आखिर क्यों अयोध्या के फैसले में न्यायधीश के नाम का नहीं हुआ उल्लेख? मुख्य न्यायधीश ने बताई वजह

इस मुद्दे पर मुख्य न्यायधीश ने कहा-"इस मामले में संघर्ष का एक लंबा इतिहास रहा है. देखा जाए तो देश के इतिहास के आधार पर विविध दृष्टिकोण हैं और जो लोग पीठ का हिस्सा थे, उन्होंने सर्वसम्मति से फैसला किया कि यह अदालत का फैसला होगा.

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सुप्रीम कोर्ट ने चार साल पहले अयोध्या मामले पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. इस फैसले के कारण आज राम मंदिर बन रहा है. इस पूरे मामले पर भारत के मुख्य न्यायधीश ने पीटीआई को दिए एक इंटरव्यू में कहा है कि अयोध्या में विवादित स्थल पर एक ट्रस्ट द्वारा राम मंदिर के निर्माण के पक्ष में निर्णय सुनाने वाले पांच न्यायाधीशों ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया था. हालांकि, इसमें फैसला लिखने वाले किसी भी न्यायाधीश के नाम का उल्लेख नहीं किया गया है. आपकी जानकारी के लिए बता दें कि 9 नवंबर 2019 को राम मंदिर मामले में ऐतिहासिक फैसला आया था. उस समय भारत के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई थे. रंजन गोगोई ने ही पांच जंजों वाली संवैधानिक पीठ की अध्यक्षता की थी. साथ ही यह भी फैसला सुनाया गया था कि मस्जिद निर्माण के लिए अयोध्या में किसी और स्थान पर सुन्नी वक्फ बोर्ड को 5 एकड़ भूमि दी जाए.

पीटीआई के साथ एक विशेष साक्षात्कार में, सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि यह सर्वसम्मति से लिया गया निर्णय था. कोई भी फैसला जज का नहीं होता है, ये "अदालत का फैसला" था.

न्यायाधीश का नाम सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया?

इस मुद्दे पर मुख्य न्यायधीश ने कहा-"इस मामले में संघर्ष का एक लंबा इतिहास रहा है. देखा जाए तो देश के इतिहास के आधार पर विविध दृष्टिकोण हैं और जो लोग पीठ का हिस्सा थे, उन्होंने सर्वसम्मति से फैसला किया कि यह अदालत का फैसला होगा. अदालत एक स्वर में बोलेगी और ऐसा करने के पीछे का विचार यह स्पष्ट संदेश देना था कि हम सभी न केवल अंतिम परिणाम में, बल्कि फैसले में बताए गए कारणों में भी एक साथ हैं." 

उन्होंने कहा देश को लंबे समय तक ध्रुवीकृत करने वाले और भारतीय समाज की धर्मनिरपेक्षता को तार-तार करने वाले मामले पर सर्वसम्मत फैसला देते हुए, सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 2019 में कहा था कि हिंदुओं का यह विश्वास कि भगवान राम का जन्म इसी स्थान पर हुआ था, निर्विवाद था, और वह प्रतीकात्मक रूप से भगवान थे. 

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न्यायालय ने कहा था कि फिर भी, यह भी स्पष्ट है कि हिंदू कारसेवक, जो वहां राम मंदिर बनाना चाहते थे, उनके द्वारा 16वीं शताब्दी की तीन गुंबद वाली संरचना को ध्वस्त किया जाना गलत था, जिसका "समाधान किया जाना चाहिए". शीर्ष अदालत ने कहा था कि उसका आस्था और विश्वास से कोई लेना-देना नहीं है तथा इसके बजाय मामले को तीन पक्षों - सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा, एक हिंदू समूह और राम लला विराजमान के बीच भूमि पर स्वामित्व विवाद के रूप में लिया. उच्चतम न्यायालय के 1,045 पन्नों के फैसले का हिंदू नेताओं और समूहों ने व्यापक स्वागत किया था, जबकि मुस्लिम पक्ष ने कहा था कि वह फैसले को स्वीकार करेगा, भले ही यह त्रुटिपूर्ण है.

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