बिहार चुनाव 2025: सियासत के सरताज लालू यादव की कहानी, यहां से शुरू किया था सफर

आज बिहार की राजनीति का एक छोर संभालने वाले लालू प्रसाद यादव की कहानी. कैसे सिपाही बनने का सपना लिए पटना आए लालू सियासत के सरताज बन गए, जानिए..

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पटना:

हिन्दुस्तान की राजनीति की एक अनोखी शैली है. देश की राजनीति में बिहार का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है. बिहार हमेशा से केंद्र की राजनीति का केंद्र बिंदु रहा है. बिहारी जनमानस की सियासी सोच हमेशा से राष्ट्रीय फलक पर केंद्रित रही है. कांग्रेस सरकार से जब लोगों का मोहभंग हुआ तो जेपी के 'समग्र आंदोलन' की शुरुआत बिहार से ही हुई थी. समग्र आंदोलन ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया था. उसी आंदोलन से नीतीश कुमार, लालू यादव, सुशील कुमार मोदी और शरद यादव जैसे नेता उपजे.

सुशील मोदी और शरद यादव तो अब नहीं रहे, लेकिन लालू और नीतीश अभी भी बिहार की राजनीति की धुरी बने हुए हैं. लालू देश और बिहार की सियासत में अपनी अनोखी शैली और बेबाक अंदाज के लिए जाने जाते हैं. उनका सफर जितना दिलचस्प रहा है, उतना ही प्रेरणादायक भी. एक साधारण ग्रामीण पृष्ठभूमि से निकलकर देश की राजनीति का बड़ा चेहरा बनने वाले लालू का सबसे बड़ा सपना पुलिस की वर्दी पहनने का था, लेकिन भाग्य में कुछ और ही लिखा था. किस्मत ने उन्हें सत्ता के सिंहासन तक पहुंचा दिया. जेपी ओर कर्पूरी ठाकुर की प्रयोगशाला से निकले लालू यादव ने देश की राजनीति में एक अलग ही छाप छोड़ी है.

आइए हम जानते हैं लालू यादव के राजनीतिक सफर के कुछ अनछुए पहलुओं के बारे में.

दशकों तक सत्ता हो या विपक्ष, दोनों की धुरी रहे शख्श का नाम है लालू प्रसाद यादव. चाहें राज्य की राजनीति हो या केंद्र की, लालू के बिना किसी भी समीकरण या गठबंधन का बनाना आसान नहीं होता है. लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि राजनीति के इस धुरंधर खिलाड़ी की शुरुआत इतनी साधारण थी कि उन्होंने खुद भी कभी नहीं सोचा था कि एक दिन वे देश की राजनीति में इतनी अहम भूमिका निभाएंगे. दरअसल, लालू यादव का सपना सियासतदान बनना नहीं, बल्कि सिपाही बनना था.

लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी भी बिहार की मुख्यमंत्री रही हैं.

कहां है लालू यादव का जन्मस्थान

बिहार के गोपालगंज जिले के फुलवरिया गांव के एक बेहद साधारण परिवार में 1948 में पैदा हुए लालू यादव का शुरुआती जीवन संघर्षों से भरा था. उनकी तमन्ना बस एक सरकारी नौकरी पाने की थी. छात्र राजनीति में सक्रिय रहने के बावजूद भी उन्हें लगता था कि इसमें उनका कोई भविष्य नहीं है. राजनीतिक करियर शुरू होता उससे पहले ही उनका मन कही और लगा रहता था. वह बिहार पुलिस में कांस्टेबल बनना चाहते थे, जिससे जीवन ठीक-ठाक ढंग से चल पाए.

सिपाही की जगह बन गए सीएम 

वर्दी, बूट, अच्छा खाना और तय सैलरी का सपना लेकर लालू यादव पुलिस की भर्ती परीक्षा में भाग लेने गए थे. मगर किस्मत को शायद कुछ और ही मंजूर था. जब दौड़ में पीछे छूटे, तो राजनीति की राह ने उन्हें बुला लिया. समाजवादी नेता नरेंद्र सिंह ने उनका हाथ थामा और लालू के सफर की राजनीतिक शुरुआत हुई. यह बात अलग है कि उस पुलिस भर्ती में लालू के साथ नरेंद्र सिंह भी गए थे.

सोशलिस्ट नेता श्रीकृष्ण सिंह के बेटे नरेंद्र सिंह ही वह शख्स थे, जिन्होंने लालू यादव को राजनीति में पहला कदम रखने में मदद की थी. नरेंद्र सिंह ने लालू यादव को सोशलिस्ट पार्टी की छात्र शाखा में नियुक्त किया था. ये बात उन दिनों की है जब लालू यादव पटना विश्वविद्यालय के नेशनल कॉलेज (बीएन कॉलेज) में पढ़ते थे. अपने अनोखे अंदाज के कारण लालू भीड़ जुटाने, हंसाने, समझाने में माहिर थे. इन्हीं गुणों के चलते नरेंद्र सिंह ने एक युवा समाजवादी के रूप में उनका नामांकन एक छात्र सभा को संबोधित करने के लिए किया. नरेंद्र सिंह ने सोचा कि लालू सभा संभाल लेंगे. लेकिन लालू सभा में आए ही नहीं. सभा में आने की जगह लालू चुपचाप सिपाही में भर्ती होने चले गए.

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सभा छोड़कर पुलिस की परीक्षा देने पहुंचे

नरेंद्र सिंह के पूछने पर लालू ने पहले तो टालने की कोशिश की कि उन्हें काम आ गया था, लेकिन बाद में बात बनती न देख उन्होंने सच बता दिया की वो पुलिस भर्ती परीक्षा में भाग लेने गए थे. लालू प्रसाद यादव की यह असफलता उनके लिए एक वरदान साबित हुई. साल 1977 में मात्र 29 साल की उम्र में वह जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में लोकसभा सांसद चुने गए. वो सबसे कम उम्र के सांसदों में से एक थे. इसके बाद 1980 और 1985 में वह बिहार विधानसभा के सदस्य चुने गए. उन्हें 1989 में विपक्ष का नेता बनाया गया. साल 1990 में वह बिहार के मुख्यमंत्री बने. उनकी अनोखी शैली ने उन्हें न सिर्फ बिहार, बल्कि पूरे देश में मशहूर कर दिया.

बिहार का मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू यादव दलितों, पिछड़ों और गरीब-गुरबा की आवाज बने.

आज जिस लालू यादव को बीजेपी विरोध का मुख्य चेहरा माना जाता है, उन्हीं लालू की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी बीजेपी के समर्थन से हुई थी. सियासत में कब कौन दोस्त बन जाए, कब कौन दुश्मन... कहा नहीं जा सकता. 10 मार्च को 1990 को 46 साल की आयु में लालू प्रसाद ने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी.

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जब सीएम को उनकी मां ने लगाई फटकार

मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार जब लालू अपने गांव फुलवरिया पहुंचे तो इस बात की जानकारी उनकी मां को हुई कि उनका बेटा मुख्यमंत्री बनकर आ रहा है. लालू ने जब अपनी मां मरछिया देवी के पैर छूए तो उनकी मां ने काफी नाराजगी जताई. उनकी मां ने कहा कि मतलब अब तो तुमको सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी. मां की बात सुनने के बाद लालू ने जोर का ठहाका लगाया. 

लालू यादव ने अपनी सियासत में गरीब-गुरबों और विशेष रूप से यादव और मुस्लिम, पिछड़े समुदायों को एक नई आवाज दी. उनकी नीतियों और बयानों ने बिहार के सामाजिक और राजनीतिक स्वरूप को बदल दिया. उन्होंने पिछले पायदान पर रहने वाले लोगों को राजनीति की मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया. इसमें कुछ हद तक वो सफल भी हुए. लालू जैसे-जैसे गरीबों के नेता से पिछड़ों के नेता फिर यादव-मुसलमानों के नेता तक सिमटकर रह गए, वैसे-वैसे लालू राजनीति में कमजोर होते चले गए.

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हालांकि, लालू के राजनीतिक करियर में दाग भी लगे. उनका नाम चारा घोटाले जैसे विवादों में आया. इस मामले में उन्हें सजा भी हुई, इससे उनकी छवि प्रभावित हुई. इसके साथ ही एक तथ्य यह भी है कि इतना सब होने के बाद भी उनकी लोकप्रियता और जनता से जुड़ाव कभी कम नहीं हुआ.

लालू यादव पर कई तरह के आरोप भी लगे, इसमें सबसे प्रमुख है चारा घोटाला. इसमें उन्हें सजा भी हुई.

टीएन शेषन को बताया 'पागल सांड'

लालू यादव और उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के रिश्ते की कहानी बड़े चाव से सुनी-सुनाई जाती है. शेषन बहुत सख्त चुनाव आयुक्त थे. उन्होंने फैसला किया कि चाहे जो हो जाए, बिहार में किसी भी सूरत में पारदर्शी तरीके से चुनाव करवा कर ही दम लेंगे. पारदर्शी तरीके से चुनाव कराने के लिए पंजाब से कमांडो बुलाए गए. उन्हें बिहार के तमाम पोलिंग बूथों पर तैनात किया गया, खासकर उन बूथों पर जो चुनावी हिंसा और बूथ कैप्चरिंग के लिए बदनाम थे. शेषन की इस सख्ती से लालू यादव इतने नाराज हुए कि वो उनके लिए अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने लगे. लालू ने शेषन का नाम 'पागल सांड' रख दिया. मृत्युंजय शर्मा लिखते हैं, ''लालू यादव अक्सर सुबह अपने घर लगने वाले दरबार में और जनसभाओं में कहा करते थे कि शेषनवा पगला सांड जैसा कर रहा है…मालूम नहीं है कि हम रस्सी बांध के खटाल में बंद कर सकते हैं.

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बीमार कर्पूरी ठाकुर को नहीं दी गाड़ी

एक समय ऐसा भी आया कि जब लालू के गुरु और उस समय विधानसभा में विपक्ष के नेता कर्पूरी ठाकुर ने लालू से विधानसभा जाने के लिए गाड़ी मांगी ली, लेकिन लालू ने उन्हें गाड़ी देने से मना कर दिया था. यह घटना उस समय की है, जब स्वास्थ्य खराब होने की वजह से कर्पूरी ठाकुर अपने घर पर ही आराम कर रहे थे. लेकिन, एक रोज उन्हें विधानसभा में किसी बहस में हिस्सा लेने के लिए जाना पड़ा. एक तरफ कर्पूरी ठाकुर की बीमार हालत और दूसरी तरफ बहस में भाग लेने की महत्ता. वो अपने आपको रोक नहीं पाए. उन्होंने विधानसभा जाना तय किया. इसके लिए उन्होंने लालू यादव से जीप मांगी. लेकिन उन्होंने देने से मना कर दिया. उनके इस बर्ताव से वे दंग रह गए. कर्पूरी ठाकुर वह शख्श थे जिन्होंने आपातकाल के बाद जेल से बाहर आने पर लालू को 1977 के लोकसभा चुनाव का टिकट दिलवाया था. उन्होंने लालू को विधानसभा का टिकट दिलाने में भी मदद की थी.

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