तमिलनाडु में क्या फिर भड़क रहा है हिंदी विरोधी आंदोलन, राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर क्यों मची है रार

तमिलनाडु में एक बार फिर हिंदी विरोधी भावना जोर पकड़ रही है. इस बार इसका कारण बना है राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच की तकरार. तमिलनाडु ने इसे हिंदी थोपने की कोशिश बताया है. आइए जानते हैं कि कितना पुराना है तमिलनाडु का हिंदी विरोध.

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नई दिल्ली:

हिंदी विरोधी भावना एक बार फिर तमिलनाडु में भड़क रही है.दरअसल तमिलनाडु सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी)को राज्य में लागू नहीं किया है. उसका कहना है कि यह नीति हिंदी थोपने की कोशिश है.यह मामला सोमवार को संसद में भी उठा. केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने आरोप लगाया कि तमिलनाडु की डीएमके सरकार वहां के छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ कर रही है. उनके इस बयान का डीएमके सांसदों ने विरोध किया.उन्होंने प्रधान के खिलाफ लोकसभा में विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव दिया है. वहीं धर्मेंद्र प्रधान को अहंकारी बताते हुए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने कहा कि उन्हें अनुशासन सिखाने की जरूरत है.

तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन

एनईपी को लेकर तमिलनाडु में राजनीति पिछले काफी समय से चल रही है. राज्य में परिसीमन के साथ-साथ हिंदी विरोध का मुद्दा भी गरमाया हुआ है. तमिलनाडु का कहना है कि एनईपी के जरिए केंद्र सरकार उस पर हिंदी और संस्कृत थोपने की कोशिश कर रही है. हिंदी का विरोध तमिलनाडु के लिए नया नहीं है. तमिलनाडु में हिंदी का विरोध आजादी से पहले से चला आ रहा है. तमिल लोग अपनी भाषाई पहचान को दूसरे राज्य के लोगों की तुलना में अधिक गंभीरता से लेते हैं. तमिलनाडु में हिंदी विरोध की शुरुआत 1937 में हुई थी. उस समय हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के खिलाफ आंदोलन हुआ था. इसे हिंदी भाषा विरोधी आंदोलन के रूप में जाना जाता है. इससे पहले 1928 में मोतीलाल नेहरू ने हिंदी को भारत में सरकारी कामकाज की भाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था. उनके इस प्रस्ताव का भी तमिल नेताओं ने भरपूर विरोध किया था.

तमिलनाडु के एक रेलवे स्टेशन के बोर्ड पर कालिख पोतते डीएमके के कार्यकर्ता.

उस समय तमिलनाडु के मद्रास प्रांत के नाम से जाना जाता था. उस मद्रास प्रेसीडेंसी में राजगोपालाचारी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी. उसने स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई को अनिवार्य बनाने का फैसला किया था. कांग्रेस सरकार के इस फैसले का पेरियार के नाम से मशहूर ईवी रामसामी ने विरोध किया. उस समय विपक्ष में रही जस्टिस पार्टी ने भी सरकार के इस फैसले का विरोध किया. यह जस्टिस पार्टी आगे चलकर डीएमके के नाम से मशहूर हुई, जो आज तमिलनाडु में सरकार चला रही है. 

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तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन का दूसरा दौर

यह हिंसक आंदोलन करीब तीन साल तक चला था. इस आंदोलन में थलामुथु और नटराजन नाम के दो युवकों की मौत हो गई थी और सैकड़ों लोग घायल हुए थे. हिंदीं विरोधी आंदोलन में भाग लेने के आरोप में करीब 12 सौ लोगों को गिरफ्तार किया गया था.इस आंदोलन के आगे झुकते हुए राजगोपालाचारी की कांग्रेस सरकार ने फरवरी 1940 में इस्तीफा दे दिया. मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नर लॉर्ड एर्स्किन ने हिंदी को अनिवार्य बनाने वाले आदेश को वापस ले लिया. 

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इसके बाद 1963 में हिंदी को संविधान के तहत आधिकारिक भाषा बनाने का प्रस्ताव आया. इसे 26 जनवरी 1965 से लागू किया जाना था. इससे पहले तमिलनाडु में इसका विरोध शुरू हो गया. इस हिंदी विरोधी आंदोलन में पुलिस कार्रवाई और आत्मदाह की घटनाओं में करीब 70 लोगों की जान चली गई थी. इस दौरान रेलवे स्टेशन जला दिए गए. हिंदी में लिखे साइनबोर्ड तोड़ दिए गए.

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हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने से पीछें क्यों हटी केंद्र सरकार

सीएन अन्नादुराई 26 जनवरी को सभी घरों की छत पर काला झंडा देखना चाहते थे.लेकिन गणतंत्र दिवस को देखते हुए घरों पर काला झंडा फहराने की तारीफ 25 जनवरी कर दी गई थी. उस दिन मदुरई में हिंसक विरोध-प्रदर्शन हुआ. कांग्रेस के ऑफिस के बाहर आठ लोगों को जिंदा जला दिया गया. तमिलनाडु में 25 जनवरी को 'बलिदान दिवस' के रूप में मनाया जाता है. इसे देखते हुए केंद्र सरकार को अपने कदम पीछे खिंचने पड़े. सरकार ने 1967 में भाषा नीति में संशोधन किया. इसमें अंग्रेजी को भी आधिकारिक भाषा के रूप में बनाए रखा गया.

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तमिलनाडु ने 1968 से अपने दो-भाषा फॉर्मूले पर काम करना शुरू किया. इसमें तमिल के साथ-साथ अंग्रेजी में शिक्षा देने पर जोर दिया गया. तमिलनाडु में तमिल के साथ-साथ अंग्रेजी में शिक्षा दी जाती है. इसका असर यह हुआ है कि भारत में हुई साफ्टवेयर क्रांति दक्षिण में अधिक सफल हुई. अंग्रेजी के महत्व को अब दूसरे राज्यों ने भी पहचाना है. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे ठेठ हिंदी भाषी राज्य में अब हर तरफ अंग्रेजी मीडियम के स्कूल दिखाई देते हैं. 

एनईपी और त्रिभाषा फार्मूला

राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन आमने-सामने हैं.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत तीन भाषाओं में पठन-पाठन की नीति है. इसमें सरकार ने प्रस्तावित किया कि माध्यमिक स्तर तक हिंदी भाषी राज्यों में छात्र हिंदी और अंग्रेजी के अलावा दक्षिणी भाषाओं में से एक और गैर-हिंदी भाषी राज्यों में क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी के साथ हिंदी सीखें. राजीव गांधी सरकार में 1986 में बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति और नरेंद्र मोदी सरकार में 2020 में बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी यही फार्मूला है. साल 1986 की एनईपी के विपरीत 2020 की एनईपी में हिंदी का कोई उल्लेख नहीं है.इसमें कहा गया है कि बच्चों द्वारा सीखी जाने वाली तीन भाषाएं राज्यों, क्षेत्रों और निश्चित रूप से स्वयं छात्रों की पसंद की होंगी, बशर्ते कि तीन भाषाओं में से कम से कम दो भारतीय मूल की भाषाएं हों.हालांकि इसके बाद भी तमिलनाडु सरकार इसे हिंदी थोपने का प्रयास बता रही है.इसी को लेकर केंद्र और तमिलनाडु सरकार में ठन गई है. केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा है कि अगर तमिलनाडु नई शिक्षा नीति को लागू नहीं करता है तो उनकी सरकार उसे समग्र शिक्षा अभियान के तहत वित्तीय मदद नहीं देगी. तमिलनाडु ने इसे ब्लैकमेलिंग बताया है. 

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