- बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए ने 2010 के बाद सबसे बड़ी जीत हासिल की और महागठबंधन की हार हुई.
- पीके की जनसुराज पार्टी चुनाव में कोई सीट नहीं जीत सकी लेकिन आरजेडी के वोट बैंक को नुकसान पहुंचाया.
- ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ने सीमांचल की पांच सीटों पर जीत दर्ज कर महागठबंधन को झटका दिया.
बिहार का विधानसभा चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहा. 2010 के बाद एनडीए ने राज्य में इतनी बड़ी जीत दर्ज की है. वहीं, आरजेडी और कांग्रेस की ऐसी हालत भी लंबे समय बाद हुई है. बिहार में जनता ने वोटों की ऐसी सुनामी चलाई कि महागठबंधन का सूपड़ा साफ हो गया. इस चुनाव में मुख्य मुकाबला तो एनडीए और महागठबंधन के बीच ही था. वहीं पीके की पार्टी जन सुराज तीसरे विकल्प के रूप में उभरने की जी जान से कोशिश कर रही थी. लेकिन उसका भी सूपड़ा साफ हो गया.
ये भी पढ़ें-बिहार की करारी हार पर कांग्रेस में बवाल, अखिलेश सिंह ने अल्लावरू पर फोड़ा ठीकरा
जनसुराज ने RJD को दिया बड़ा दर्द
जनसुराज भले ही बिहार चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत सकी हो लेकिन आरजेडी को बड़ा दर्द जरूर दिया है. आरजेडी के वोट बैंक में पीके की पार्टी ने सेंध जरूर लगा दी है. दूसरी तरफ इस चुनाव में पीके से कम चर्चा में रहे असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ने चैन की सांस ली है. ओवैसी की पार्टी ने आरजेडी से पिछले चुनाव का बदला ले लिया है. AIMIM के जीते 5 में से चार विधायकों को आरजेडी ने अपने खेमे में कर लिया था. ऐसे में ओवैसी ने सीमांचल की 6 सीटों पर अपना प्रभाव बरकरार रखा है. कुछ सीटों पर पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया है. जिससे ऐसा लग रहा है कि ओवैसी ने तेजस्वी की चॉकलेट छीन ली है.
ओवैसी ने RJD से लिया पुराना बदला
तमाम पुराने जख्मों को भुलाकर ओवैसी अपनी पार्टी को महागठबंधन में शामिल कराना चाहते थे. वह सिर्फ 6 सीटें मांग रहे थे. लेकिन, तेजस्वी ने 6 सीट देने से भी इनकार कर दिया. आज हालत यह है कि सीमांचल की 5 सीटों पर ओवैसी की पार्टी ने मजबूत पकड़ बनाई है. सीमांचल में तेजस्वी को डबल झटका लगा है. यहां की 5 सीटों पर जहां ओवैसी की पार्टी जीत गई है. वहीं कुछ सीटों पर एनडीए आगे रही. मतलब महागठबंधन का रास्ता इन्हीं पार्टियों ने ब्लॉक कर रखा है.
मायावती की BSA के लिए भी खुशखबरी
इसके साथ ही बिहार की रामगढ़ सीट को हाथी ने अपने पांव तले सबको कुचल दिया. इस सीट पर बीएसपी जीत गई. मतलब मायावी की बीएसपी के लिए यह खुशी की खबर है. यहां बसपा ने आजरेजी और बीजेपी दोनों को पछाड़ दिया.
प्रशांत किशोर जैसे नेता के लिए बिहार की जनता की तरफ से जो संदेश आया वह साफ और स्पष्ट था. पीके की पार्टी जनसुराज अपना खाता तक नहीं खोल सकी. पीके 3 साल तक बिहार में घूमते रहे और उनके 98 फीसदी उम्मीदवारों की जनता ने जमानत जब्त करा दी. ऐसे में अपने बड़बोलेपन में जो दावा प्रशांत किशोर कर गए थे, उसके मुताबिक तो ऐसे लगने लगा है कि सियासत में एंट्री करने से पहले ही वह एग्जिट करने के लिए तैयार खड़े हैं.
प्रशांत किशोर को मिली किस बात की सजा?
कई मीडिया चैनलों पर प्रशांत किशोर ने चुनाव के पहले दावा किया था कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड 25 से ज्यादा सीटों पर नहीं जीत पाएगी. अगर ऐसा हो गया तो वह राजनीति छोड़ देंगे. वह तो यहां तक दावा कर आए थे कि या तो उनकी पार्टी 150 से ज्यादा सीटें जीतेगी या 10 से भी कम.
दरअसल, बिहार चुनाव में प्रशांत किशोर को इतना कॉन्फिडेंस विधानसभा उपचुनावों में पार्टी को 10 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल करने की वजह से आया था. उन्हें लगा था कि वह थोड़ी और मेहनत करेंगे तो बिहार चुनाव में अपनी छवि और स्पष्ट कर पाएंगे. लेकिन, उनकी पार्टी तो वोटकटवा बनकर भी सामने नहीं आ पाई.
क्या बड़बोलापन पीके को ले डूबा?
इसके साथ ही जनता के बीच प्रशांत की आवाज नहीं पहुंचने का एक कारण यह भी रहा कि वह तेजस्वी को चैलेंज करके पीछे हट गए. ऐसे में बिहार की जनता को उनकी राजनीति व्यवसाय जैसी लगने लगी. अगर तेजस्वी को चैलेंज देते प्रशांत राघोपुर से चुनाव लड़ जाते और परिणाम कुछ भी होता तो उनकी पहचान कम से कम अरविंद केजरीवाल जैसी हो ही जाती, जो 2014 में नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़े थे.
प्रशांत किशोर अपनी सभाओं में कहते रहे कि जाति और धर्म की राजनीति वह नहीं करेंगे. लेकिन, जब पार्टी उम्मीदवारों को उतारने की बारी आई तो उन्होंने भी अन्य पार्टियों की तरह जाति और धर्म के आधार पर ही उम्मीदवारों का चयन किया. बिहार में शराबबंदी का विरोध भी प्रशांत किशोर को ले डूबा. जिस तरह महिला मतदाता इस बार नीतीश के साथ खड़ी दिखीं, उसने प्रशांत किशोर की नींद उड़ा दी.
प्रशांत किशोर शायद यह समझ नहीं पाए थे कि यह बिहार है यहां जाति, समुदाय, स्थानीय समीकरण, सामाजिक गठबंधन का बेहद महत्वपूर्ण स्थान है. ऐसे में जनसुराज की व्यवस्था-परिवर्तन वाली अपील बेशक यहां के लोगों को आकर्षक लगी थी. लेकिन, वह यह आकलन करने में चूक गए कि यहां जातिगत राजनीति की जमीन पर ही पॉलिटिक्स होती है.
इनपुट- IANS के साथ














