाब टूटने से मलबा और पानी तेजी से बहा.
  • भूगर्भ वैज्ञानिक प्रो डीडी चौनियाल ने कहा कि केदारनाथ आपदा से कोई सबक नहीं लिया गया और आपदाएं जारी हैं.
क्या हमारी AI समरी आपके लिए उपयोगी रही?
हमें बताएं।
उत्तरकाशी:

उत्तराखंड के धराली गांव में 5 अगस्त 2025 को आई आपदा की एक वजह खीर गंगा नदी के ऊपरी कैचमेंट क्षेत्र में स्थित ग्लेशियर तालाबों का फटना हो सकता है. ये संभावना जताई है, भूगर्भ वैज्ञानिक प्रोफेसर डीडी चुनियाल ने. उत्तराखंड की दून यूनिवर्सिटी में भूविज्ञान के विजिटिंग प्रोफेसर डीडी चुनियाल ने एक वीडियो में विश्‍लेषण करते हुए संभावना जताई है कि हो सकता है, भारी बारिश के कारण इन ग्लेशियर तालाबों में जलस्तर बढ़ गया हो और उनमें से कोई एक या ज्‍यादा तालाब टूट गए होंगे. ऐसा होने से भारी मात्रा में पानी, मलबे को लेते हुए तीव्र गति से नीचे की ओर बहा. इस मलबे ने निचले इलाके में नदी के बहाव को बाधित करते मकान, होटल, दुकानों समेत गांव को तबाह कर दिया.  

ऊपर ग्‍लेशियर तालाबों की श्रृंखला

जहां धराली गांव स्थित है, उसके ऊपर पहाड़ों पर खीर गंगा नदी का जो कैचमेंट है, वहां ग्लेशियर तालाबों की एक श्रृंखला मौजूद है. प्रो डीडी चौनियल ने बताया कि उत्तरकाशी के धराली क्षेत्र में खीर गंगा का उद्गम बर्फीले ग्लेशियरों से होता है, जहां ऊपर छोटे-छोटे ग्लेशियल ताल और तालाब मौजूद हैं. अत्यधिक वर्षा और ग्लेशियर की धीमी पिघलन की वजह से ये ताल-तलैया अत्यधिक भर गए थे. इसी दौरान किसी एक ताल के टूटने से उसके बहाव ने नीचे के ताल को भी तोड़ा होगा, जिससे मलबे के साथ भारी मात्रा में पानी तेजी से बह निकला, जिसके बहाव ने बोल्डर, पेबल्स और ग्रेवेल सहित भारी मात्रा में मलबा भी बहाकर नीचे के गांव धराली में तबाही मचा दी.

Advertisement

नदी किनारे फ्लड प्‍लेन की संरचना खतरनाक 

प्रो चुनियाल के मुताबिक, ये घटना साल 2013 की केदारनाथ आपदा जैसी ही है, जिसमें नदी के किनारे या फ्लड प्लेन पर बने गांवों को भारी नुकसान हुआ था. भू-आकृति विज्ञान के अनुसार, नदी के किनारे बनने वाले फ्लड प्लेन या रिवर टेरेस महीन और मोटे गाद-मिट्टी से बने होते हैं और लैंडस्‍लाइड, मलबा बहाव जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील होते हैं. पहाड़ी इलाकों में ऐसे स्थलों पर इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर डेवलपमेंट या मकान-दुकान वगैरह बनाना बेहद खतरनाक होता है.  

Advertisement

केदारनाथ त्रासदी से नहीं लिया सबक 

प्रोफेसर चौनियल ने 2013 की केदारनाथ त्रासदी को याद करते हुए कहा कि हमने उससे कोई सबक नहीं लिया. उन्होंने जोर देते हुए कहा कि पहाड़ी इलाकों को सुरक्षित रखने के लिए नदियों और नालों के किनारे या फ्लड प्लेन जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में अतिक्रमण पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना चाहिए. भू-आकृति विज्ञान की दृष्टि से ये क्षेत्र अत्यंत असुरक्षित होते हैं क्योंकि यहां मलबा बहाव, धंसान, भूस्खलन जैसी घटनाओं का खतरा हमेशा बना रहता है. 

Advertisement

ये भी पढ़ें: मलबे में मकान, उजड़ा पुल... धराली की ये 2 तस्‍वीरें बता रहीं त्रासदी के बाद की कहानी

पूर्वजों ने ध्‍यान रखा था, लेकिन... 

उन्‍होंने यह भी बताया कि हमारे पूर्वजों ने कभी ऐसे अस्थिर और जोखिमपूर्ण स्थानों पर आवास नहीं बनाए थे. लेकिन आधुनिक समय में बिना उचित भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के, इन जगहों पर अतिक्रमण हुआ है. इसलिए विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि जियोलोजिकल और जियोस्पैशियल तकनीक के माध्यम से ऐसे संवेदनशील स्थानों का सर्वेक्षण कर के इन्हें 'लाल निशान' के रूप में चिन्हित करना होगा ताकि इन क्षेत्रों में कोई भी निर्माण कार्य या विकास न हो सके और निर्दोष लोग सुरक्षित रह सकें.

Advertisement

एसपी स‍ती ने किसे बताया जिम्‍मेवार?

भूगर्भ वैज्ञानिक डॉ एसपी सती बताते हैं कि उत्तरकाशी का धराली कस्बा खिरो गार्ड नाले के ठीक मार्ग पर बसा है. यहां हुआ हादसा, उस पुरानी चेतावनी की तस्दीक है, जिसे नजरअंदाज किया जाता रहा. उन्‍होंने कहा, खिरो गार्ड, जिसे ‘खीर गार्ड' भी कहा जाता है, सफेद मलवे और तेज बहाव के लिए कुख्यात रहा है. 1835, 1980 के दशक, 2013, 2021 और अब 2025 में ये नाला बड़े पैमाने पर फ्लैश फ्लड और मलवा लाकर तबाही मचा चुका है. ऊपर ऊंचाई पर पुराने ग्लेशियर और जमी बर्फ गर्मियों में पिघलकर ढीला मलबा तैयार करते हैं, जो अतिवृष्टि में निचले इलाकों में आकर बस्तियां बहा देता है.

ये भी पढ़ें: 'मेले पर सब घर आए थे और मातम छा गया...', धराली को अपने सामने बहते देखे शख्‍स की आंखों देखी

डॉ सती के मुताबिक, हिमालयी ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तापमान तेजी से बढ़ रहा है. जहां पहले महीन फुहारें पड़ती थीं, अब वहां मूसलाधार बारिश होने लगी है. इससे न सिर्फ मलबा तेजी से खिसकता है, बल्कि फ्लैश फ्लड की आवृत्ति भी बढ़ गई है. नेचर जियोसाइंस जैसे शोध पत्र भी चेतावनी दे चुके हैं कि ये ट्रेंड हिमालयी हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स के भविष्य पर गंभीर सवाल खड़ा करता है.

निर्माण की गलतियां और बेपरवाही

डॉ सती कहते हैं कि पहाड़ की ज्‍यादातर आपदाओं के पीछे एक बड़ी वजह है, नदियों और नालों के मार्ग में अंधाधुंध निर्माण. 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद 200 मीटर नदी किनारे निर्माण रोकने का नियम बना, लेकिन उसका भी उल्लंघन किया जाता रहा. पर्यटन से जुड़ा आर्थिक लालच, वैकल्पिक पुनर्वास की कमी और स्थानीय मजबूरियां लोगों को बार-बार खतरे वाले इलाकों में लौटने पर मजबूर करती हैं. कई गांव मलबे पर बसे हैं, जो कि विकल्पहीनता और उदासीनता का बड़ा उदाहरण है.

ये भी पढ़ें: खिरो गार्ड, बड़कोट से धराली तक... 190 सालों में उत्तरकाशी के गांवों ने कैसे झेली तबाही? 10 बड़ी आपदाएं

Featured Video Of The Day
Uttarkashi Cloudburst: गंगोत्री से ले जल लेकर आ रहे कांवड़ियों ने बताया त्रासदी का हाल | Uttarakhand