6 सबसे बड़ी वजहें, जिससे नीतीश को बिहार की सत्ता से कोई हटा नहीं सका

बिहार विधानसभा चुनाव के रूझान अब परिणाम की ओर बढ़ते दिख रहे हैं. इसमें बीजेपी-जेडीयू-एलजेपीआर-हम (सेक्युलर) और रालोमा एक बड़ी जीत की ओर कदम बढ़ा चुके हैं. इसका विश्लेषण कर रहे हैं डॉक्टर पवन चौरसिया.

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नई दिल्ली:

बिहार विधानसभा चुनाव की मतगणना जारी है. बिहार में एनडीए की सुनामी चल रही है. इस सुनामी में विपक्षी महागठबंधन बह गया है. चुनाव आयोग के मुताबिक मतगणना में बिहार विधानसभा की 243 सीटों में 200 पर एनडीए में शामिल दल आगे चल रहे हैं. इनमें से 78 पर जनता दल यूनाइटेड आगे हैं. बाकी की 43 सीटों पर विपक्षी महागठबंधन और अन्य छोटे दल आगे हैं. इसे देखते हुए इस बात की प्रबल संभावना है कि वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिर से बिहार की गद्दी पर बैठें. पिछले दो दशक से बिहार की राजनीति के केंद्र में रहने वाले नीतीश कुमार किसी पहेली से कम नहीं हैं. 

जाति के गढ़ में नीतीश होना

जाति आधारित राजनीति का गढ़ कहे जाने वाले बिहार में वो एक ऐसी जाति से आते हैं, जिसकी आबादी दो फीसदी से भी कम है. ऐसे में अगर वो इतने लंबे समय से बिहार के सर्वमान्य नेता बने हुए हैं ( चाहे महागठबंधन में हों या एनडीए) तो, यह सिर्फ उनके करिश्माई नेतृत्व का नतीजा है. बिहार की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले विद्वानों में इस बात को लेकर लगभग सहमति थी कि इस बार भी बीजेपी-जेडीयू-लोजपा(आर)-हम-रालोपा का एनडीए बिहार में बाजी मरेगा, लेकिन किसी को भी यह उम्मीद नहीं थी कि नीतीश की जेडीयू इस बार इतना शानदार प्रदर्शन करेगी. इसी जेडीयू का 2020 में प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा था. 

बिहार विधानसभा चुनाव के मतगणना के रूझान आने के बाद नीतीश के पोस्टर को मिठाई खिलाते उनके समर्थक.

बिहार से आ रही खबरों ने यह साबित कर दिया है कि नीतीश के बिना बिहार की वर्तमान राजनीति की कल्पना करना भी अतिशयोक्ति होगी. बिहार में एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी लगातार अपना प्रदर्शन और शक्ति का विस्तार कर रही है, वहीं नीतीश कुमार अपने स्वास्थ्य को लेकर लगाई जा रही तमाम अटकलों को खारिज करते हुए जमे हुए हैं.बिहार में डबल इंजन सरकार में भले ही वंदे भारत का इंजन (बीजेपी) बहुत शक्तिशाली और नया हो, लेकिन उसके पीछे लगने वाला बिहार संपर्क क्रांति का इंजन (नीतीश के नेतृत्व वाली जेडीयू) की वजह से ही ट्रेन अपने गंतव्य पर सकुशल पहुंच रही है. 

क्या 10वीं बार लेंगे शपथ

नीतीश कुमार 10वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले सकते हैं. यह अपने आप में एक रिकॉर्ड होगा. 1970 के दशक में शुरू हुए समाजवादी आंदोलन से पैदा हुए नेताओं में केवल नीतीश ही हैं जो आज भी अपनी प्रासंगिकता और लोकप्रियता बनाए हुए हैं.   वो सत्ता पर भी काबिज हैं. बाकी के नेता अपने गलत फैसलों और परिवारवादी राजनीति के कारण आज हाशिए पर जा चुके हैं. 

आइए अब नजर डालते हैं उन बातों पर जो इस विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के पक्ष में गई हैं.  

  1. छवि: नीतीश कुमार की अब तक की छवि साफ-सुथरी रही है. दशकों से सार्वजनिक जीवन में रहने के बाद भी उन पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा है.
  2. परिवारवाद से दूरी: नीतीश कुमार ने अपने परिवार से किसी को भी राजनीति में आगे नहीं बढ़ाया है. उनकी यह रणनीति उन्हें राजद के पारिवारिक राजनीतिक व्यवसाय पर हमला करने का नैतिक आधार देती है. 
  3. सुशासन बाबू की छवि : बिहार में दो दशक से नीतीश कुमार सरकार का काम धरातल पर नजर आ रहा है. सड़कें अच्छी गहुई हैं, गांव-गांव में बिजली पहुंची है, लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ मिल रहा है. इससे बिहार में यह आम धारणा है कि चीजे बदल गई हैं. लोगों को भविष्य में और बेहतर की उम्मीद नजर आती है. 
  4. महिलाओं में लोकप्रियता: नीतीश की लोकप्रियता महिला मतदाताओं में बहुत व्यापक है. स्कूली लड़कियों को मुफ्त में साइकिल उपलब्ध कराने से लेकर महिलाओं के लिए घर से बाहर निकलने के लिए एक सुरक्षित, कानून-व्यवस्था वाला माहौल सुनिश्चित करना और खाते में सीधे पैसे भेजने तक. इसका परिणाम यह हुआ कि सभी जाति-धर्म की महिलाओं उन्हें वोट दिया है. शराबबंदी के आर्थिक दुष्परिणाम हो सकते हैं, लेकिन यह उन गरीब महिलाओं के लिए वरदान साबित हुआ. उन महिलाओं के कुछ पैसे बचे और उन्हें घरेलू हिंसा का शिकार कम होना पड़ा. 
  5. समावेशी राजनीति:  विभिन्न जातियों और समुदायों के नेताओं को बढ़ावा देने और उन्हें समायोजित करने और जरूरत पड़ने पर उनके कद को छोटा करने की उनकी राजनीतिक चतुराई. 
  6. व्यावहारिक राजनीति: राजनीति के प्रति नीतीश कुमार के अति व्यावहारिक विचारधारात्मक दृष्टिकोण ने जेडीयू को एक ऐसी पार्टी बना दिया है, जो सभी सामाजिक समूहों का वोट हासिल कर सकती है. इसके लिए उन्होंने परस्पर विरोधाभासी कदमों और नीतियों को गले लगाने में कोई गुरेज नहीं किया. उन्होंने बीजेपी के हिंदुत्व के प्रयासों का समर्थन किया तो सरकारी नौकरियों में लेटरल एंट्री का विरोध भी किया. यह दर्शाता है कि वो यथार्थवाद को सबसे प्रासंगिक विचारधारा मानते हुए अपने कदम उसी हिसाब से उठाते हैं. ऐसे में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि वो अपने इस विचित्र राजनीतिक मॉडल को लेकर कहां तक जा पाते हैं. और क्या यह मॉडल दूसरे राज्यों में भी सफल हो सकता है?

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डिस्क्लेमर: डॉ. पवन चौरसिया,इंडिया फाउंडेशन में रिसर्च फेलों के तौर पर काम करते हैं और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और राजनीति पर लगातार लिखते रहते हैं. इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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